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This Article is From May 03, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : भारतीय प्रेस जोखिम उठा रहा है या सत्ता के सामने सिर झुका रहा है?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 03, 2017 22:01 pm IST
    • Published On मई 03, 2017 21:55 pm IST
    • Last Updated On मई 03, 2017 22:01 pm IST
हम सब मीडिया से घिरे हुए समाज में रहते हैं. आम जीवन में तमाम मुद्दों के साथ साथ मीडिया भी एक मुद्दा रहता ही है. आप ही नहीं, हम भी इस मीडिया को समझने का लगातार प्रयास करते रहते हैं. राष्ट्रवाद से लेकर रासायनिक खाद के साथ-साथ मीडिया को लेकर भी तमाम मंचों पर बहसें होती रहती हैं. आपके लिए भी मीडिया एक मुद्दा रहता है. मीडिया के लिए भी आप एक मुद्दा हैं. मीडिया के बारे में आप जितनी राय रखते हैं शायद पहले उतनी नहीं रखते होंगे. मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर दुनिया भर में चिंता जताई जा रही है, साथ ही साथ मीडिया का प्रसार भी उसी रफ्तार से हो रहा है. तमाम मानकों को देखें तो प्रेस की स्वतंत्रता कम हो रही है, वहीं प्रेस का कारोबार तेज़ी से बढ़ता ही जा रहा है. ये मुझे समझ नहीं आता है कि जब प्रेस आज़ाद ही नहीं है तो मीडिया के नए-नए माध्यमों का वर्चस्व कैसे बढ़ता जा रहा है. क्या हम या आप मीडिया की स्वतंत्रता को महत्व नहीं देते हैं. विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर ट्वीट तो वैसे ही हो रहे हैं जैसे दीवाली और रामनवमी पर होते हैं, इसीलिए लगा कि इस त्योहार को आपके साथ मनाता हूं. हम भारतीयों के मन में ब्रिटेन और अमरीकी मीडिया की कितनी गहरी छाप है. सीएनएन और बीबीसी के अलावा न्यूयार्क टाइम्स में अगर प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना छप जाए तो विरोधी उम्मीद बांध लेते हैं कि चुनाव हारेंगे. तारीफ़ छप जाये तो उनके समर्थक खुश हो जाते हैं कि प्रधानमंत्री का नाम पूरी दुनिया में हो रहा है. क्या आप जानते हैं कि उनके अपने देश में मीडिया को लेकर किस तरह की बहस हो रही है. न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, सीएनन, बीबीसी, टाइम्स, इकोनोमिस्ट जैसे संस्थानों वाले देश अमरीका और ब्रिटेन प्रेस की स्वतंत्रता घटी है.

