किस राष्ट्रवाद की पहली जंग जीत गए अरुण जेटली?

किस राष्ट्रवाद की पहली जंग जीत गए अरुण जेटली?

अरुण जेटली (फाइल फोटो)

'राष्ट्रवाद पर बहस का पहला दौर भाजपा जीत चुकी है।' हाल में दिल्ली भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में यह उद्घोषणा करते वक्त अरुण जेटली की मुट्ठियां भिंच आई थीं और चेहरे पर दर्प का भाव था। अगले दिन कुछ इसी विजयी भाव से उन्होंने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने को भी जायज ठहराया और लोकतंत्र को 'अपूर्व संवैधानिक संकट' से बचा लेने का दावा किया। जेटली ही नहीं, हाल ही में संपन्न भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक-दूसरे की ओर होठों पर हल्की मुस्कान के साथ ऐसे देख रहे थे, मानो लंबे अरसे बाद कुछ सुकून का दौर हासिल हुआ है।

अरुण जेटली 'अच्छे दिन' के बेहद लुभावने नारे के साथ ऐतिहासिक बहुमत लेकर आई मोदी सरकार के इकलौते 'बौद्धिक' खेवनहार हैं। उन्हें ही जब, तब सरकार का बचाव करने के लिए कुछ बौद्धिक किस्म के जुमलों के साथ उतरना पड़ता है। मामला चाहे अरुणाचल प्रदेश या उत्तराखंड में कांग्रेस सरकारों की आपसी कलह का लाभ लेकर उन्हें विस्थापित करने का हो, देश में असहिष्णु माहौल पर साहित्यिकों, बुद्धिजीवियों का सम्मान लौटाने का या फिर हैदराबाद तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों से रोहित वेमुला की खुदकुशी और राष्ट्रवाद पर छिड़े विवाद का, जेटली ही अपने बौद्धिक तरकश के तीर लेकर हाजिर होते हैं। वित्त मंत्री होने के नाते अर्थव्यवस्था से जुड़े उनके अपने मामले भी जाहिरा तौर पर होते ही हैं।

यह एक बड़ी बहस का मामला है कि इस सरकार के पास बौद्धिकों का इतना टोटा क्यों है? इस लेख का विषय भी यह नहीं है। लेकिन यहां इतना याद दिलाना मौजू होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की अगुआई में एनडीए सरकार के पहले दौर में उसके पैरोकार, किस्म-किस्म के बौद्धिकों का टोटा नहीं था। उस दौर का नेतृत्व भाजपा और संघ परिवार के बाहर से कई दमदार शख्सियतों को अपने पाले में लाने में कामयाब हो गया था।
 
तब एनडीए में शामिल कई दलों के नेताओं की तो अहमियत थी ही, भाजपा में भी बाहर से लाए गए जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी जैसे नेताओं के पास अपनी अलग तरह की दलीलें थीं। यह भी याद किया जा सकता है कि राम जन्मभूमि आंदोलन के दौर में जब 'छद्म धर्मनिरपेक्षता' और 'समान नागरिक संहिता' पर बहस चलाकर अपनी फिजा तैयार करनी थी तो आडवाणी के नेतृत्व में अपनी किस्म के बौद्धिक क्षमता वाले स्वपन दासगुप्ता, चंदन मित्रा, प्रसन्नराजन जैसे कई पत्रकारों की टोली को आगे किया गया था, जो संघ परिवार के दायरे के बाहर के थे।

लेकिन आज के भाजपा नेतृत्व को शायद उनकी जरूरतें नहीं रह गई है। फिर भी राष्ट्रवाद जैसी बहस में विजय हासिल कर लेने का क्या राज हो सकता है? क्यों इसमें भाजपा को बड़े बौद्धिकों की दरकार नहीं है? राष्ट्रवाद की यह बयार कैसे बही या बहाई गई, इस पर काफी चर्चाएं हो चुकी हैं। अब यह जानना अहम है कि इसके नतीजे क्या होने जा रहे हैं? सवाल है कि क्या लंबे समय और चुनावी राजनीति में इसके फायदे भाजपा और संघ परिवार को हासिल होंगे? फिर, इस बहस से क्या राजनीति की दिशा मुड़ जाएगी? इससे देश में उठ रहे आरक्षण जैसे दूसरे मसलों का रुख भी क्या मुड़ जाएगा? क्या महंगाई, बेरोजगारी, किसानों के संकट और अर्थव्यवस्था के दूसरे मसलों पर घिर रही सरकार को राष्ट्रवाद के रूप में एक अभेद्य ढाल मिल जाएगा?

