सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद बिल्कुल ठीक कहते हैं कि फेसबुक और ट्विटर जैसे संस्थानों को भारत में काम करना है तो भारतीय संविधान की बात माननी होगी. संविधान से बाहर ये निजी कंपनियां क्या, सरकार भी नहीं जा सकती. इसलिए अगर सोशल मीडिया के इन मंचों के कामकाज में कुछ ऐसा दिखाई देता है, जो असंवैधानिक हो या संविधान की भावना के भी विरुद्ध हो, तो इन पर फ़ौरन कार्रवाई होनी चाहिए.
लेकिन भारत सरकार भारतीय संविधान नहीं है. भारत सरकार की बात न मानना भारतीय संप्रभुता पर चोट करना नहीं है. यह चोट तब होगी, जब कोई संस्थान भारतीय क़ानूनों की ही धज्जियां उड़ाए और फिर भी चलता रहे. मसलन भारतीय संविधान अपने नागरिकों के साथ किसी भेदभाव की इजाज़त नहीं देता. अगर कोई ऐसा भेदभाव करता है तो वह भारतीय संविधान की अवहेलना करता है. इस ढंग से देखें तो जातीय आधारों पर बने और काम कर रहे बहुत सारे संगठन दरअसल भारतीय संविधान की भावना के विरुद्ध हैं.
ट्विटर ने ऐसा क्या किया है, जो भारतीय संविधान के विरुद्ध है? उसने सरकार द्वारा प्रस्तावित वे बहुत सारे अकाउंट बंद नहीं किए हैं, जिनसे सरकार के मुताबिक नफ़रत फैलाई जा रही थी. सरकार को दरअसल कुछ हैशटैग्स पर एतराज़ है, जिनसे 26 जनवरी के आसपास बहुत सारे ट्वीट कर किसान आंदोलन के बारे में सच्ची-झूठी बातें कही गईं. सरकार इस बात से नाराज़ है कि किसान आंदोलन को लेकर 'जेनोसाइड' के हैशटैग से माहौल बिगाड़ने की कोशिश हुई.
लेकिन क्या यह पहली बार है, जब सोशल मीडिया - ट्विटर, फेसबुक या व्हॉट्सऐप - पर सच्ची-झूठी ख़बरें चली हों या सिर्फ इन्हीं हैशटैग के इस्तेमाल से चली हों? दरअसल सोशल मीडिया के संसार की विडम्बनाएं दोहरी हैं. एक तरफ़ इस मीडिया ने सूचना के लेनदेन को पूंजी और केंद्रीयता के दबाव से मुक्त किया है - हर किसी को आज़ादी दी है कि वह किसी संपादकीय दबाव से मुक्त होकर बेखटके अपनी बात रख सके, वहीं, दूसरी तरफ़ इसने झूठ और अफवाह के तंत्र को इतनी परतें दे दी हैं कि उनके पार जाकर सच को समझना लगभग असंभव हो गया है. इसमें कुछ झूठ और अफवाह तो बहुत सारे लोगों के अज्ञान का नतीजा है, लेकिन धीरे-धीरे झूठ के इस कारोबार को एक पूरे उद्योग में बदल दिया गया है.
राजनीतिक दलों की ट्रोल आर्मी यह काम धड़ल्ले से करती है. बल्कि जिसे 'फेक न्यूज़' कहते हैं, उसका 99 फ़ीसदी हिस्सा राजनीतिक दलों के आइटी सेल तैयार करते हैं. दरअसल, इन लोगों ने सोशल मीडिया के भीतर लोकतांत्रिक अभिव्यक्तियों की जो अकूत संभावनाएं थीं, उनको हाइजैक कर लिया है. रविशंकर प्रसाद ऐसी ट्विटर हैंडिल या ऐसे व्हॉट्सऐप समूहों के विरुद्ध कार्रवाई की बात नहीं करेंगे, क्योंकि इस काम में उनके ही लोगों को रोज़गार मिलता है. पिछले 10 बरस में इस देश में फेक न्यूज़ पर मॉब लिंचिंग हुई, दंगे हुए, नफ़रत के बहुत सारे खेल हुए, लेकिन सरकार ने तब किसी ट्विटर-फेसबुक को, किसी टीवी चैनल को, किसी और वेबसाइट को चेतावनी नहीं दी, मगर जिस किसान आंदोलन पर इस फेक न्यूज़ का कोई असर नहीं हुआ, उससे जुड़े ट्विटर हैंडिल हटाने के लिए वह ट्विटर की बांहें उमेठने लगी.