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की रेटिंग में अमरीका 2016 में 41वें नंबर पर था जो अब दो अंक गिरकर 43 पर आ गया और ब्रिटेन जो 2016 में 38वें नंबर पर था अब गिरकर 40वें नंबर पर आ गया है. इन मुल्कों में लोकतंत्र की संस्थाएं काफी मज़बूत मानी जाती है फिर यहां मीडिया की स्वतंत्रता क्यों घट रही है. अमरीका के राष्ट्रपति तो चुनाव लड़ने के समय से अपने मुल्क की मीडिया को खुलकर गरियाते हैं. बकायदा गाली जैसी भाषा देते हैं. हाल ही में जब उनकी सरकार ने 100 दिन पूरे किये तो ट्रंप व्हाइट हाउस की रिपोर्टिंग करने वाले संवाददाताओं के रात्रि भोज में नहीं गए. आम तौर पर राष्ट्रपति ऐसे भोज में जाते हैं. ट्रंप वाशिंगटन से दूर पेन्सिलवेनिया चले गए और वहां समर्थकों के बीच मीडिया को जमकर निशाना बनाया. उन्होंने कहा कि अगर मीडिया का काम ईमानदारी और सच दिखाना है तो इस पैमाने पर उसे ज़ीरो मिलना चाहिए. वे चुनाव के समय से ही मीडिया को फेक न्यूज़ कहते रहे हैं. अमरीका में अब भी इतना बचा हुआ है कि पत्रकारों के भोज में मिन्हाज़ ने जमकर ट्रंप पर चुटकी ली और कहा कि ट्रंप झूठों के सरताज हैं. मिन्हाज़ साहब ने तो अब राष्ट्रपति को लायर इन चीफ यानी झूठों का सरताज कहा है. हमारे यहां तो भरत व्यास जी ने 1957 में दो आंखे बारह हाथ के लिए गाना लिखा था जो बड़ा मशहूर हुआ था. सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला. हर मुल्क में प्रेस और प्रेसिडेंट या प्रेस और प्रधानमंत्री के बीच संघर्ष छिड़ा हुआ है. टर्की के राष्ट्रपति भारत आए थे और यहां छात्रों को संदेश देकर गए कि पश्चिमी मीडिया पर भरोसा न करें. वो सच नहीं दिखाता है. आप टर्की के चैनल देखिये. रिपोर्टर्स विदाउड बॉर्डर्स ने टर्की में प्रेस की स्वतंत्रता के बारे में जो टिप्पणी की है वो शायद जामिया के सभागार में सुन रहे छात्रों को पता नहीं होगा. इसकी रिपोर्ट में टर्की को लेकर सबसे अधिक चिंता जताई गई है. 180 देशों में टर्की का स्थान 155 वां है. 2016 की तुलना में चार अंक नीचे गिरा है. 12 साल में यह 57 अंक नीचे गिरा है. जुलाई 2016 में वहां तख़्तापलट की कोशिशें हुईं थीं. उसके बाद तो सरकार ने प्रेस के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया. कई मीडिया संस्थानों पर प्रतिबंध लगा दिये गए. बिना ट्रायल के 100 से अधिक पत्रकारों को जेल भेज दिया गया. 

कहीं से भी मीडिया को लेकर अच्छी ख़बर नहीं है. ऐसा क्यों हो रहा है, क्या जनता को स्वतंत्र मीडिया नहीं चाहिए, क्या स्वतंत्र मीडिया की चाह सिर्फ कुछ लोगों तक ही सीमित है. मीडिया का कारोबार काफी तेज़ी से बढ़ रहा है. दुनिया में भी और भारत में भी. लेकिन क्या आपके जीने की परिस्थितियां पहले से बेहतर हुई हैं, क्या आपको लगता है कि राजनीति में जवाबदेही आ गई है, या सबकुछ धारणा ही है, जैसा चल रहा था वैसा ही चल रहा है. लोगों का भरोसा इसी मीडिया पर क्यों है जिसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता को लेकर दुनिया भर में सवाल उठ रहे हैं. इन सब उतार-चढ़ाव के बीच पाकिस्तान 2016 की तुलना में 8 अंक बेहतर हो गया. 2016 में पाकिस्तान 147वे नंबर पर था, लेकिन 2017 में 139 वें नंबर पर आ गया. 2016 में भारत 133 नंबर पर था जो तीन अंक गिरकर 2017 में 136 पर आ गया. 

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स, जिसने दुनिया में प्रेस की स्वतंत्रता के सूचकांक तैयार किये हैं, उनकी रिपोर्ट में कुछ टिप्पणियां देखी जा सकती हैं. इस संस्था के सेक्रेटरी जनरल Christophe Deloire का कहना है कि लोकतंत्रों में जिस दर से प्रतिबंध बढ़ते जा रहे हैं वो काफ़ी चिंता की बात है और अगर मीडिया की आज़ादी सुरक्षित नहीं है तो किसी दूसरी आज़ादी की गारंटी नहीं दी जा सकती. ये डाउनवर्ड स्पाइरल, हमें कहां ले जाएगा? यानी हम गिरते गिरते कहां पहुंचने वाले हैं. जहां भी authoritarian strongman model की जीत हुई है, वहां मीडिया की आज़ादी घटी है. ऐसी जगहों पर पब्लिक रेडियो और टीवी स्टेशन प्रोपेगेंडा के औज़ार बन गए हैं. जैसे पोलैंड, हंगरी, तंज़ानिया वगैरह. तुर्की (155) में रजब तैयब अर्दोगान सरकार के ख़िलाफ़ नाकाम बगावत के बाद से वो देश दुनिया में मीडिया प्रोफेशनल्स के लिए सबसे बड़ी जेल सा बन गया है. वहां एक एकाधिकारवादी, स्वेच्छाचारी सरकार सत्ता में है. पुतिन का रूस (148) भी इन हालात से बहुत दूर नहीं है. 

