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This Article is From Aug 06, 2015

ऋचा जैन कालरा की कलम से : क्या 'नो कार डे' लागू करने का वक्त आ गया है...

Written by Richa Jain Kalra, Edited by Swati Arjun
  • Blogs,
  • Updated:
    अगस्त 06, 2015 16:17 pm IST
    • Published On अगस्त 06, 2015 16:09 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 06, 2015 16:17 pm IST
आज हैदराबाद के सायबराबाद के आईटी कॉरिडोर में वह हो रहा है, जिसकी ज़रूरत देश के हर शहर, हर महानगर को है। यहां के आईटी कॉरिडोर में लगभग पचास हज़ार निजी कारें सड़कों से गायब हैं। कोशिश ट्रैफिक को कम कर आबोहवा को साफ करने की है, पर्यावरण की तरफ अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने की है। हमेशा गाड़ियों से पटी रहने वाली हमारी सड़कों को भी कभी छुट्टी का सौभाग्य मिलना चाहिए। ऐसा नहीं है कि लोग घर पर बैठे हैं... बसों से, दूसरी सवारियों या वाहनों के जरिये लोग सफर कर रहे हैं। कवायद नज़ीर बनाने की है, जो कामयाब रही तो हफ्ते में तीन दिन 'नो कार डे' के तौर पर मनाए जाएंगे। अगर साढ़े तीन लाख लोगों की आबादी वाले आईटी कॉरिडोर में यह मुमकिन है तो दिल्ली समेत दूसरे शहरों में क्यों नहीं...

एक दिन के लिए अपनी गाड़ियों को छोड़ हम अपनी आबोहवा की खातिर क्यों अपने चलने और दौड़ने की रफ्तार को नहीं बदल सकते... रफ्तार एक-दूसरे की गाड़ी से आगे बढ़ने की, पेट्रोल-डीज़ल फूंकने की और अपनी शान बघारने की है, जिसमें पहला नंबर है देश की राजधानी दिल्ली का... दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर... यहां एक घर में दो से तीन गाड़ियां आम बात है। चारों महानगरों के वाहनों को मिलाकर भी ज़्यादा वाहन दिल्ली में हैं और ये हर दिन बेतहाशा बढ़ते जा रहे हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट से चलने को एक बड़ा वर्ग अपनी तौहीन मानता है। यह भी सच है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर एक मेट्रो ही सबसे आसान और कामयाब जरिया है। मेट्रो हर जगह मौजूद भी नहीं, इसका जाल फैलाया जा रहा है, लेकिन अकेले इससे बात बनने वाली नहीं। हमें पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर और ज़्यादा साधन और अच्छी व्यव्स्था चाहिए। अगर सायबराबाद में हैदराबाद सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट एसोसिएशन की पहल पर 50 हज़ार गाड़ियों के पहिये थम सकते हैं तो दिल्ली-मुंबई में इसकी कल्पना करना मुश्किल क्यों है...? अगर हैदराबाद में सरकार इसके लिए खासतौर पर बसें चला सकती है तो यह मॉडल देश भर में लागू क्यों न हो...?

ज़हरीली हो चुकी हवा में सांस लेकर दर्जनों बीमारियों को न्योता दे रही दिल्ली की हवा को बदलने का बीड़ा हम लोग और सरकारें मिलकर नहीं उठाएंगे तो वे दिन दूर नहीं, जब चेहरे पर मास्क लगाकर चलना मजबूरी बन जाएगा। रिसर्च बताती है दिल्ली के स्कूली बच्चे किस तरह इस वायु प्रदूषण के चलते अपनी इम्यूनिटी यानि बीमारियों से लड़ने की ताकत खो रहे हैं। अन्य शहरों के मुकाबले यहां बच्चों के फेफड़ों के काम करने की क्षमता अन्य इलाकों से 43.5 फीसदी कम है। यह खुलासा सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड और चित्तरंजन नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के साझा सर्वे में सामने आया है। यह अब से करीब 10 साल पहले हुआ था... अब जब यह साबित हो चुका है कि प्रदूषण की मार सबसे ज़्यादा दिल्ली वालों पर पड़ रही है तो बीते 10 सालों में इस सर्वे के बाद से अब तक स्थिति कितनी खराब हो चुकी होगी, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं।

आजकल बिना एयरकंडीशनर चलाए गाड़ी में चलना अपनी सेहत के साथ खिलवाड़-सा लगता है। ज़हरीली हवा फांककर सेहत से समझौता क्यों... यह सवाल जब दिमाग में कौंधता है तो साथ में यह सवाल भी उठता है कि इस आराम के बदले क्या हम बेतहाशा पेट्रोल-डीज़ल फूंककर सड़कों पर जाम को न्योता नहीं दे रहे...? यह जाम वक्त तो बर्बाद करता ही है, झुंझलाहट भी बढ़ाता है। क्या हम सब के लिए अब 'नो कार डे' के बारे में सोचने का वक्त आ गया है...? शनिवार-रविवार को ज़्यादातर लोगों की छुट्टी के बावजूद दिल्ली में सड़कें हमेशा ट्रैफिक से लदी नज़र आती हैं। 'नो कार डे' की दिल्ली को सख्त ज़रूरत है... हम अपनी और हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए अपनी आबो-हवा को साफ रखने की ज़िम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते।

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