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This Article is From Jan 23, 2019

ईवीएम को हैक करने के दावों में कितना दम?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 23, 2019 00:02 am IST
    • Published On जनवरी 23, 2019 00:01 am IST
    • Last Updated On जनवरी 23, 2019 00:02 am IST

चुनाव आयोग ने लंदन में ईवीएम मशीन की हैकिंग का दावा करने वाले सैयद शुजा के खिलाफ दिल्ली पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराई है. दिल्ली पुलिस इस पर कानूनी राय ले रही है जिसके बाद एफआईआर दर्ज की जा सकती है. आयोग का कहना है कि शुजा ने दावा किया है कि वह ईवीएम मशीन की डिज़ाइन में शामिल था और वह भारत में चुनाव को हैक कर सकता है. चुनाव आयोग ने 21 जनवरी को ही सुजा के लगाए आरोपों को रिजेक्ट कर दिया था. कहा था कि आयोग की निगरानी में भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड में ईवीएम मशीन बनाई जाती है. सुरक्षा काफी मज़बूत होती है और काम करने की प्रक्रिया भी सख्त है. हर चरण पर परीक्षण किया जाता है. इसकी जांच के लिए टेक्निकल एक्सपर्ट की एक कमेटी भी है जो 2010 से अपना काम कर रही है. जब कई दलों ने आरोप लगाए थे तब 3 जुलाई 2017 को खुली चुनौती दी गई थी कि हैक कर दिखाएं मगर किसी भी दल की तरफ से कोई नहीं आया.

चुनाव आयोग दोबारा से प्रेस रीलिज जारी की है. इसमें बताया गया है कि आयोग की टेक्निकल एक्सपर्ट कमेटी के सदस्यों- आईआईटी दिल्ली के प्रोफ़ेसर एमेरिटस प्रोफ़ेसर डीटी शाहनी, और आईआईटी भिलाई के निदेशक प्रोफ़ेसर रजत मूना और आईआईटी मुंबई के प्रोफ़ेसर एमेरिटस डीके शर्मा ने फिर इस बात की तस्दीक की है कि चुनाव आयोग के ईवीएम अलग मशीनें हैं जो तारों के ज़रिए सिर्फ चुनाव आयोग की यूनिट से जुड़ सकती हैं. ईवीएम में कोई तरीक़ा नहीं है कि इसे किसी वायरलेस कम्युनिकेशन या रेडियो फ्रीक्वेंसी से जोड़ा जा सके. हर ईवीएम की तमाम तरह की फ्रीक्वेंसी के बीच जांच की जाती है.

शुजा ने कहा कि उसे मशीन दी जाए वह साबित करेगा. मगर अब उसे खंडन से काम चलाना होगा. यही नहीं इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने बयान जारी कर कहा है कि सैय्यद शुजा उनके यहां कभी काम नहीं करता था. न तो वह ईसीआईएल का नियमित कर्मचारी था और न ही वह किसी तरह से जुड़ा था. ईसीआईएल के इंकार की बात शुजा ने कही थी लेकिन अब शुजा को ही दस्तावेज़ देने होंगे कि वह कर्मचारी था या नहीं. लंदन की प्रेस कांफ्रेंस में शुजा ने छेड़छाड़ को लेकर जो दावे किए थे उसे लेकर कई लोगों ने कहा है कि उसने ठोस सबूत नहीं दिए. सिर्फ बातें बताईं जिसमें कई अंतर्विरोध हैं. उधर कपिल सिब्बल की प्रेस कांफ्रेस में मौजूदगी को लेकर बीजेपी आक्रामक हो गई है.

इस प्रेस कांफ्रेंस में जो शख्स आगे बैठे थे, और सुजा से सवाल कर रहे थे, वो आशीष रे हैं. इंडियन एसोसिएशन ऑफ जर्नलिस्ट के. रविशंकर प्रसाद ने इन आशीष रे पर कांग्रेस के करीब होने का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि आशीष रे नेशनल हेराल्ड में कॉलम लिखते हैं और राहुल गांधी की तारीफ करते हैं. हमने भी चेक किया, आशीष रे नेशनल हेराल्ड में लगातार लिखते हैं. उनके ज्यादातर कॉलम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होते हैं. रविशंकर प्रसाद ने पूछा है कि कांग्रेस नेता सिब्बल प्रेस कांफ्रेंस में क्या कर रहे हैं. वे कांग्रेस की तरफ से पूरे कार्यक्रम की मोनिटरिंग कर रहे थे. रविशंकर प्रसाद ने कहा कि 2007 में मायावती जीतीं तब ईवीएम ठीक थी. 2012 में अखिलेश जीते तब ठीक थीं, ममता दो-दो बार चुनाव जीती हैं तो ईवीएम ठीक है, तो क्या केवल 2014 में ईवीएम हैक की गई. वैसे कभी रविशंकर प्रसाद भी बैलेट पेपर से चुनाव की मांग किया करते थे. बकायदा उनके बयान इंटरनेट पर तैर रहे हैं.