हमने भारत के कुछ पत्रकारों से उनकी राय मंगाई. उनसे पूछा कि क्या वे मानते हैं कि भारत में प्रेस आज़ाद है. क्या उन्हें लगता है कि पत्रकारिता में आने के बाद वही काम कर रहे हैं जिसके लिए आए थे, क्या अब वे पहले से ज़्यादा गंभीरता से सोचते हैं कि मौका मिलता तो इस माध्यम को छोड़ देते. 

कभी आपने सोचा है कि अगर प्रेस भीड़ की भाषा बोलने लगे, सरकार की भाषा बोलने लगे तो आपका क्या नुकसान होगा. आप कोशिश करेंगे तो बहुत आसानी से समझ आ जाएगा. भारत में एक काम बहुत चालाकी से हो रहा है. राष्ट्रवाद की आड़ में पत्रकारिता अपनी चमचागिरी छिपा रही है. पत्रकार का काम सवाल करना है तो आज कल आप देखेंगे कि सवाल करने वालों का किस तरह से मज़ाक उड़ाया जाता है. लोकतंत्र के लिए जितना मीडिया की स्वतंत्रता ज़रूरी है उतना ही विपक्ष की मौजूदगी भी. भारत की पत्रकारिता में आए दिन विपक्ष का मज़ाक उड़ाया जाता है. उनकी घेराबंदी इस तरह से हो रही है जैसे वो विपक्ष में नहीं, सरकार में हो. विपक्ष के खिलाफ प्रेस अतिरिक्त रूप से हमलावर हो गया है. ये सब आप खुद भी नोटिस कर सकते हैं. राष्ट्रपति ओबामा ने जब अपना पद छोड़ा था तब प्रेस के लिए एक बात कही थी, "You are not supposed to be sycophants, you are supposed to be skeptics." मतलब पत्रकार का काम चमचा होना नहीं है, उसका काम सवाल करना है. ये उस देश के राष्ट्रपति का कहना है जिस देश में फर्स्ट अमेंडमेंट के तहत प्रेस का काफी अधिकार मिला हुआ है. ओबामा ने आठ साल के कार्यकाल में 165 प्रेस कांफ्रेंस की थी. हर साल वे 20 प्रेस कांफ्रेंस करते थे. क्या भारत में किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री या किसी मुख्यमंत्री के बारे में आप जानते हैं जो साल में 20 प्रेस कांफ्रेंस करते हों, जहां खुलकर सवाल जवाब होते हों. मुझे तो ध्यान नहीं आ रहा है.

राष्ट्रपति ट्रंप प्रेस का मज़ाक उड़ाते हैं. उनके बीच जाने की बजाए अपने समर्थकों के बीच जाकर प्रेस पर हमला बोलते हैं. इस तरह से लोगों को भी प्रेस के खिलाफ भिड़ा दे रहे हैं. यही हो रहा है. दुनिया भर में ताकतवर नेता चालाकी से लोगों को प्रेस के खिलाफ़ भड़का रहे हैं. हमारे यहां तो अब दोस्त यार भी सलाह देते हैं कि छोड़ो पत्रकारिता की चिंता, ज़्यादा किसी से मत भिड़ो. देश चलता रहेगा. लेकिन अमरीका के पत्रकारों ने मिलकर राष्ट्रपति ट्रंप को एक लंबा ख़त लिखा. इस पर भी हमने प्राइम टाइम में चर्चा की थी. तब भी कहा था कि अगर इस पत्र को हिन्दी, बांग्ला और मराठी से लेकर तमिल, तेलूगु के अखबार पहले पन्ने पर छाप दें तो पत्रकारों से पहले पाठकों में बदलाव आ जाएगा. वो प्रेस के काम को पैनी नज़र से देखने लगेंगे. अमेरिकन प्रेस कोर अमरीका के पत्रकारों का एक बड़ा संगठन है जिसका सेंटर न्यूयार्क के कोलंबिया युनिवर्सिटी के अंदर है. हर तरह के न्यूज़ संगठन और विचारधारा के पत्रकार हैं.