दरअसल, सरकारों को फेक न्यूज़ परेशान नहीं करती, असली ख़बर डराती है. जब तक फेक न्यूज़ का खेल चलता रहता है, जब तक ख़बरों के नाम पर सेक्स-सनसनी और अपराध का तड़का लगाया जा रहा होता है, तब तक उन्हें कोई परेशानी नहीं होती. वह ऐसे समाचार माध्यमों से बस आंखें ही मूंदे नहीं रहती, उनके हर सही-ग़लत में उनकी मदद करने को भी खड़ी हो जाती है. लेकिन जैसे ही कोई न्य़ूज़ चैनल, कोई वेबसाइट, कोई ट्विटर हैंडिल असली ख़बर देने लगता है, सरकार उसके विरुद्ध मामला बनाने में जुट जाती है.
सोशल मीडिया को चेतावनी देने के अलावा सरकारी एजेंसियां इन दिनों 'न्यूज़ क्लिक' के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई में जुटी हैं. उसके परिसरों में छापे मारे गए. बताया जा रहा है कि विदेशों से आ रहे पैसे का मामला उनके यहां संदिग्ध है. जिन तीन कंपनियों से वहां पैसे आ रहे हैं, उन सबके पते एक ही हैं और न्यूज़ क्लिक के पास इस बात की सफ़ाई नहीं है कि ये पैसा क्यों आ रहा है.
संभव है, यह सच हो. लेकिन 'न्यूज़ क्लिक' सरकार को समर्थन दे रही वेबसाइट होती तो उसके इससे भी बड़े घपले अनदेखे कर दिए जाते. हालांकि यह कहने का मतलब न्यूज़ क्लिक या किसी भी संस्थान की गड़बड़ी का बचाव करना नहीं है. उल्टे, इसका यह संदेश समझने की ज़रूरत है कि अगर आप किसी राजनीतिक सत्ता के ख़िलाफ़ एक नैतिक मोर्चा लेते हैं तो आपको भी अपना दामन पूरी तरह पाक-साफ़ रखना होगा - नहीं तो आपकी आस्तीन पकड़ने वाले हमेशा तैयार रहते हैं.
यही बात उन पत्रकारों के बारे में कही जा सकती है, जिन्होंने एक गलत रीट्वीट किया और कई मुक़दमे झेले. मृणाल पांडे, राजदीप सरदेसाई या सिद्धार्थ वरदराजन जैसे लोग अपनी भरोसेमंद पत्रकारिता के लिए जाने जाते रहे हैं, लेकिन उनकी एक चूक भी सरकार और सरकार समर्थकों को यह अवसर देती है कि वे उन्हें बदनाम करें या परेशान करें. ज़ाहिर है, जब एक बड़ी ताक़त के झूठ का पर्दाफ़ाश करने निकलते हैं तो आपको बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत पड़ती है.
जहां तक ट्विटर का सवाल है, वह सरकारों के ख़िलाफ़ एक हद से ज़्यादा बगावत नहीं कर सकता. उसने सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अफ़सरों से बातचीत में यह बात मान ली है कि वह ट्विटर इंडिया के अपने अधिकारियों को बदलेगा - या कम से कम एक ज़्यादा वरिष्ठ अघिकारी यहां बिठाएगा. इसके अलावा देर-सबेर वह उन वेबसाइट्स या ट्विटर हैंडिल पर भी कार्रवाई का रास्ता खोज लेगा, जिन्हें सरकार बंद करना चाहती है. अमेरिका में उसने भले डोनाल्ड ट्रंप के अकाउंट पर पाबंदी लगा दी हो, वह भारत में ऐसा नहीं कर सकता.
सरकार को भी मालूम है कि उसे ट्विटर को यहां से भगाना नहीं है. आख़िर यह उसका एक ताक़तवर माध्यम है. प्रधानमंत्री बरसों से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. कू (Koo) जैसे किसी नए ऐप को ट्विटर के मुक़ाबले खड़ा करना आसान नहीं होगा, यह बात भी उसे समझ में आती है.
...तो इस सब कार्रवाई का मतलब क्या है? बस यह दबाव बनाना कि ट्विटर-फेसबुक या व्हॉट्सऐप सरकार समर्थित प्रचार को चलने दें और सरकार विरोधी प्रतिक्रियाओं पर पाबंदी लगाएं. जो वेबसाइट्स यह काम कर रही हैं, उनको सरकार का वरदहस्त हासिल है. जो अख़बार और चैनल सरकार की अभ्यर्थना में लगे हैं, उनके भी सात ख़ून माफ़ हैं. सरकार को वैसे भी पारंपरिक या सोशल मीडिया के बड़े हिस्से का समर्थन हासिल है. लेकिन फिर उसे थोड़ा-बहुत विरोध भी क्यों डराने लगता है? शायद इसलिए कि उसे मालूम है कि राजनैतिक तौर पर तो नहीं, वैचारिक तौर उसके पांव बहुत कमज़ोर ज़मीन पर हैं और एक हल्का सा धक्का भी ये पांव उखाड़ सकता है. यही वजह है कि फ़ेक न्यूज़ को लेकर वह फेक संवेदनशीलता का परिचय दे रही है, जबकि रोक वह असली खबर को रही है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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