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This Article is From Jan 20, 2020

कश्मीरी पंडितों का दर्द हमने कितना समझा?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 20, 2020 23:27 pm IST
    • Published On जनवरी 20, 2020 23:27 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 20, 2020 23:27 pm IST

अगर किसी की तमाम तक़लीफों में सबसे बड़ी यही तकलीफ हो कि किसी ने उनकी बात नहीं की तो उस चुप्पी पर बात होनी चाहिए. इंसाफ़ का इंतज़ार लंबा हो ही गया है और शायद आगे भी हो लेकिन चुप्पी उनके भीतर चुप रही है. वो हर दिन पहले से ज्यादा चुभने लगती है. दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक सिनेमा घर है. पीवीआर प्लाज़ा. रविवार दोपहर मैं यहां था. एक ऐसी फिल्म का छोटा सा टुकड़ा देखने के लिए जहां आने वाले बहुत से लोग अपनी अपनी पूरी फिल्म लेकर आए थे. इसलिए अगर निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा अपनी फिल्म शिकारा पूरी की पूरी दिखा देते तब भी आप वहां मौजूद बहुतों के जीवन की सारी फिल्म आप नहीं देख पाते. लेकिन 19 जनवरी की दोपहर वैसी दोपहर नहीं थी जिस तरह से यह दिन इन दिनों ट्विटर पर शुरू होता है. जम्मू के जगती कैंप से बसों से लाए गए कश्मीरी पंडितों के साथ फिल्म देखने का तजुर्बा मेरे लिए किसी भी फिल्मी तजुर्बे से बड़ा था.

प्लाज़ा सिनेमा के बाहर तस्वीरों के फ्रेम बनते इन कश्मीरी पंडित परिवारों को देख समझ रहा था तभी राहुल पंडिता ने एक बात की. ये सभी एक टीवी चैनल के स्टुडियो गए थे. वहां उन्होंने कहा कि हम तीसरा टेक नहीं दे सकते. पहला टेक तब जब घर जलाए गए, गोलियां चलीं, दूसरा टेक तब जब फिल्म के लिए काम किया और अब टीवी चैनलों के लिए तीसरा टेक नहीं दे सकते. अपनी तकलीफों को बार बार जीना एक बार फिर से मरने जैसा ही तो है. इसलिए 'शिकारा' आपकी चुप्पी का किनारा छूने आई है. बाद में एक कश्मीरी पंडित उमेश गुर्टू ने मुझे लिखा कि शिकारा का जीवन केवल पानी से जुड़ा है. लेकिन यह हमेशा किनारे को छूने का आग्रह करता है. यह एक कश्मीरी पंडित का जीवन रहा है. मैं इस तरह फिल्म का शीर्षक लेता हूं. ऐसी बहुत सी कहानियों को लिए लोग आए थे अपनी फ़िल्म को देखने. और आपसे कहने कि जब 7 फरवरी को 'शिकारा' आएगी तो देखिएगा. जब हॉल में कश्मीरी पंडित परिवारों को बिठाया गया तो वहां की खामोशी बार बार 19 जनवरी 1990 से टकरा रही थी. उस तीस साल से जब उनका घर उनसे छिन गया. उनके अपने मारे गए. उनके कश्मीर के मुसलमान दोस्त उनसे बिछड़ गए. इनके साथ फिल्म का तीस मिनट का कतरा देखना उस शिकारे पर बैठने जैसा था जिसके नीचे पानी कम ख़ून ज़्यादा बह रहा था.

यह फिल्म भी अपनी कहानी लिख रही है. इसके किरदार शिव कुमार धर का असली नाम आदिल ख़ान है. भोपाल के इस एक्टर ने दो साल लगाए फिल्म के लिए अभिनय को समझने में. परदे में आदिल को शिव की भूमिका में देखना एक नए दौर में जाने जैसा है. घर वापस जाने की तरह. सादिया कश्मीर की हैं. उनके किरदार का नाम शांति धर है. सादिया फिल्म में जब अपने ठाकुर जी को उठाकर अटैची में रखती हैं तो उस दृश्य से फिल्म के बाहर एक कहानी भी शुरू होती है. शिव ने इरशाद कामिल की लिखी कविता का छोटा सा हिस्सा फिल्म के बाद पढ़ा था. सादिया भी एक कविता पढ़ती हैं जो फिल्म का हिस्सा है.

कश्मीरी पंडितों पर बनी यह फिल्म 'शिकारा' अपने बनने के दौरान उस पुराने कश्मीर को भी गढ़ती है. क्या यह सुखद नहीं है कि इस फिल्म के लिए असली किरदार जम्मू के जगती कैंप के लोग हैं. वहां से कई हज़ार लोगों को बसों में भर कर उस श्रीनगर में ले जाया गया जहां शिकारा की शूटिंग होती है. जब वे फिल्म की शूटिंग के लिए वापस जा सकते हैं तो उम्मीद होनी चाहिए कि घर भी जा सकते हैं. यही कारण था कि विधु विनोद चोपड़ा ने शूटिंग में मदद के लिए कश्मीर के मुसलमानों का भी शुक्रिया अदा किया.

अब मैं विधु विनोद चोपड़ा पर बात करना चाहता हूं. 67 साल का यह निर्देशक खुद कश्मीरी पंडित है. 1990 में 'परिंदा' का प्रीमियर हो रहा था. उस प्रीमियर के लिए उनकी मां कश्मीर से मुंबई गईं थीं. पीछे घर लूट लिया गया. परिवार के सदस्यों की जान गई. विनोद की मौसी की आवाज़ चली गई. मगर पूरे शो के दौरान एक बार भी यह निर्देशक नफरत और तल्खी से भरा नहीं था.