पत्रकारों की प्रेस कांफ्रेंस थी. ऐसे मौके पर कोई पत्रकार अपने राजनीतिक दोस्त को नहीं बुलाता है. रविशंकर प्रसाद के लगाए आरोपों के जवाब में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने माना कि वे आशीष रे को बहुत अच्छे से जानते हैं. सिब्बल ने एक और बात कही कि आशीष रे ने उन्हें कुछ और जवाब के साथ ईमेल किया है. जिसमें स्पष्टीकरण है. ईसीआईएल के प्रोजेक्ट में 13 लोग थे जिसके नाम आशीष रे ने भेजे हैं. जिनके बारे में शुजा ने दावा किया है कि उनकी हत्या कर दी गई. सिब्बल ने कहा कि पत्रकारों को पता लगाना चाहिए कि वह अमरीका कैसे गया, अस्पताल में भर्ती था या नहीं. उसने कहा है कि अमरीकी जस्टिस डिपार्टमेंट ने उसके दस्तावेज़ों की जांच दो साल की है. अमरीकी सरकार जवाब दे सकती है. अगर वह दावा कर रहा है कि राजनीतिक दल के लोग उससे मिलने गए, पत्रकार मिलने गए तो ये सब आसानी से पता लगाया जा सकता है.

कपिल सिब्बल भी 11 लोगों की हत्या वाली बात पर ज़ोर दे रहे हैं. क्या ईवीएम हैक के सिलसिले में 11 लोगों की हत्या हुई है. मगर शुजा ने हैकिंग को लेकर जो कहा है वो कई लोगों को ख्याली पुलाव लग रहा है. सबका कहना है कि कोई सबूत नहीं दिया. क्या शुजा अपने दावों के पक्ष में आगे कोई सबूत रखेगा, वही जानता है. लेकिन कपिल सिब्बल ने भी कह दिया कि उसकी कई बातें साइंस फिक्शन लगती हैं.

सुजा ने मशीन से छेड़छाड़ करने और उसमें शामिल होने की ही बात नहीं की है, उसने अपने साथियों की हत्या की भी बात की है. क्या उसकी भी पड़ताल होगी. गौरी लंकेश की आरटीआई की भी जांच हो ही सकती है. अगस्त 2018 में 17 दलों ने बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग की थी. चुनाव आयोग ईवीएम मशीन की सुरक्षा को अभेद मानता रहा है. फिर भी इस मशीन को लेकर सवाल कहीं न कहीं से आ ही जाते हैं. आज के ही हिन्दू अखबार में जी सम्पत का एक लेख है जिसमें वे बताते हैं कि 2009 में जर्मनी की सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम मशीन को हटा कर बैलेट पेपर से चुनाव कराने का फैसला किया था. हमने उसके बाद इस आदेश को पढ़ा. क्योंकि कई बार यह सुनकर लग सकता है कि जर्मनी में भी भारत की तरह ईवीएम मशीन थी. हर जगह की सुरक्षा व्यवस्था और मशीन अलग हो सकती है यह ध्यान रखना चाहिए. जैसे भारत की ईवीएम मशीन स्टैंड अलोन कही जाती है. यानी उसका संबंध किसी बाहरी कंप्यूटर या चीज़ से नहीं होता है.