आदरणीय निवार्चित राष्ट्रपति जी, 
आपके कार्यकाल के शुरू होने के अंतिम दिनों में हमने अभी ही साफ कर देना सही समझा कि हम आपके प्रशासन और अमरीकी प्रेस के रिश्तों को कैसे देखते हैं. हम मानते हैं कि दोनों के रिश्तों में तनाव है. रिपोर्ट बताती है कि आपके प्रेस सचिव व्हाईट हाउस से मीडिया के दफ्तरों को बंद करने की सोच रहे हैं. आपने ख़ुद को कवर करने से कई न्यूज़ संगठनों को बैन किया है. आपने ट्विटर पर नाम लेकर पत्रकारों पर ताने कसे हैं, धमकाया है. अपने समर्थकों को भी ऐसा करने के लिए कहा है. आपने एक रिपोर्टर का यह कहकर मज़ाक उड़ाया है कि उसकी बातें इसलिए अच्छी नहीं लगी कि वह विकलांग है. 
अपने प्रशासन तक रिपोर्टर की पहुंच समाप्त कर ग़लती करेंगे. हम सूचना हासिल करने के तरह तरह के रास्ते खोजने में माहिर हैं. आपने अपने अभियान के दौरान जिन न्यूज़ संगठनो को बैन किया था उनकी कई रिपोर्ट बेहतरीन रही है. हम इस चुनौती को स्वीकार करते हैं. पत्रकारिता के नियम हमारे हैं, आपके नहीं हैं. हम चाहे तो आपके अधिकारियों से आफ रिकार्ड बात करें या न करें. हम चाहें तो आफ रिकार्ड ब्रीफिंग में आयें न आयें. अगर आप यह सोचते हैं कि रिपोर्टर को चुप करा देने या भगा देने से स्टोरी नहीं मिलेगी तो ग़लत हैं. हम आपका पक्ष लेने का प्रयास करेंगे. लेकिन हम सच्चाई को तोड़ने मरोड़ने वालों को जगह नहीं देंगे. वे जब भी ऐसा करेंगे हम उन्हें भगा देंगे. यह हमारा अधिकार है. हम आपके झूठ को नहीं दोहरायेंगे. आपकी बात छापेंगे लेकिन सच्चाई का पता करेंगे. आप और आपका स्टाफ व्हाइट हाउस में बैठा रहे, लेकिन अमरीकी सरकार काफी फैली हुई है. हम सरकार के चारों तरफ अपने रिपोर्टर तैनात कर देंगे. आपकी एजेंसियों में घुसा देंगे और नौकरशाहों से ख़बरें निकाल लायेंगे. हो सकता है कि आप अपने प्रशासनिक इमारत से आने वाली खबरों को रोक लें लेकिन हम आपकी नीतियों की समीक्षा करके दिखा देंगे. 


