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This Article is From Feb 02, 2017

चुनावी फंडिंग की सफाई या आंखों का धोखा..

Hridayesh Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 02, 2017 11:18 am IST
    • Published On फ़रवरी 02, 2017 10:41 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 02, 2017 11:18 am IST
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बुधवार को बजट के दौरान जब राजनीतिक पार्टियों को दिये जाने वाले नकद चंदे की सीमा घटाकर 2000 रुपये प्रति व्यक्ति करने की बात कही तो प्रधानमंत्री समेत सत्तापक्ष के नेताओं ने संसद में जमकर मेजें थपथपाईं. बीजेपी के नेता ज़ोर ज़ोर से विपक्ष से ये कहते सुने गये, “बजाओ ताली, बजाओ ताली”. ज़ाहिर है सरकार ने इस बजट प्रस्ताव को एक क्रांतिकारी कदम की तरह पेश किया और पहली नज़र में सारे टीवी एंकर इस कदम को ऐतिहासिक बताते दिखे. ये सुझाव चुनाव आयोग का था लेकिन चुनाव आयोग ने इस पर तुरंत कोई टिप्पणी नहीं की है. आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे कहा कि अभी कोई टिप्पणी करना सरकार की प्रशंसा में दिये गये बयान की तरह देखा जायेगा यानी आयोग के कुछ अधिकारियों को भी पहली नज़र में ये कदम असरदार ही लगा है.

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सरकार का ये कदम क्रांति लाये या न लाये आंखों का धोखा ज़रूर है. कांग्रेस, बीजेपी, सीपीएम, टीएमसी, समाजवादी पार्टी और बीएसपी समेत सारी पार्टियों के नेता जानते हैं कि इस फैसले से किसी नेता या किसी पार्टी को कोई खरोंच नहीं लगने वाली. इस बजट प्रस्ताव को ध्यान से देखने से पता चलता है कि सारी पार्टियों को मिलने वाला कैश चंदा पहले की तरह मिलता रहेगा. काला धन भी पहले की तरह चुनावी फंडिंग में आता रहेगा और पार्टियां चुनाव आयोग के डंडे की ज़द में नहीं आयेंगी.

अभी तक प्रति व्यक्ति कैश चंदे की सीमा 20 हज़ार है. वित्तमंत्री ने इसे घटाकर 2000 रुपये प्रति व्यक्ति कर दिया है. वित्त मंत्रालय ने यह कदम चुनाव आयोग के सुझाव को मानते हुये उठाया लेकिन क्या इससे चुनावी फंडिंग में काला धन रुकेगा. इतने बड़े-बड़े संगठनात्मक ढांचे वाली पार्टियों के कार्यकर्ता क्या दस लोग इक्ट्ठा नहीं कर सकते जो 2000x10=20000 बना दें. यानी चंदे की सीमा 2000 रुपये प्रति व्यक्ति करना काले धन को नहीं रोकेगा बल्कि पार्टियों को थोड़ी से मेहनत और करनी पड़ेगी...बस.

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अभी पिछले हफ्ते ही चुनाव सुधार के लिये काम कर रही संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म यानी एडीआर ने आंकड़े जारी किये थे. इन आंकड़ों के मुताबिक चुनाव में -

•    7 राष्ट्रीय पार्टियों और 50 क्षेत्रीय पार्टियों की कुल फंडिंग का 70 प्रतिशत गुमनाम स्रोतों से आता है.
•    ये आंकड़े 2004 से 2015 के बीच के हैं.
•    कांग्रेस पार्टी इस मामले में सबसे आगे है. इसकी 83 प्रतिशत चंदा राशि का स्रोत पता नहीं है.
•    बीजेपी का 65 प्रतिशत चंदा कहां से आया किसी को पता नहीं.
•    वामपंथी पार्टी सीपीएम का भी 53 प्रतिशत चंदा अनजान लोगों ने दिया.
•    समाजवादी पार्टी का 94 प्रतिशत और
•    बीएसपी का तो सारा चंदा ( 100 प्रतिशत) पता नहीं कहां से आया क्योंकि एक रुपये का भी स्रोत नहीं बताया गया.

