1982 में जस्टिस पीएन भगवती ने अपने फैसले में कहा था कि न्यूनतम मज़दूरी कम होने के कारण आधे मज़दूर बंधुआ मज़दूरी कर रहे हैं. भारत में संगठित और असंगठित क्षेत्र की मज़दूरी में ही भयानक अंतर है. एक अध्ययन के मुताबिक 2010-11 में नियमित मज़दूर को हर दिन का 392 रुपये मिल रहे थे तो असगंठित क्षेत्र वाले को 143 रुपये. मज़दूर संघ भी असगंठित क्षेत्र के मज़दूरों की बात ज़ोर शोर से नहीं करते जबकि अब ज़्यादातर मज़दूर इसी क्षेत्र से आते हैं जो एक तिहाई कम मज़दूरी पर काम करते हैं. केंद्रीय मज़दूर संगठनों ने शुक्रवार से हड़ताल पर जाने की धमकी दी है. उनकी मांग है कि न्यूनमत मज़दूरी बढ़ाई जाए.
सातवें वेतन आयोग ने केंद्र सरकार में न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये प्रति माह कर दिया है. कर्मचारी संगठन चाहते हैं कि यह 18,000 की जगह 26,000 होनी चाहिए. सातवें वेतन आयोग के आधार पर मज़दूर संघ कह रहे हैं कि अकुशल मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी 18,000 हो. पिछले साल दस केंद्रीय मज़दूर संघों की हड़ताल हुई थी तब मांग की गई थी कि अकुशल मज़दूर के लिए न्यूनतम मज़दूरी की दर 6,330 रुपये महीने से बढ़ाकर 15,000 कर दी जाए. इन संगठनों का दावा है कि इनके 15 करोड़ सदस्य हैं फिर भी 15 करोड़ लोग अपने लिए 15,000 रुपये की न्यूनतम मज़दूरी हासिल नहीं कर सके. पिछले साल न्यूतनम मज़दूरी बढ़ी लेकिन सिर्फ 7,098 रुपये ही हुई, 15,000 नहीं हुई. अब ये संगठन फिर से हड़ताल पर जाने की बात कर रहे हैं. इस बार 15,000 की जगह 18,000 रुपये न्यूनतम मज़दूरी करने की मांग है.
30 अगस्त को केंद्र सरकार ने न्यूनमत मज़दूरी में 350 रुपये रोज़ का बढ़ाने का फैसला किया है. अब अकुशल मज़दूर की मज़दूरी हर दिन 246 रुपये की जगह 350 रुपये होगी. अगर आप इसे महीने के 30 दिन से गुणा करें तो अकुशल मज़दूर की मासिक कमाई होगी 10,500. दिल्ली सरकार ने हाल ही में न्यूनतम मज़दूरी में 50 फीसदी बढ़ोत्तरी का एलान किया है. अगर यह लागू हुआ तो अकुशल मज़दूर का पगार 14,052 रुपये प्रति माह होगा. कुशल मज़दूर का वेतन 17,033 होगा. अर्धकुशल मज़दूर का दरमाहा 15,471 रुपये होगा.
18,000 रुपये तो दिल्ली में भी नहीं होते हैं लेकिन फिर भी दिल्ली में न्यूनतम मज़दूरी 18,000 के करीब है और आसपास के राज्यों की तुलना में 80 से 100 फीसदी ज़्यादा है. आप किसी भी अर्थशास्त्री से पूछेंगे तो दो बात कहेंगे. आर्थिक असमानता बढ़ रही है और बेरोज़गारी भी. यह बात वे अर्थशास्त्री भी कहेंगे जो मानते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है. दुनिया भर में आर्थिक असमानता को लेकर चिन्ता है. लोगों की कमाई नहीं बढ़ रही है. क्या करोड़ों लोग आज के ज़माने में 18,000 रुपये से कम में रह सकते हैं, रहते ही हैं लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि वे किस हालात में रह रहे हैं. गनीमत है कि ये लोग ट्वीटर पर नहीं हैं, वर्ना रोज़ ट्वीट करते दस्तखत 15,000 पर कराते हैं और वेतन मिलता है 10,000 से भी कम. ये सब ट्वीट होने लगे और ट्रेंड होने लगे तो ट्विटर पर डेमोक्रेसी का मज़ा ख़राब हो सकता है. वैसे आपको अपने सिक्योरिटी गार्ड से लेकर तमाम मज़दूरों से पूछना चाहिए कि वे आठ नौ हज़ार के वेतन में कैसे परिवार चलाते हैं. हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन पूछ तो सकते ही हैं.