भारत में ऐसा पत्र कोई लिख दे तो नेता एक काम करेंगे. आजकल राजनीतिक दलों के समर्थकों ने बहुत सारी वेबसाइट खोल रखी है. सबके ट्वीटर अकाउंट तो हैं ही. उनके ज़रिये उस पत्रकार या मीडिया संस्थान पर जो हमला होगा कि लोग भी उसी के खिलाफ खड़े होने लगेंगे. उन्हें लगेगा कि अपने नेता को सपोर्ट करने का मतलब है उससे सवाल करने वाले मीडिया का विरोध करना. इस चक्कर में नुकसान किसका होता है. आपका होता है. अमरीका के पत्रकारों ने तो ट्रंप की चुनौती स्वीकार की, लेकिन उसके बहुत पहले से दुनिया भर के पत्रकार घोटालेबाज़ और झूठे नेताओं के पीछे पड़े हैं. आपको पनामा पेपर्स की याद दिलाता हूं जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने कई दिनों तक लगातार छापा था. जर्मनी के दक्षिणी हिस्से में एक शहर है म्यूनिख. यहां से एक अखबार निकलता है जिसका नाम है ज्युड डॉयचे त्साइटुंग. जर्मन में ज्युड का मतलब होता है दक्षिण, डॉयचे मतलब जर्मनी और त्साइटुंग मतलब अखबार. दक्षिण जर्मनी का अख़बार का बड़ा अख़बार है जिसका सर्कुलेशन 4 लाख 32 हज़ार है.  दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुए ज्युड डॉयचे त्साइटुंग यह अख़बार काफी लोकप्रिय है. इस अखबार को पनामा शहर की एक कंपनी मोसाक फोंसेका से जुड़े 2 लाख शेल कंपनियों यानी फर्जी कंपनियों के एक करोड़ से अधिक ईमेल और पीडीएफ फाइल मिलती है. आरोप है कि 1977 में बनी इस कंपनी ने कई फर्ज़ी कंपनियों को बिकवाने का खेल खेला है जिसके ज़रिये दुनिया के बड़े लोगों ने अपना पैसा अपनी सरकार से छिपा कर पनामा में जमा कराया है ताकि टैक्स न इन्हीं दस्तावेज़ों को पनामा पेपर्स नाम दिया गया है. 

लाखों कंपनी और करोड़ों दस्तावेज़ों को पढ़ना आसान नहीं था. वो भी तब जब इनकी जांच के लिए दुनिया के कई देशों में पड़ताल ज़रूरी थी. इसलिए ज्यूड डॉयचे त्साइटुंग अखबार ने इन दस्तावेज़ों को International Consortium of Investigative Journalists से साझा किया. दुनिया भर के 370 पत्रकार एक साल तक इन दस्तावेज़ों की जांच करते रहे. इस समूह में भारत की तरफ से इंडियन एक्सप्रेस भी शामिल है जिसकी वेबसाइट और अखबार में पनामा पेपर्स को काफी विस्तार से छापा गया है. ICIJ 76 देशों के दुनिया भर के 109 संस्थानों के खोजी पत्रकारों का एक समूह है. अपराध, भ्रष्टाचार अब एक देश की सीमा तक सीमित नहीं है,कई देशों का मामला हो जाता है इसलिए यह ज़रूरी है कि कई देशों के पत्रकार मिलकर काम करें. ICIJ में कई प्रकार के अनुभवी लोग काम करते हैं खासकर वे लोग जो सरकारी रिकार्ड को पढ़ने में दक्ष होते हैं. तथ्यों की जांच करने वाले और वकील भी होते हैं. भारत में ऐसा कई पत्रकार अपने स्तर पर कर रहे हैं. कई वेबसाइट हैं जो पत्रकारिता का विकल्प बन रही हैं मगर उनकी पहुंच उतनी नहीं है जितनी मीडिया की है या जितनी राजनीतिक दलों के नियंत्रण वाली सोशल मीडिया की है.

फेक न्यूज़ एक चुनौती तो है ही. पत्रकार भी फेक न्यूज़ पेश कर रहे हैं और सरकारें भी फेंक न्यूज़ गढ़ रही हैं. फेक न्यूज़ मतलब न्यूज़ के नाम पर नकली न्यूज़. भारत में चुनाव शुरू होते ही चुनाव आयोग पेड न्यूज़ की चुनौती से जूझने लगता है. पैसा देकर या किसी और तरीके से विज्ञापन देकर राजनीतिक दलों के हक में लहर पैदा की जा रही है. पेड न्यूज़ अब ठीक ठाक पुरानी समस्या हो चुकी है. एक और न्यूज़ है स्लो न्यूज़. इसका कंसेप्ट बीबीसी के डायरेक्टर जनरल टोनी हाल ने दिया है. टोनी हॉल का मानना है कि हम सारा इंटरनेट तो संपादित नहीं कर सकते मगर किनारे भी नहीं बैठ सकते. इसके लिए बीबीसी के भीतर इंटेलिजेंस यूनिट बनाई जा रही है जो तमाम फेक न्यूज़ की तथ्यपरक जांच कर उसका भांडाफोड़ करेगा. आप देखेंगे कि ज्यादातर फेक न्यूज़ राजनीतिक संगठनों और उनके समर्थकों द्वारा ही फैलाये जा रहे हैं. मीडिया भी फेक न्यूज़ बनाने में कम नहीं है. बीबीसी ने इस चुनौती को अभियान के तौर पर स्वीकार किया है. फेसबुक ने भी फेक न्यूज़ की जांच के लिए टीम बनाने का एलान किया है. बीबीसी की यह बात दिलचस्प है कि हमें स्लो न्यूज़ की ज़रूरत है. जिसमें गहराई हो, आंकड़े हों, खोज हो, विश्लेषण हो और विशेषज्ञता हो.