11 साल से विधु विनोद चोपड़ा के ज़हन में यह फिल्म बन रही थी. राहुल पंडिता कि किताब Our moon has blood clots निर्देशक को यकीन दिलाती है कि कश्मीरी पंडितों की कहानी पर्दे पर कही जा सकती है. यही आपको समझना है. उस शिकायत को किसी ने इनकी बात नहीं की. उस किसी के इंतज़ार में भूल से गए कि ख़ुद भी अपनी बात कह सकते थे. सोचिए अगर कोई कश्मीरी पंडित फिल्मों की दुनिया में न होता तो शायद यह कहानी इस साल यानी 30 साल बाद भी नहीं आ पाती. हां तो मैं कह रहा था कि एक बार एक सेकेंड के लिए भी मैंने विधु विनोद चोपड़ा में तल्खी नहीं देखी. किसी के लिए नफ़रत नहीं देखी. मैं एक फिल्म के निर्देशक को अपनी त्रासदी और अपने फिल्म से बड़ा होता देख रहा था. वो परिंदा अपनी तकलीफों से आज़ाद नज़र आ रहा था जिसके आने के साल उसका घोंसला जल गया था. मुझे विधु विनोद चोपड़ा को देखते हुए दिल्ली के अंकित सक्सेना के पिता यशपाल सक्सेना की याद आई, जिनके बेटे को मारने वाले मुसलमान थे मगर पिता ने सांप्रदायिक होने से मना कर दिया. आसनसोल के मौलाना इमादादुल रशीदी की याद आई जिनके बेटे की हिन्दू भीड़ ने हत्या कर दी थी. इन दोनों पिताओं ने हत्या करने वाली भीड़ को माफ कर दिया. बदला लेने की बात नहीं की. विधु विनोद चोपड़ा ने यही कहा कि उनकी फिल्म नफ़रत से नफ़रत करती है. आखिर जिस प्रोड्यूसर ने जादू की झप्पी दी हो वो अपने दर्शकों को नफ़रत की पुड़िया कैसे बेच सकता है.

निर्देशक ने चुप्पी के लिए सिर्फ एक सॉरी की गुज़ारिश की है. बहुत ज़्यादा नहीं मांगा है. मैं वहां मौजूद जिस भी कश्मीरी पंडित से मिला उनसे यही कहा कि सॉरी. सामने से मिलकर सॉरी कहने का मतलब कुछ और होता है. हम 'शिकारा' की बात कर रहे हैं और जिनसे बात करेंगे उनका नाम राहुल पंडिता है. राहुल की किताब Our moon has blood clots इस फिल्म की प्रेरणा बनी. जल्दी ही पेंग्विन से हिन्दी में आने वाली है. राहुल पंडिता बहुत छोटे थे जब उनका घर छूट गया. इस फिल्म को देखने के लिए राहुल की मां अब इस दुनिया में नहीं हैं. हम विस्थापन को सिर्फ कश्मीरी पंडित का नाम नहीं दे सकते. क्या क्या छूट गया है न उसे गिन सकते हैं लेकिन सोचिए आपका घर छूट जाए, ज़मीन छूट जाए और एक दिन आपकी भाषा छूट जाए तो...

राहुल पंडिता ने प्लाज़ा सिनेमा के बाहर कहा कि बहुत कुछ उलझ गया है. कहीं से तो नई शुरूआत हो. राहुल का यह इरादा हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखे उनके लेख में भी झलकता है. राहुल के लेख का यह हिस्सा हिन्दी के दर्शकों के लिए पढ़ रहा हूं.

'हम बेवकूफ़ नहीं हैं. हम उसने किया तुमने किया में नहीं पड़ रहे. हम उन लोगों को अपने विस्थापन का जिम्मेदार नहीं ठहराते जो उस वक्त नौजवान थे और जो भारत के विचार के लिए लड़ना चाहते हैं. हम शाहीन बाग़ के संघर्ष को भी छोटा नहीं करना चाहते. हम नहीं चाहते कि हमारी कहानी का इस्तेमाल किसी से बदला लेने के लिए हो. लेकिन कम से कम कोई थोड़ी सी हमदर्दी तो दिखाए.'

वहां से लौटते हुए मैं यही सोच रहा था कि शाहीन बाग़ को भी कश्मीरी पंडितों की बात करनी चाहिए. वहां मौजूद भले इसके लिए ज़िम्मेदार न हों मगर उनके नहीं बोलने से 1990 से चली आ रही चुप्पी का सिलसिला उनसे भी जुड़ जाएगा. तभी नज़र पड़ी कि शाहीन बाग़ में शाम छह बजे एमके रैना और इंदर सलीम कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर शाहीन बाग में चर्चा करने वाले हैं. आखिर आप जिस नाइंसाफी के लिए लड़ रहे हैं उसी की तरह की भयावह नाइंसाफी पर चुप कैसे रह सकते हैं. बाद में एक वीडियो भी मिला जिसमें शाहीन बाग़ के लड़के पोस्टर लिए खड़े हैं जिस पर लिखा है कि इन सॉलिडैरिटी विद शाहीन बाग़. कश्मीरी पंडितों के विराट शून्य में यह बूंद के समान है मगर शायद उस शुरूआत की तरह है जिसकी बात राहुल पंडिता और विधु विनोद चोपड़ा कर रहे हैं.

सात फरवरी को आने वाली इस फिल्म का ऐसा प्रीमियर मैंने कभी नहीं देखा. शायद उसी का असर था कि मैं खुद को फिल्म पर बात करने से नहीं रोक सका वो भी सोमवार को. वैसे आपने कम ही देखा होगा मुझे फिल्मों पर प्राइम टाइम में बात करते हुए. पर ये फिल्म की ही बात नहीं है.

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