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This Article is From Apr 27, 2018

कृषि में निजी निवेश का आश्चर्यजनक सुझाव

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 27, 2018 20:16 pm IST
    • Published On अप्रैल 27, 2018 20:16 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 27, 2018 20:16 pm IST
भारतीय उद्योग परिसंघ के नए अध्यक्ष ने देश के कृषि क्षेत्र में अचानक एक सपना बो दिया. हालांकि परिसंघ अध्यक्ष ने फिलहाल कहा इतना भर है कि कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र को लाना जरूरी है. बेशक यह सुझाव सुनकर ही सरकार की बांछें खिल गई होंगी. वैसे इस उद्योग परिसंघ के प्रमुख ने कृषि के अलावा स्वास्थ्य और शिक्षा का भी जिक्र किया जो दोनों ही ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें कारोबार के लिहाज़ से लाभकारी माना जाता है. लेकिन परिसंघ अध्यक्ष के सुझाव ने सबको चैंकाया इसलिए है क्योंकि उन्होंने सबसे पहले कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ाने पर ज़ोर दिया. अब तक यही समझा जाता है कि उद्योग और व्यापार का प्रस्थान बिंदु ही मुनाफा है. इसीलिए हैरत है कि भारी घाटे का सौदा मानी जाने वाली खेती के काम में उद्योगपतियों के पैसे लगवाने की बात उन्होंने कही. बहरहाल, यह सिर्फ सुझाव ही है. ये आगे की बात है कि उद्योग जगत के कारोबारियों के लिए यह कितना व्यावहारिक है? और अगर मौजूदा हालात में व्यावहारिक नहीं है तो किस जुगत से इस सुझाव को व्यावहारिक बनाया जा सकता है?

परिसंघ की हैसियत
सीआईआई के नाम से मशहूर उद्योगपतियों का यह समूह एक स्वयंसेवी संस्था है. इसकी हैसियत व्यापारियों और कारखानेदारों के एक बहुत बड़े क्लब जैसी है. अपनी स्थापना के सवा सौ साल में परिसंघ के इस समय कोई नौ हजार प्रत्यक्ष सदस्य हैं. इन सदस्यों में देसी विदेशी औद्योगिक प्रतिष्ठान शामिल हैं. इस समय परिसंघ की हैसियत अपने देश और यहां तक कि दूसरे देशों की सरकारी नीतियों को बनवाने में बड़ी भूमिका निभाने की भी है. अपने देश के थिंक टैंक यानी नीति आयोग से रायमशविरा करने की हैसियत भी इस परिसंघ की है.

परिसंघ के सुझाव के मायने
इतनी बड़ी हैसियत वाले भारतीय उद्योग परिसंघ के अध्यक्ष ने अगर कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ाने का सुझाव दिया है तो उसे अनदेखा कैसे किया जा सकता है. देखने की बात ये भी है कि परिसंघ के सदस्य उद्योग जगत के धनवान लोग हैं. उद्योग यानी विनिर्माण और सेवा क्षेत्र. तीसरा क्षेत्र कृषि है जिसे हमने उद्योग से अलग मान रखा है. कृषि को असंगठित क्षेत्र माना जाता है. पूरे देश के कुल यानी सकल घरेलू उत्पाद में उद्योग जगत का ही बड़ा हिस्सा है. मोटे अनुमान से उद्योग का 85 फीसदी और कृषि का सिर्फ 15 फीसदी. ये अलग बात है कि कृषि क्षेत्र में काम करने वाली आबादी देश की कुल आबादी में आधी से ज्यादा है. देश की आधी से ज्यादा आबादी की जमीन जायदाद और जीतोड़ मेहनत से उपजे उत्पाद का दाम अगर सिर्फ 15 फीसदी है तो कृषि क्षेत्र में लगे लोगों की दयनीय माली हालत का अंदाजा कोई भी लगा सकता है. खैर, यहां उद्योग जगत की सबसे बड़ी संस्थाओं में एक सीआईआई के अध्यक्ष के नए सुझाव का आशय यही माना जाना चाहिए कि बात कृषि को मुनाफेदार बनाने की हो रही है. वैसे परिसंघ के अध्यक्ष ने भी सरकार के उस ऐलान का जिक्र किया है जिसमें किसान की आमदानी दुगनी करने का लक्ष्य या वायदा या इरादा है.