जिस दिन पाकिस्तान ने भारतीय सैनिकों के साथ बर्बरता की उस दिन एक चैनल और एक अखबार ने एक ख़बर छापी कि भारत ने जवाबी कार्रवाई करते हुए दस पाकिस्तान सैनिकों के सर काट लिये हैं. एक चैनल ने कहा कि सात पाकिस्तानों के सर काट लिये गए हैं. ये खबरें छपी और लोगों तक पहुंच भी गईं. जबकि सेना ने अगले दिन साफ कहा कि ऐसी कोई घटना नहीं हुई है. सेना के मामले में सात और दस सर की कहानी क्या बनाई गई या किसी ने ग़लत ब्रीफ किया. संपादकीय ग़लतियां हो जाती हैं, छपने में भी चूक हो जाती है मगर ये ख़बर पहले पन्ने की थी. साफ साफ लिखा था कि भारत ने दो के बदले दस पाक सैनिक मार गिराए. 

एक ग़लती मंगलवार के प्राइम टाइम में मुझसे भी हुई. उस ग़लती में दो ग़लती हुई. कई अखबारों ने ख़बर छापी कि रेलवे में 972 रुपये में 100 ग्राम दही खरीदा गया है. यह सूचना आर टी आई से मिली है. रेलवे ने जब जांच की तो पाया कि अधिकारियों ने आर टी आई में ग़लत जानकारी दी. इन अधिकारियों को सस्पेंड कर दिया गया है. हमने ये खबर तो दिखाई मगर तब तक रेलवे की प्रतिक्रिया का मुझे पता नहीं चला था. फिर ये ग़लती है. रेलवे अधिकारियों ने आर टी आई को गलत जानकारी दी, वो आर टी आई अखबारों में छपी और वहां से प्राइम टाइम में. हमने दूसरी ग़लती ये कि 972 रुपये को 9,720 रुपये लिख दिया. ऐसी ग़लती के लिए माफी मांगने में मुझे कोई संकोच नहीं है. लेकिन ये फेक न्यूज नहीं है. फेक न्यूज वो है जिसे आज कल कई तरह से आपके बीच पहुंचाया जा रहा है. इस पर निगरानी रखने के लिए कई वेबसाइट वजूद में आ गई हैं. Alt News का दावा है कि वो प्रोपेगेंडा करने वाले उन कथित पत्रकारों का पर्दाफ़ाश करता है जो मेनस्ट्रीम मीडिया में अपनी पैठ बना चुके हैं. इसके अलावा सोशल मीडिया पर छप रहे तमाम तरह के अफवाहों की भी जांच होती है. boomlive.in ऐसा ही एक प्लेटफॉर्म है. boomlive.in एक स्वतंत्र डिजिटल जर्नलिज़्म पहल. ये वेबसाइट एक फैक्ट चेकिंग वेबसाइट है जो अपने पाठकों को विचारों की जगह प्रमाणित तथ्य देती है. जब भी कभी कोई दावा होता है तो वेबसाइट तथ्यों को चेक करती है. वेबसाइट उन लोगों पर भी स्टोरी करती है जो व्यक्तिगत अधिकारों, बोलने की आज़ादी को लेकर संघर्ष कर रहे होते हैं.

