मानवीय विडम्बनाओं और त्रासदियों के सघन चितेरे विलियम शेक्सपियर ने जब लिखा - 'नाम में क्या रखा है', तो शायद वह नफरत और हिंसा की प्रवृत्तियों की ओर भी इशारा कर रहे थे. नाम अहम होते हैं, लेकिन अपने संदर्भों में ही. अगर नफरत की फसल ही काटनी हो, तो नाम की अहमियत बेशक बढ़ जाती है. इसमें कम ही गुंजाइश है कि ऐशो-आराम और सुविधातलब ज़िन्दगी में यकीन करने वाले नवाबज़ादे सैफ अली खान और करीना कपूर या उनके परिवारों वालों के ज़हन में यह बात आई होगी कि अपने नवजात शिशु का नाम तैमूर अली खान रखकर वे विवादों को हवा दे सकते हैं. ज़्यादा संभावना यही है कि अरबी मूल के इस शब्द का चयन उसके शाब्दिक अर्थ (खुद्दार या फौलादी इरादों वाला) के कारण किया गया होगा. उन्हें तब शायद ही तैमूरलंग या उसके इतिहास की याद आई होगी.
14वीं सदी में समरकंद का शासक तैमूरलंग अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए चंगेज़ खां को आदर्श मानता था. उसने भारत में कत्ल-ओ-गारत और लूट-खसोट मचाई थी, तो तुर्की में भी उसी पैमाने पर अपनी तलवार की प्यास बुझाई थी. मगर नए संदर्भों में इस विवाद को उठाने की महज़ भावनात्मक वजह नहीं हो सकती. यह कयास लगाना बेमानी नहीं कि सोशल मीडिया पर हंगामा बरपाने वाले उसी बिरादरी के होंगे, जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तीखा करने की कितनी ही मुहिम चलाती रही है.
ज़ाहिर है, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र राजनैतिक दलों को नए-नए विवादों को हवा देने की ज़रूरत महसूस हो रही होगी. असल में नोटबंदी से जैसे-जैसे परेशानियां बढ़ती जा रही हैं, लोगों का धैर्य जवाब देने लगा है. नोटबंदी की परेशानियां दूर करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 50 दिन की समयसीमा (30 दिसंबर) नज़दीक आते ही सरकार और रिज़र्व बैंक में घबराहट बढ़ने के संकेत मिलने लगे हैं. इसका ताजा उदाहरण रिजर्व बैंक का पुराने नोटों को जमा करने में देरी के लिए सफाई पेश करने संबंधी निर्देश है. हालांकि वित्तमंत्री कुछ और कह रहे हैं, लेकिन बैंक मानने को तैयार नहीं हैं. घबराहट की बड़ी वजह यह है कि नोटबंदी का बताया गया कोई भी मकसद पूरा होता नहीं दिख रहा है. न काले धन, न नकली नोटों और न आतंकी नेटवर्क पर किसी तरह की नकेल कसे जाने के संकेत मिल रहे हैं.
इसी वजह से नोटबंदी पर सरकार इतना आगा-पीछा कर चुकी है कि उसे दोहराने की दरकार नहीं. अब तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू जैसे समर्थकों का धीरज भी जवाब दे गया है. प्रधानमंत्री अपने भाषणों और भारतीय जनता पार्टी अपने बयानों से साफ कर चुकी है कि नोटबंदी का बड़ा सियासी मकसद चुनावों में पार्टी की नैया को पार लगाना है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव इसके असर को जानने की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बनने जा रहे हैं, लेकिन नकदी का संकट बढ़ने, काम-धंधे ठप पड़ने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले बुरे असर से लोगों की हालत खराब होने लगी है.
हालात तेज़ी से नहीं सुधरे, तो अराजकता जैसी स्थिति बनती जा रही है. संभव है, बीजेपी और संघ परिवार के लोग अब चाह रहे हों कि नोटबंदी की फिज़ां कुछ बदली जाए. उन्हें उम्मीद होगी कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से शायद माहौल कुछ बदले, लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज़ करने की कोशिशें बिहार और दिल्ली विधानसभा चुनाव के वक्त भी हुई थीं, जिनका खास असर नहीं हुआ. इसलिए फिलहाल छोटे स्तर और कम चर्चित नेताओं के ज़रिये ही किया जा रहा है. असल नोटबंदी हर इंसान को इस कदर छू रही है कि दूसरे मुद्दे का मुलम्मा उस पर चढ़ना आसान नहीं.
यह भी एक वजह है कि नोटबंदी और बाकी मामलों को देशभक्ति से जोड़कर भावनाओं में उफान लाने की कोशिश भी हो रही है. तैमूर का विवाद भी उसी भावना से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है. नोटबंदी पर केंद्रीय मंत्री उमा भारती पहले ही पीएम नरेंद्र मोदी के कदम की तुलना भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कार्ल मार्क्स से कर चुकी हैं. पीएम भी अपनी सरकार को गरीबों का हमदर्द बता चुके हैं, मगर सब के बावजूद देखना यही है कि इस साल होने वाले चुनाव क्या नतीजे दिखाते हैं.
हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Dec 21, 2016
अब तैमूर अली खान के बहाने...
Harimohan Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 21, 2016 13:33 pm IST
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Published On दिसंबर 21, 2016 13:33 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 21, 2016 13:33 pm IST
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