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This Article is From May 19, 2016

केरल में बदल गई गद्दी, लेकिन भगवा खिड़की भी खुली

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 19, 2016 16:37 pm IST
    • Published On मई 19, 2016 16:37 pm IST
    • Last Updated On मई 19, 2016 16:37 pm IST
इन चुनावों में सबसे सहज अंदाजा लगाना अगर किसी एक राज्य में संभव था तो वह था केरल। एक तो वहां हर बार गद्दी बदल देने की परंपरा है और कुल मिलाकर दो ठोस गठबंधनों - कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) और माकपा की अगुआई वाले वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) में राज्य की सियासत इस कदर सिमटी हुई है कि 2-3 प्रतिशत वोटों के रुझान बदलने से ही जीत-हार तय हो जाती है। इनके बीच में तीसरे की कोई गुंजाइश कभी नहीं रही है, लेकिन 2016 का जनादेश तीसरे भगवा रंग के लिए एक छोटी-सी खिड़की खोलने के लिए भी जाना जा सकता है। बीजेपी की सीट जीतने की संभावना से बड़ी बात यह है कि उसका वोट करीब पांच फीसदी से अधिक बढक़र 6.3 फीसदी से 12 फीसदी तक पहुंच गया है।

यह शायद राज्य के दोनों ही स्थापित मोर्चों के लिए चिंता की बात हो सकती है। अभी पिछले दिनों ही कांग्रेस नेता एके एंटनी ने कहा था कि केरल में बीजेपी सिर्फ बैंक खाता खोल सकती है, चुनावी खाता नहीं। अब इस जनादेश से उनके माथे पर बल ज़रूर पड़ गया होगा। वैसे, कांग्रेस का जाना सिर्फ इसलिए तय नहीं था कि राज्य की जनता दोबारा किसी एक मोर्चे को मौका नहीं देती, बल्कि मुख्यमंत्री ओमन चांडी के खिलाफ सोलर घोटाले की तेज धूप भी काफी तपिश पैदा कर चुकी थी। फिर भी यह अंदाजा कम ही लोग लगा रहे थे कि एलडीएफ और यूडीएफ के बीच फासला लगभग दोगुने का हो जाएगा। राज्य की कुल 140 सीटों में एलडीएफ 85 सीटों पर विजय की ओर बढ़ रही है तो यूडीएफ 46 सीटों पर सिमटती जा रही है।

हालांकि वोट हिस्सेदारी में दोनों का फासला ज्यादा नहीं है। एलडीएफ को 40 प्रतिशत के आसपास, तो यूडीएफ को 38 प्रतिशत के करीब वोट हासिल हुए हैं। लेकिन बड़ी खबर तो निस्संदेह बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ना है। बीजेपी ने इसके लिए राज्य में करीब 23 फीसदी आबादी वाले इझवा समुदाय के स्वयंभू नेता वेलपुली नतेशन के नेतृत्व वाले श्री नारायण धर्म परिपालन योगम के साथ समझौता किया था। इसकी स्थापना केरल के महान समाजसुधारक श्री नारायण गुरु ने 1903 में की थी। नतेशन ने इसकी राजनैतिक शाखा भारत धर्म जनसेना बनाई है। इसी तरह बीजेपी ने पीसी थॉमस के केरल कांग्रेस और एक जनजातीय नेता सीके जानू के जनतिपथ्य राष्ट्रीय सभा से भी गठजोड़ कायम किया। हाल के दौर में बीजेपी ने बिहार चुनावों में गठजोड़ का महत्व जाना, तो वह यह प्रयोग उन सभी राज्यों में खासतौर पर आजमा रही है, जहां उसकी जड़ें नहीं हैं।

बीजेपी ने इन चुनावों में क्रिकेटर श्रीसंत और फिल्मी अभिनेताओं जैसे लोकप्रिय हस्तियों को भी उतारा था। शायद उसका उसे फायदा नहीं मिला, लेकिन इझवा समुदाय में कुछ सेंध लगाने में वह कामयाब हुई हो सकती है। साथ ही नायर और ऊंची जातियों का उसका अपना वोट बैंक भी कायम रह सका है। आशंका यह थी कि इझवा समुदाय से हाथ मिलाने से ऊंची जातियां बिदक जाएंगी, लेकिन बीजेपी के वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी से ऐसा लगता नहीं है।

वैसे, केरल की दो मोर्चों में विभाजित राजनीति में इझवा समुदाय का झुकाव मोटे तौर पर माकपा की ओर रहा है। उसके बड़े नेता अच्युतानंदन खुद इझवा समुदाय से आते हैं। आखिर दौर में यह भी कहा जाने लगा था कि खासकर दक्षिण के तमिलनाडु से सटे इलाकों में बीजेपी की बढ़त रोकने के लिए यूडीएफ और एलडीएफ में तालमेल हो सकता है। लेकिन ऐसा हुआ लगता नहीं है। कुल मिलाकर कांग्रेस और वाम नेता भी अब इसे सिरे से खारिज नहीं कर सकते कि केरल में बीजेपी जैसी सांप्रदायिक पार्टी का प्रवेश नहीं हो सकता। वहां लंबे समय से आरएसएस लगा हुआ है और हाल के दौर में हर हिन्दू त्योहार जोरशोर से मनाया जाने लगा है। इससे खासकर माकपा और आरएसएस तथा बीजेपी कार्यकर्ताओं के बीच वहां खूनी जंग भी होती रही है।

वैसे, केरल में वाममोर्चा के लिए जीत बड़ी राहत लेकर आई है। पश्चिम बंगाल में ममता की आंधी में उसके बचे-खुचे शामियाने भी उखड़ गए हैं, जिसे दोबारा बिछाने में उसे काफी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। ममता यह भी चुनौती दे रही हैं कि उनका अगला निशाना एक और वाम गढ़ त्रिपुरा होगा। केरल की जीत माकपा महासचिव सीताराम येचुरी के नेतृत्व की भी परीक्षा साबित हो सकते हैं। वहां उन्हें अच्युतानंदन और पेनयारी के बीच द्वंद्व को भी सुलझाना होगा। दोनों ही मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हैं। पिछली बार इसी द्वंद्व के कारण पार्टी की बुरी गत हो गई थी और प्रकाश करात के नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न भी लग गया था। कहते हैं, इसी टकराव ने पिछली बार कांग्रेस की अगुआई वाले यूडीएफ का रास्ता साफ कर दिया था।

लेकिन इस बार कांग्रेस के लिए तो चहुंओर बुरी खबरें ही हैं। अब उसके पास एकमात्र बढ़ा राज्य कर्नाटक ही बच गया है। ऐसे में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की ताजपोशी की बात सोच रही कांग्रेस के लिए और दुविधा की स्थिति पैदा हो जाएगी। असल में कर्नाटक में बीजेपी इसी तरह बढ़ी थी, जैसे वह केरल में बढ़ रही है। हालांकि फर्क यह है कि केरल में कांग्रेस को अधिकतर मुसलमानों और ईसाइयों के वोट मिलते हैं। उन्हीं के ज्यादातर संगठन उसके मोर्चे में हैं। कांग्रेस की हिन्दू वोटों में हिस्सेदारी वाममोर्चा से कम है। इसी वजह से वहां बीजेपी कार्यकर्ताओं से ज्यादातर टकराहट वामपंथियों से ही होती है। फिर भी अगर कांग्रेस के हिन्दू वोट बीजेपी झटक लेती है तो उसके लिए वाकई खतरे का संकेत है।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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