मीडिया के बारे में समझ के लिए आपको हूट डाट ओआरजी पर भी जाना चाहिए. यहां पर आपको मीडिया की नैतिकता, प्रेस की आज़ादी को लेकर कई अच्छे लेख मिलेंगे. मीडिया को समझने में काफी मदद मिलेगी. हूट ख़बरों की सटीकता, संतुलन, जानकारी, सेंसरशिप और ज़िम्मेदारी जैसे पहलुओं की पड़ताल करती है. MediaVigil ऐसी हिन्दी की एक ऐसी वेबसाइट है जिसकी टैगलाइन है Comment is free but facts are sacred. यानी आप जो चाहें टिप्पणी करें, लेकिन जो तथ्य है वो तो सही रहे. उससे तो छेड़छाड़ न हो. 

ख़बरें निकालना आसान काम नहीं है. पत्रकारों ने तो बीहड़ में जाकर डाकुओं का भी इंटरव्यू किया, माफिया और सरगनाओं का भी. ख़बरों को निकालने में पत्रकार कई तरह के जोखिम उठाते हैं. आतंकवाद के नाम पर सरकारों ने पत्रकारों पर अंकुश लगाना शुरू कर दिया है. ब्रिटेन में एक कानून पास हुआ है the Investigative Powers Act, इसे स्नूपर चार्टर भी कहते हैं. इसके तहत जासूसी के आरोप में पत्रकार को 14 साल की जेल हो सकती है. आप अपने सोर्स से क्या बात करते हैं वो बताना होगा और गुप्त सूचना लीक करने के आरोप में जेल जा सकते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि सत्ता के तहखाने में क्या होता है आपको अब पता ही नहीं चलेगा. भारत में भी पत्रकारों पर इस तरह के मुकदमे हो रहे हैं. एक किस्सा पाकिस्तान से सुनाता हूं. पाकिस्तान के डॉन अख़बार के पत्रकार सिरिल अलमीदा ने इस साल 9 जनवरी को एक ख़बर ब्रेक की जिसमें कहा गया कि पाकिस्तान की सरकार ने अपने फौजी नेतृत्व को साफ़ कह दिया है कि अगर आतंकवाद के ख़िलाफ़ ठोस कार्रवाई नहीं की गई तो पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग थलग पड़ने का ख़तरा है. इस रिपोर्टर ने विस्तार से बताया कि किस तरह फौजी नेतृत्व को संदेश दिया गया है कि अगर सरकारी एजेंसियां आतंकी गुटों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करती हैं या उनपर पाबंदी लगाती हैं तो उसमें फौजी या ख़ुफ़िया एजेंसियां कोई दखल नहीं देंगी. अभी तक अपनी ताक़तवर फौज को ऐसा संदेश पाकिस्तान की नागरिक सरकार के दायरे से बाहर समझा जाता था. सरकार ने कहा कि ये गलत खबर है. लेकिन रिपोर्टर अपनी ख़बर पर अड़ गया. डॉन अख़बार भी अड़ गया कि रिपोर्टर की खबर सही है. अख़बार के एडिटर इन चीफ़ ने कहा था कि सरकार अख़बार को बलि का बकरा बनाने से बाज़ आया. कुछ और अख़बारों ने भी इस मामले में डॉन का साथ दिया. पाकिस्तान की सरकार रिपोर्टर का कुछ नहीं कर सकी.

आप सोच रहे होंगे कि हमने भारत से कुछ उदाहरण क्यों नहीं दिये, दरअसल कितना उदाहरण देते, एक घंटा कम पड़ जाता और फिर आप भारत के बारे में तो जानते ही होंगे कि मीडिया कितना स्वतंत्र है. दि हूट ने प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर एक रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार जनवरी 16 से अप्रैल 17 के बीच पत्रकारों पर 52 जानलेवा हमले हुए हैं. गृहमंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 2014-15 के बीच 142 हमले हुए हैं. बस्तर जैसी जगह से रिपोर्ट करना आसान नहीं. पत्रकार पुलिस और नक्सल के बीच फंस जाता है. इस जंग के बीच पत्रकार के सामने चुनौती होती है कि वो आदिवासियों के साथ हो रहे ज़ुल्म की खबर भी रिपोर्ट करे. मगर सुरक्षा एजेंसियां को निशाने पर वो भी आ जाता है. पिछले दो साल में बस्तर में ऐसे कई पत्रकारों को जेल भेजा गया जो ऐसी ही कहानियां बाहर ला रहे थे.

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