दुनिया भर में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने की बात हो रही है. इसके बढ़ाने से उद्योग और रोज़गार पर क्या असर पड़ेगा, अलग-अलग रिसर्च के अलग-अलग दावे हैं. कोई कहता है कि 10 फीसदी न्यूनमत मज़दूरी बढ़े तो 2 फीसदी रोज़गार कम हो जाता है. कोई कहता है कि न्यूनतम मज़दूरी बढ़ने से उत्पादकता बढ़ जाती है और कंपनी को मुनाफा होता है. कोई कहता है कि न्यूनतम मज़दूरी बढ़ायेंगे तो कंपनियां या लोग ऑटोमेटिक तरीके अपनायेंगे. जैसे वे नहीं बढ़ाने पर ऑटोमेटिक तरीके अपनाना बंद कर देते हैं. कुछ तर्कों में तुक है, कुछ बेतुके हैं.
पूरी दुनिया में यह चुनौती है कि कैसे न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाई जाए क्योंकि अब इसके बिना गुज़ारा नहीं चलने वाला है. आप इतनी बड़ी आबादी को कम वेतन पर जीने के नाम पर मरते हुए नहीं देख सकते है. न्यूज़ीलैंड और फिनलैंड छोटे स्तर पर एक नया मॉडल अपनाने जा रहे हैं. सभी को बेसिक इनकम दिया जाएगा. कई स्तरों पर इसे लेकर बहस शुरू हो गई है. इसी अप्रैल में ब्रिटेन ने एक कानून पास किया है जिसका नाम है National Living Wage. इसके तहत 25 साल या उससे अधिक के कामगार को हर घंटे की मज़दूरी होगी 7.20 पाउंड. पहले 6.70 पाउंड ही मिलता था. नेशनल लिविंग वेज लागू करने के लिए नियोक्ताओं के लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान किया गया है. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक टोल नंबर दिया गया जहां मज़दूर शिकायत कर सकता है.
अमरीका में भी बर्नी सेंडर्स ने प्रति घंटे 7.25 डॉलर न्यूनतम मज़दूरी को 15 डॉलर करने की बात कही थी. भारतीय रुपये से तुलना करें इस वक्त अमरीका में न्यूनमत मज़दूरी हर घंटे की 485 रुपये है. अमरीका में न्यूनतम मज़दूरी की दर से एक कामगार आठ घंटे में 3,884 रुपये कमाता है, जबकि भारत में आठ घंटे में 350 रुपये. अमरीकी मज़दूर दस गुना है, लेकिन उनकी जीडीपी भी हमसे कई गुना बड़ी है. क्या भारत में 15,000 या 18,000 रुपये प्रति माह की न्यूनतम मज़दूरी की मांग जायज़ नहीं है. सेंट्रल स्टेटिस्टिक ऑफिस ने एक डेटा जारी किया है, उसके अनुसार अप्रैल-जून की तिमाही में भारत की जीडीपी 7.1 प्रतिशत दर्ज हुई है. पिछले छह तिमाही में यह सबसे कम प्रगति है. उम्मीद की जा रही थी कि जीडीपी दर 7.6 प्रतिशत रहेगी, लेकिन 7.1 प्रतिशत ही दर्ज हुई.
खनन, कंस्ट्रक्शन और खेती में गिरावट आने से अप्रैल-जून तिमाही की जीडीपी कम हुई है. ये चुनौतियां हैं, लेकिन ये चुनौतियां विधायकों के लिए नहीं हैं. बुधवार को ही हरियाणा ने अपने विधायकों की तनख्वाह बढ़ा ली है. तीन साल में उनकी तनख्वाह डबल हो गई है. पंद्रह करोड़ के वोट से विधायक बनने वाले अपनी तनख्वाह बढ़ा लेते हैं, लेकिन 15 करोड़ वाले अपनी मज़दूरी नहीं बढ़ा पा रहे हैं.
This Article is From Aug 31, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : क्या 18,000 रुपये न्यूनतम मजदूरी की मांग जायज नहीं है?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 31, 2016 21:30 pm IST
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Published On अगस्त 31, 2016 21:28 pm IST
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Last Updated On अगस्त 31, 2016 21:30 pm IST
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