किस्ले की यह किताब कई मायनों में पूर्वोत्तर राज्यों के उन हालातों को हमें करीब से दिखाती है, जिसे ज्यादातर मीडिया में जगह नहीं मिल पाती है। यह किताब पूर्वोत्तर में होने वाले Fake, Staged, False encounters से लेकर Staged surrenders तक के पीछे के डरावने सच को बड़ी बहादुरी से सामने लाती है। कुछ घटनाएं तो ऐसी हैं, जिन्हें पढ़कर लगेगा कि कश्मीर, असम, मिज़ोरम जैसी जगहों पर किसी गरीब और अकेले आदमी की जान किस तरह 'प्रमोशन' और 'बहादुरी चक्र' के नाम पर बलि चढ़ जाती है, यानि ऐसे संकट ग्रस्त इलाके में अगर आपके आगे-पीछे कोई नहीं है तो आप कभी भी सरकारी तंत्र के किसी 'सनकी' अफसर के हाथों शिकार हो सकते हैं।
इरोम शर्मिला (फाइल फोटो)
सुप्रीम कोर्ट ने आज उन 1528 मुठभेड़ों की जांच के भी आदेश दिए हैं जिन पर फर्ज़ी होने का आरोप लगाया गया है। किशले ने अपनी किताब में इन 1528 मामलों का भी ज़िक्र करते हुए बताया है कि किस तरह 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों की जांच के लिए तीन जजों की एक समिति का गठन किया था और जस्टिस संतोष हेगड़े की अगुवाई वाली इस टीम को इनमें से शुरुआती छह केस 'ईमानदार' नहीं लगे थे। इनमें से एक मामला कुछ इस तरह है - सुरक्षाबल पर 12 साल के मोहम्मद आज़ाद खान की हत्या का आरोप। मणिपुर के एक हाईस्कूल में पढ़ने वाले आज़ाद की 4 मार्च 2009 को पुलिस की टीम और असम राइफल्स द्वारा उसके घरवालों के सामने हत्या कर दी गई थी। उसके पिता मोहम्मद वाहिद अली ने इन वर्दी पहने अफसरों का विरोध किया जो उनके बेटे को घसीट घसीट कर मार रहे थे। पिता और उसके परिवार को जबरन घर से बाहर निकाल दिया गया और उन जवानों ने कमरा अंदर से बंद कर दिया। खिड़की से परिवार वालों ने देखा कि उनके बेटे को बुरी तरह पीटा गया और फिर उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। बाद में पुलिस रिपोर्ट और आर्मी अधिकारियों के बयान में कहा गया कि सुरक्षा बलों ने 'अपने बचाव' में 12 साल के मोहम्मद आज़ाद खान को मार गिराया।
आगे एक और केस की बात की गई है - 19 साल के खुंबोंगमाजुम ओरसोनजीत जिसे कथित तौर पर घर से उठाकर पुलिस द्वारा मार गिराया गया था। वजह - पुलिस को उसके स्कूटर चलाने के तरीके में कुछ गड़बड़ लगती थी। वहीं 22 साल के इलांगबम किरणजीत को भी असम राइफल्स के जवानों द्वारा मार डालने का आरोप है। किरणजीत एक एथलीट था और वह साइकल पर अपनी गायों को ढूंढने जा रहा था जो घर नहीं लौटी थीं। चश्मदीदों का कहना है कि उसी दौरान उसे जवानों ने उठा लिया था। ऐसे ही करीब 1528 मुठभेड़ के मामले हैं जिनकी स्वतंत्र जांच की बात शुक्रवार को सु्प्रीम कोर्ट ने कही है।
यह कहानी सिर्फ पूर्वोत्तर की ही नहीं है। AFSPA कश्मीर में भी लागू है और पिछले साल 2012 के माचिल फर्ज़ी मुठभेड़ मामले में सेना ने छह जवानों की उम्र कैद की सज़ा पर मुहर लगाई थी। इन छह जवानों में कर्नल रैंक के एक अफसर के भी शामिल होने की बात कही गई थी। पुलिस जांच से यह साबित हुआ था कि तीन नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें इनाम और पैसों के लिए फर्ज़ी मुठभेड़ में मार दिया गया। ऐसे ही एक मामले में अशोक चक्र हासिल कर चुके मेजर डी श्रीराम शर्मा भी सवालों के घेरे में आ चुके हैं। 2013 में गठित सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति ने पाया था कि 2009 में इंफाल के दो चचेरे भाई गोविंद और नोबो मीतिई को 'जान बूझकर' सुरक्षाबलों ने निशाना बनाया था और यह मिशन मेजर शर्मा की अगुवाई में पूरा किया गया था।
यकीनन इन सभी आरोपों के खिलाफ भी कई दलीलें दी जा सकती हैं और ऐसे संकट भरे इलाकों में सेना की चुनौतियों पर भी एक किताब लिखी जा सकती है जिसे हम सभी को पढ़ना भी चाहिए। लेकिन फिलहाल आज (शुक्रवार) सुप्रीम कोर्ट का सेना को अपने बल पर काबू करने की बात कहना इन इलाकों के नागरिकों की स्थिति को काफी हद तक बयां कर देता है। इरोम शर्मिला ज़माने से AFSPA के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं, आपको शायद याद हो, विशाल भारद्वाज ने भी ‘हैदर’ में सेनाओं के बल प्रयोग की ओर बेहद 'रचनात्मक' इशारा किया था.. और अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे स्वीकार कर लिया है...
आखिर में इसी किताब के हिस्से में लिखी एक पूर्व सैनिक की कही बात जिससे हम सहमत, असहमत हो सकते हैं - 'संकट ग्रस्त इलाकों में सेना की हालत 'तगड़े पहलवान' जैसी हो जाती है। जब हालात बिगड़ते हैं तो गांववाले तगड़े पहलवान से मदद मांगते हैं। इसके बदले पहलवान की काफी सेवा की जाती है, उसका मनोरंजन किया जाता है, उसे खूब खिलाया पिलाया जाता है। जब हालात काबू में हो जाते हैं तो लोग पहलवान से कहते हैं कि अब वह जा सकता है। लेकिन तब तक पहलवान को इन सुविधाओं की आदत पड़ चुकी होती है, वह जाने से मना कर देता है....'
कल्पना एनडीटीवी ख़बर में कार्यरत हैं
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