कामयाबी भुनाने के लिए होड़-सी मची हुई है. शहर-दर-शहर शोहरत के लुटेरे नज़र आ रहे हैं. दौलत का खजाना खुल गया है. कुछ अजीब सी विडंबना है. एक तरह का दोगलापन. इसी में छिपी है खेल में फ़िसड्डी होने की हमारी कहानी.
चैंपियन बनाने में कोई योगदान नहीं है, लेकिन उपलब्धि में हर कोई हिस्सा हड़प रहा है. जब ज़रूरत थी, तो मदद के लिए सामने नहीं आए. चैंपियन बन गए तो दौलत बरसा रहे हैं. ऐसा भारत जैसे देश में ही हो सकता है. यहां चैंपियन की तो पूजा होती है, लेकिन अन्य एथलीटों को मामूली मदद भी नहीं मिल पाती. जश्न मनाइए. हक़ है आपका. लेकिन उस कामयाबी पर कब्ज़ा मत कीजिए, जिसमें आपका योगदान सिफ़र रहा है.
इससे किसको इनकार है कि कामयाबी बड़ी है. बहुत बड़ी. खेल के सबसे बड़े मंच पर 130 करोड़ के देश से सिर्फ़ दो चेहरे कामयाब हो पाए, तो इस उपलब्धि की ऊंचाई को नापिए नहीं समझिए. दो पदक, शून्य की खोज करने वाले इस देश की 'शून्यता' को तोड़ते हैं. गम इस बात का मत मनाइए कि इतने बड़े देश को सिर्फ़ दो पदक मिले, बल्कि जश्न मनाइए इस बात का कि इस व्यवस्था और प्रणाली में भी दो एथलीट पोडियम तक पहुंच गए.
आधुनिक ओलिंपिक की शुरुआत 1894 में हुई थी. 122 साल के इतिहास में जिस मुकाम तक अब तक कोई भी भारतीय महिला नहीं पहुंच पाई थी, वहां 21 साल की बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु पहुंची. देश के लिए ओलिंपिक में सिल्वर जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनी. कुश्ती में कांस्य पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला हैं साक्षी मलिक.
ओलिंपिक के बाद पीवी सिंधु पर 13 करोड़ नकद बरस चुके हैं. सिंधु अपनी तैयारी पर 44 लाख खर्च कर पाईं थीं. रियो की तैयारियों में साक्षी के 12 लाख रुपए खर्च हुए. उन्हें करीब 8 करोड़ इनाम के रूप में मिल चुका है. सिर्फ़ 2 लाख खर्च कर जिमनास्ट दीपा कर्मकार ओलिंपिक के फाइनल तक पहुंच गईं. मात्र 0.150 अंक के अंतर से कांस्य पदक से चूक गईं. अब उन्हें करीब 15 लाख रुपए पुरस्कार के रूप में मिले हैं. जरा एक बार फ़ुर्सत में सोचिएगा कि अगर ओलिंपिक के बाद के इनाम के बदले पहले इसकी आधी राशि भी प्रोत्साहन के रूप में मिली होती, तो परिणाम बेहतर हो सकते थे. तब आप चैंपियन और उसकी कामयाबी के असली भागीदार होते.
जिनमें दमखम और प्रतिभा है उन्हें जानकारी नहीं, जिनमें जागरुकता है, उनमें माद्दा नहीं. चैंपियन भारत में मिलेंगे, इंडिया में नहीं. ग्रामीण भारत की पहुंच व्यवस्था तक है ही नहीं. चैंपियन बनाने के लिए सुविधाएं वहां पहुंचनी चाहिए जहां प्रतिभाएं हैं. लेकिन क्या सबकुछ सरकार ही करे?
अमेरिका 121 पदक के साथ इस ओलिंपिक में भी टॉप पर रहा. दूसरे नंबर पर रहे चीन से 51 पदक ज़्यादा. क्या आप जानते हैं कि इस सफलता में सरकार ने सीधे तौर पर कुछ खर्च नहीं किया. यह फंडिग टेलीविजन प्रसारण अधिकार और कॉर्पोरेट जगत से आती है. अमेरिका में ऐसा इसलिए होता है ताकि तैयारियों में भ्रष्टाचार न हो. सरकार और नौकरशाहों की दखलंदाजी नहीं हो.
संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में एसोसिएट एडिटर हैं...
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This Article is From Aug 31, 2016
अजीब विडंबना है- जब देना था तब दिया नहीं, अब मची है अनूठी होड़...
Sanjay Kishore
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 31, 2016 17:37 pm IST
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Published On अगस्त 31, 2016 17:36 pm IST
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Last Updated On अगस्त 31, 2016 17:37 pm IST
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