इन सवालों पर चर्चा जरूरी इसलिए है कि इस साल और अगले साल देश के बड़े हिस्से में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं जो 2019 के लोकसभा चुनावों की दिशा भी तय कर सकते हैं और राज्यसभा के 'गणित' को कुछ हद तक बदलने में भी कारगर हो सकते हैं जहां मोदी सरकार बार-बार घिर रही है। इस साल भाजपा को असम के चुनावों से काफी उम्मीद है। अगले साल तो उत्तर प्रदेश का मैदान इस टोली के लिए अग्निपरीक्षा साबित होने ही जा रहा है, जहां उसे राष्ट्रवाद की इस नई बयार से फायदे की बड़ी उम्मीद है। भाजपा को एहसास है कि खासकर शहरी मध्यवर्ग और ग्रामीण सवर्णों में राष्ट्रवाद की नई बयार काफी मजबूत आधार तैयार कर रही है। शायद इसी एहसास से जेएनयू विवाद में खुलकर सामने आई कांग्रेस अब 'भारत माता की जय' बोलने के विवाद में उलझने से बच रही है। महाराष्ट्र विधानसभा में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के विधायक वजीर पठान के 'भारत माता की जय' न बोलने पर उनके खिलाफ निलंबन प्रस्ताव कांग्रेस ले आई।

दरअसल कांग्रेस भी इसी तरह के राष्ट्रवाद का इस्तेमाल कई बार अपने सियासी फायदे के लिए कर चुकी है। उदारीकरण के दौर में तो खासकर आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादियों की हिंसा से निपटने के लिए राष्ट्रवाद का आह्वान किया गया। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो उन्हें आतंकवादियों से भी खतरनाक बताया क्योंकि वे खनिज उत्खनन में बाधा बनकर राष्ट्र के विकास में अडंगा लगाते हैं। अब यह लंबे बहस का विषय है कि आदिवासियों को विस्थापित करके पहाड़ और जंगलों के दोहन से देश की कितनी बड़ी आबादी लाभान्वित हुई और उससे आदिवासियों की दुर्दशा किस पैमाने पर बढ़ी है। लेकिन इस उदारीकरण और मोटे तौर पर खनिज दोहन से इतना तो जरूर हुआ है कि देश में खरबपतियों की संपत्ति दुनिया के अमीरों से होड़ लेने लगी है। शहरी अर्थव्यवस्था में भी इसका काफी असर दिखा है। खासकर महानगरों में मध्यवर्ग इससे काफी लाभान्वित हुआ है। इसका एक प्रतिफल यह भी हुआ है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था तेजी से बिगड़ती गई है और अब ऐसे संकट में फंस गई है जो किसानों को छोटे-छोटे कर्जों के लिए आत्महत्या पर मजबूर कर रही है। इसके विपरीत देखें तो सरकारी बैंकों का उद्योगपतियों और कारोबारियों को दिया गया अनुमानित पांच लाख करोड़ रु. का कर्ज डूबत खाते में पहुंच गया है। हाल में हजारों करोड़ के कर्जदार विजय माल्या को आसानी से देश छोड़कर जाने दिया गया।

दरअसल राष्ट्रवाद और 'भारत माता की जय' के नारे के तहत ये सभी मसले भुलाए जा सकते हैं। एक खास तबके में उन्माद पैदा किया जा सकता है। यह भारत का ही मामला नहीं है। भूमंडलीकरण में जैसे खासकर वित्तीय पूंजीवाद संकट में घिरता जा रहा है, तो ऐसे ही एकांगी राष्ट्रवाद का नारा दुनिया के बड़े हिस्से में दक्षिणपंथी समूह बुलंद कर रहे हैं। इसका सबसे भयानक रूप अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के लिए राष्ट्रपति पद की दौड़ में डोनाल्ड ट्रंप के रूप में दिख रहा है। वे प्रवासियों और मुसलमानों के खिलाफ जैसी तीखी बोली बोल रहे हैं, उसका मिलान हम अपने देश में भाजपा और संघ परिवार के नेताओं के बयानों से कर सकते हैं।

अमेरिका ही नहीं, यह अति दक्षिणपंथ की हवा ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, यूनान, इज्राएल, जापान, रूस, यूक्रेन और ब्रिटेन में भी जोर पकड़ रही है। हाल में लियो पैनिच और ग्रेग एल्बो के संपादन में निकली 'सोशलिस्ट रजिस्टर 2016 : द पॉलिटिक्स ऑफ द राइट' में दुनिया में जारी इस रुझान और इसकी वजहों पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसके लेखों के मुताबिक 1930 के दौर के फासीवाद के साए फिर लंबे होने लगे हैं। वह भी आर्थिक मंदी से पैदा हुआ था और यह दौर भी पूंजीवाद के संकटों का नतीजा है। इसके एक लेख के लेखक वाल्टर बेयर के मुताबिक 'राष्ट्रवाद दरअसल सभी धुर दक्षिणपंथी पार्टियों का साझा आधार है।' चीन और जापान में नए सैन्यवाद की भी यही वजह हो सकती है। इसी वजह से इसमें बौद्धिक बहसों की बेहद कम दरकार होती है। और मोदी की अगुआई में बौद्धिकों से परहेज की भी एक वजह यह हो सकती है। जो भी हो, इस पर गंभीरता से विचार की जरूरत तो वाकई है।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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