खेती जैसे घाटे के सौदे में उद्योग जगत की दिलचस्पी?
यही बात सुखद आश्चर्य पैदा करने वाली है. लेकिन जो उद्योग क्षेत्र अपनी परिभाषा के अनुसार मुनाफे को सबसे पहले देखता हो वह कृषि क्षेत्र में पूंजी क्योंकर लगाएगा? इस सवाल पर सोचना शुरू करें तो वे सारी पुरानी बातें याद आने लगती हैं कि कृषि क्षेत्र के लिए विदेशी निवेश की जरूरत है, कृषि को नई प्रौद्योगिकी की जरूरत है, कृषि उत्पाद के निर्यात बढ़ाने की जरूरत है, वगैरह वगैरह. अभी सात साल पहले ही जब खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात उठी थी तब वॉलमार्ट जैसे वैश्विक निजी प्रतिष्ठान को देश में लाकर कृषि उत्पादन सलीके से करने, अनाज की बर्बादी को रोकने के लिए आधारभूत ढांचा खड़ा करने और बिचैलियों के मुनाफे को कम करने की बातें ही तो की गई थीं. उस समय यह तर्क दिया जा रहा था कि पांच से छह लाख करोड़ रुपए अगर अनाज को सुरक्षित रखने के गोदाम बनाने पर ही खर्च कर दिए जाएं तो कृषि क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी. इसमें तीस फीसदी कृषि उत्पादन की बर्बादी को रोकने का आश्वासन था. यानी कृषि उत्पाद में 30 फीसदी बढ़ोतरी का इरादा था. साथ में बिचौलियों को कम करके खुदरा मूल्य कम करने की सूरत भी बनती दिखाई दी थी. बहरहाल खूब सोच-विचार के बाद भी वह विचार सिरे नहीं चढ़ पाया था. हो सकता है कि परिसंघ के नए अध्यक्ष के सुझाव के बाद वे पुरानी बातें नए अंदाज़ में होने लगें.

सरकार की बाछें खिलना स्वाभाविक
देश की माली हालत के मद्देनजर सरकार के सामने सबसे बड़ा रोना पैसे का है. उसके जितने भी भारी भरकम इरादे वायदे अधूरे पड़े हैं वे पैसे की कमी के कारण ही तो हैं. इन्हीं में एक है किसानों की आमदनी दुगनी करने का छोटा सा वायदा. हालांकि ये पांच साल के बाद का वायदा था. लेकिन उसे तबतक पूरा होते दिखाने के लिए भी तो लगातार कुछ करते दिखना जरूरी है. चाहे बड़ी लागत वाली सिंचाई परियोजनाएं हों या समर्थन मूल्य बढ़ाने का वायदा हो या कृषि उत्पाद के विपणन की सुचारू व्यवस्था, इन कामों के लिए सरकार की जेब में पैसा चाहिए. इतना पैसा चाहिए कि देश को शानदार होता हुआ दिखाने वाले शहरी कामधाम रोकने या कम करने पड़ेंगे. कोई भी समझ सकता है कि इन शहरी कामों को रोकने या कम करने का जोखिम सरकारें कभी नहीं ले सकतीं. लिहाजा एक ही तरीका बचता है कि कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश बढ़ाने की बजाए निजी निवेश बढ़वाने के बारे में सोचा जाए. और यही सुझाव सरकार की बजाए उद्योग जगत की संस्था ने अपनी तरफ से दे दिया. सरकार के गदगद होने के लिए इससे बढ़िया और क्या बात होगी.

परिसंघ का सुझाव है किसे संबोधित
जब भी कोई सुझाव दिया जाता है तो यह जरूरी होता है कि सुझाव को प्राप्त करने वाला भी सामने हो. इसीलिए लगे हाथ यह देख लिया जाना चाहिए कि उद्योग परिसंघ का प्रस्ताव दिया किसे गया है. दरअसल इस प्रस्ताव में कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ाने की बात पर सिर्फ जोर दिया गया है. संबोधित होने वाला व्यक्ति या समुदाय गायब है. फिर भी अनुमान लगाएं तो हो सकता है कि यह सुझाव उद्योगपतियों को दिया गया हो. या हो सकता है सरकार को दिया गया हो. अगर वाकई उद्योगपतियों को दिया गया है तो फिलहाल उनके लिए तो यह बिल्कुल भी आकर्षक नहीं दिखता. इसलिए नहीं दिखता क्योंकि यह तथ्य स्वयंसिद्ध है और समयसिद्ध है कि खेती किसानी घाटे का सौदा है. और अगर यह सुझाव सरकार को दिया गया है तो हमें जल्द ही यह सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए कि कृषि क्षेत्र में निजी निवेशकों का पैसा लगाने के लिए उद्योग जगत अपनी सरकार से क्या चाहता है. तबतक इंतजार करते हैं.
   
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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