एडीआऱ के जगदीप छोकर कहते हैं 'बजट घोषणा के बाद लोग मुझे बधाई वाले संदेश भेजने लगे कि आप लोगों की मेहनत रंग ले आई है लेकिन मैं कहता हूं कि पहले 19,999 की नकद रसीद कटती थी और अब 1999 की कटेगी. काला धन कैसे रुकेगा जब तक जमा पैसे का स्रोत न बताया जाये. जन प्रतिनिधि कानून की धारा 29(c) के तहत पार्टियों को 20 हज़ार रुपये से अधिक के चंदे की घोषणा करनी होती है लेकिन ये किसने कहा है कि उससे कम चंदे की जानकारी न दी जाये. क्या कोई कानून पार्टियों को ऐसा करने से रोकता है?'

जगदीप छोकर का यही सवाल हमें आगे ले जाता है जिसमें वित्तमंत्री ने बजट भाषण में कहा कि राजनीतिक पार्टियां चैक या डिजिटल तरीके से चंदा लेने की अधिकारी होंगी. सवाल ये है कि क्या पहले इस तरह चंदा लेने पर कोई रोक थी? वामपंथी पार्टी सीपीएम ( जो उसूलों के तहत उद्योगपतियों से चंदा नहीं लेती लेकिन जिसके 53 प्रतिशत चंदे का स्रोत पता नहीं है) कहती है कि चुनाव आयोग की निगरानी में एक चुनाव फंड बनाया जाये जहां लोग चंदा दे सकें और फिर वहीं से सारे पैसे को चुनाव के दौरान पार्टियों को दिया जाये. कांग्रेस की भी तकरीबन यही राय है लेकिन सवाल ये है कि कैश फंडिंग को पूरी तरह क्यों न रोका जाये और हर पैसे का हिसाब चुनाव आयोग के सामने दिया जाना क्यों न ज़रूरी हो.

एक ऐसे वक्त में जब सरकार डिजिटल लेन देन की बात करती है तो और गरीब से गरीब व्यक्ति को भी मोबाइल एप इस्तेमाल करने के लिये उत्साहित कर रही है तब 2000 रुपये की सीमा को शून्य क्यों न किया जाये. क्यों सरकार 2000 रुपये का दरवाज़ा कैश के ज़रिये खुला रख रही है. क्या इसमें सभी पार्टियों की मिली भगत नहीं है.

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सरकार राजनीतिक पार्टियों को राजनीतिक बॉन्ड के ज़रिये चंदा देने की छूट दे रही है यानी आप किसी भी अधिकृत बैंक से बॉन्ड खरीद सकते हैं और किसी पार्टी को दान कर दें और फिर वह पार्टी उसे भुना सकती है. उद्योगपति खुश हैं कि इस तरह से वह चैक के बजाय बॉन्ड खरीद कर अपनी गोपनीयता बनाये रख सकते हैं. उद्योग जगत के दीदार सिंह जो फिक्की के महासचिव भी हैं उन्होंने इस बजट घोषणा के बाद मुझसे कहा कि ‘जैसे वोट को गोपनीय रखना हमारा अधिकार है वैसे ही राजनीतिक चंदा भी मैं किसे दे रहा हूं ये गोपनीय रखना मेरा अधिकार होना चाहिये. हम इस कदम से खुश हैं.’

यह प्रस्ताव क्या वाकई आयेगा या नहीं ये तो साफ नहीं है लेकिन सवाल ये है कि क्या सरकार और राजनीतिक पार्टियों को ऐसी प्रणाली को बढ़ावा देना चाहिये जिसमें राजनीतिक चंदे गुप्त रहें. क्या यह पारदर्शिता के हक में है. सरकार कह रही है कि राजनीतिक बॉन्ड लाने के लिये आरबीआई एक्ट में बदलाव किया जायेगा. लेकिन क्या हम आरटीआई के ज़रिये ये जान सकेंगे कि किस पार्टी को किस उद्योगपति से कितना चंदा मिला. क्या लोकतंत्र में हमें ये जानने का हक नहीं है जब हर रोज़ राजनीतिक पार्टियों और उद्योगपतियों के बीच साठगांठ की ख़बरें सामने आती रही हैं.

हृदयेश जोशी NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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