ईवीएम विवाद के सिलसिले में जर्मनी की सर्वोच्च अदालत का फैसला अवश्य पढ़ना चाहिए. जर्मनी में 2005 में कुछ राज्यों में वोटिंग मशीन का इस्तमाल हुआ था. जिसे लेकर कुछ लोगों ने कोर्ट में चुनौती दी थी. वहां की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पेपर बैलेट में भी धांधली हो सकती है मगर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में छोटे से प्रयास से बड़े स्तर पर नतीजों को प्रभावित किया जा सकता है. अदालत ने वोटिंग मशीन को रिजेक्ट करने का जो आधार लिया था, उस पर ग़ौर कीजिए. अदालत ने कहा कि चुनाव की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए कि जिसमें शामिल सभी नागरिक उसे बराबर से समझ सकें. यानी वोटिंग मशीन कैसे काम करती है, वोट की गिनती कैसे होती है, बटन दबाने पर उसी पार्टी को वोट गया या नहीं, क्या बाद में कहीं और चला गया. क्या इस बात को हर नागरिक समझता है. अगर नहीं तो फिर मशीन का प्रयोग नहीं होना चाहिए. चुनाव की प्रक्रिया ऐसी हो कि जिसे कंप्यूटर का ज्ञान न हो वह भी बराबरी से समझ सके. मशीन और प्रक्रिया को समझने के लिए नागरिकों के बीच अंतर नहीं होना चाहिए. इस लिहाज़ से आप सोचिए क्या आप ईवीएम मशीन से जुड़े सवालों को समझते हैं. वीवीपैट क्या होता है, सुरक्षित है या नहीं, क्या आप समझते हैं. जर्मनी की अदालत का ज़ोर इस बात पर नहीं है कि आयोग या सरकार समझती है या नहीं बल्कि इस बात पर है चुनाव में शामिल हर वोटर बराबरी से समझता है या नहीं. अब लंदन में ही शुजा ने प्रेस कांफ्रेंस की, उसकी कई बातें मुझे समझ नहीं आईं. अगर वो सबूत दे भी देता तो मुमकिन था कि पूरी प्रक्रिया मुझे समझ नहीं आती. जर्मन की अदालत का यही आधार था. प्रक्रिया ऐसी हो कि सबको समान रूप से समझ आए. यहां तो हैक कैसे होता है, नहीं हो सकता है इसे समझने के लिए विशेष ज्ञान की ज़रूरत है. इस आधार पर जर्मनी की अदालत ने चुनावों में वोटिंग मशीन को रिजेक्ट कर दिया.

जर्मनी की संवैधानिक अदालत ने जिस आधार पर वोटिंग मशीन को रिजेक्ट किया है क्या वह ज़्यादा तर्कसंगत नहीं है. क्या हम आप या कोई भी एक समान रूप से ईवीएम मशीन के बारे में समझते हैं, समझने की क्षमता रखते हैं. यही कारण है कि हर कोई किसी आईटी एक्सपर्ट की तरफ देखने लगता है या फिर अपने विश्वास को लेकर ही नशे में रहना चाहता है. मगर बात जानकारी की है. क्या एक रिक्शावाला, क्या एक चायवाला और एक शिक्षक और एक अफसर बराबरी से मशीन को लेकर सारे सवालों और जवाबों को समझता है.

भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने मूलभूत ढांचे का सिद्धांत भारत में अपनाया तो उसकी प्रेरणा जर्मनी के संविधान से ली, इसी सिलसिले में क्या जर्मनी की संवैधानिक अदालत के इस फैसले को नहीं देखा जाना चाहिए ताकि भारत की चुनावी व्यवस्था में लोगों का ज़्यादा से ज्यादा भरोसा हो. यहां तो कोई कह देता है कि मशीन हैक हो सकती है तो दस लोग मान लेते हैं. वे दस लोग खुद से चेक नहीं कर सकते कि जो कह रहा है वह सही है या नहीं.

2012 में आस्ट्रिया की संवैधानिक अदालत ने भी चुनाव में मशीन के इस्तमाल को रिजेक्ट कर दिया था. वहां 2009 में पायलट प्रोजेक्ट हुआ था. ई वोटिंग का. करीब सवा दो लाख छात्रों में से मात्र 2000 ने ई वोटिंग का इस्तमाल किया था. इस पर कई छात्रों ने सवाल उठा दिए कि यह असंवैधानिक है. उस सिस्टम का इस्तमाल करता है जो मतदान के मूलभूत सिद्धांत के खिलाफ है. निजता का उल्लंघन करता है.

इंटरनेट पर जून 2012 की एक खबर है आयरलैंड की. वहां की सरकार ने 54 लाख यूरो खर्च करके इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन खरीदे थे. मगर जनता को संदेह हो गया और विवाद हो गया. सरकार ने लाखों करोड़ों रुपये की मशीन को कूड़े में बेच दिया. इससे सरकार को करोड़ों का नुकसान हुआ था. अब देखिए जर्मनी में इलेक्ट्रानिक मशीन इसलिए रिजेक्ट कर दी गई कि चुनाव में शामिल हर मतदाता को उसकी प्रक्रिया समझ नहीं आती है. उसी आधार पर अगर भारत के किसानों को अंग्रेज़ी में नोटिस भेजा जाए, ऋण माफी का आदेश दिया जाए तो वह क्या समझेगा. क्या यह उसके साथ मज़ाक नहीं है. क्या राज्य को अपने सभी नागरिकों से संवाद करने के लिए भाषा का विशेष ख्याल नहीं रखना चाहिए.

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