मैंने पटना म्यूज़ियम में काफ़ी वक़्त गुज़ारा है. एक समय तक यहाँ के किस कमरे में कौन सी मूर्ति रखी होती थी, मुझे याद रहता था. अब भूल गया हूं. जहाँ तक याद आता है, ऐसी कलाकृति नहीं देखी. मैंने 2014 में अपने ब्लॉग क़स्बा पर दीदारगंज की यक्षी के बारे में लिखा था. रिचर्ड एच डेविस की किताब लाइव्स ऑफ़ इंडियन इमेजेज. 1917 में मौलवी क़ाज़ी सैय्यद मोहम्मद अज़ीमुल ने उस मूर्ति को पहली बार देखा था. अद्भुत और ख़ूबसूरत मूर्ति है. ब्रिटिश अधिकारी ई एच सी बाल्श और स्पूनर इस मूर्ति को लाने दीदारगंज गए थे. वहां से लाकर इसे पटना म्यूज़ियम में रख दिया गया. रिचर्ड लिखते हैं कि इस मूर्ति के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती है. इसका अतीत सिर्फ भारतीय कला के प्रतीक के रूप में दर्ज होकर रह गया. डर है कि कहीं सूर्यदेव की यह मूर्ति भी मात्र प्रतीक के रूप में दर्ज होकर न रह जाए.
बिहार में ग्यारहवीं सदी में शिल्पकार सूर्य की प्रतिमा रहे थे, यह सोच कर मन उत्साहित हो गया. यह जानना चाहता हूँ कि ऐसी कितनी प्रतिमाएं बनी होंगी. क्या सूर्य की ऐसी विकसित मूर्ति ग्याहरवां सदी से पहले की भी रही होगी?
उसका संदर्भ क्या रहा होगा? एक सवाल तो स्वाभाविक रूप से आ ही गया कि क्या इसका संबंध छठ से रहा होगा?
मेरी इतिहास की ट्रेनिंग कहती है कि कुछ भी प्रमाणिक रूप से कहने से पहले पता कर लेना चाहिए. हो सकता है कि किसी ने सूर्य की प्राचीन और मध्यकालीन मूर्तियों पर शोध किया हो. इसलिए बिना उन सबके बारे में जाने एक सीमा से अधिक कल्पनाबाज़ी नहीं करनी चाहिए.
म्यूज़ियम के डिटेल में जो बातें लिखी हैं वे बेहद संक्षिप्त हैं. लिखा है कि यह कलाकृति पाल वंश के समय की है. पाल वंश का राज बंगाल-बिहार के इलाक़े में था मगर यहाँ बिहार प्रांत लिखा हुआ है. पाल वंश का संबंध बौद्ध धर्म के महायान परंपरा से था. म्यूज़ियम की सूचना पट्टिका में लिखा हुआ है कि सूर्य बौद्ध और हिन्दू परंपराओं में मौजूद रहे हैं. सूर्य का मुखड़ा बौद्ध प्रतिमाओं के चेहरे से मिलता लगता है. क्या छठ का संबंध बौद्ध परंपराओं से रहा होगा? जिस तरह से छठ में पुजारी की भूमिका नगण्य है, उससे यह मुमकिन लगता है. इसके लिए छठ के विकास क्रम को भी देखना होगा.
अब आते हैं कलाकृति पर. सूर्य रथ पर सवार हैं. मध्य में
सबसे बड़े सूर्य हैं. उनके पांव के नीचे उमा की मूर्ति है, जिन्हें प्रभात की देवी कहा गया है. मगर उमा का स्थान पांव के बीच में हैं. सूर्य को स्वर्ग की देवी के बारह संतानों में से एक माना जाता है. इन संतानों को आदित्य कहते हैं. सूर्य इनमें से एक हैं. इस मूर्ति में बीच में सूर्य हैं. बाक़ी ग्यारह आदित्य किनारे बने हैं. इन्हें सूर्य का भाई कहा गया है. नीचे बायीं ओर जिनका पेट निकला है और दाढ़ी है उन्हें पिंगला बताया गया है. दायीं ओर द्वारपाल हैं.
बिहार में छठ (Chhath Puja) के समय सूर्य की मूर्ति बनती है. रथ पर ही बनती है. बहुत पहले की याद है तब पटना की मूर्तियों में सूर्य को जूता पहने देखा था.ईरानी परंपरा से यह बात आई होगी. प्राचीन ईरान की प्रतिमाओं में ईष्ट जूता पहना करते थे. कभी किसी ने यह बात कही थी मगर वे इतिहासकार नहीं थे. अंतिम राय बनाने से पहले पुख़्ता प्रमाण ज़रूरी होते हैं. हमने सिर्फ एक जिज्ञासा भरी टिप्पणी की है.
यह कलाकृति बहुत ख़ूबसूरत है. देर तक निहारने का मन करता है. बिहार की जनता को भी इसे देखने का मौक़ा मिले लेकिन इसके लिए येल यूनिवर्सिटी से अनुनय-विनय करना होगा. यह अब उनकी संपत्ति है. किसी से नीलामी में ख़रीदी होगी या किसी ने दान में दी होगी. भारत की कई कलाकृतियां ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से ही बाहर ले जाईं जाती रही हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अगर सरकार के स्तर पर पता करें और जानकारी माँगे तो अच्छा रहेगा. बिहार लाने की भी कोशिश हो सकती है. बिहार के लोगों को छठ पर यह विशेष तोहफ़ा दे रहा हूँ. ग्याहरवाँ सदी में बनी सूर्य की कलाकृति को निहारिये और ख़ुश रहिए. छठ की शुभकामनाएं.