अगर आपको पता चले कि कोई आपकी बातचीत सुन रहा है, स्मार्टफोन का डेटा किसी और के पास जा रहा है, सोशल मीडिया पर जो लिख रहे हैं उस पर सुरक्षा एजेंसियां नज़र रखती हैं तो क्या आप सहज रहेंगे. भारत ही नहीं पूरी दुनिया में डेटा प्राइवेसी का मामला गंभीर हो गया है. खासकर जब भी यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर आता है तब यह मसला और भी गंभीर हो जाता है. यह बात ध्यान में रखिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा का ख़तरा या मसला सिर्फ एक देश को नहीं है, सभी देशों को है. इसका मतलब यह नहीं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर आपकी ज़िंदगी में कोई भी ताक-झांक कर सके. आपकी लिखी गई बात, तस्वीरों या बातचीत को किसी और के हवाले कर दें या कोई और सुनता रहे.
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में यह सवाल बहुत बड़ा है. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर और अन्य किसी बहाने से सरकार या कंपनी के पास डेटा न पहुंच जाए इसे लेकर नागरिकों का संघर्ष जारी है. अगर आपको लगता है कि इसमें क्या है तो फिर उन लोगों से पूछिए कि आप 80 हज़ार का स्मार्टफोन रखते हैं लेकिन साथ में दो हज़ार वाला पुराना जीएसएम फोन क्यों रखते हैं. जिन्हें ये बात समझ आ गई है उन्हें सोशल मीडिया से लेकर फोन के इस्तमाल में विकल्प ढूंढने शुरू कर दिए हैं. वे भी जो गृह मंत्रालय के आदेश के साथ हैं और वे भी जो गृहमंत्रालय के आदेश पर सवाल उठा रहे हैं. आदेश क्या है, 20 दिसंबर 2018 का आदेश यह कहता है कि इंफोर्मेशन टेक्नालजी एक्ट 2002 के सेक्शन 69 के उप-खंड (1) और इंफोर्मेशन टेक्नालजी रूल्स 2009 के नियम 4 की शक्तियों का उपयोग करते हुए निम्नलिखित सुरक्षा और खुफिया एजेंसी किसी भी कंप्यूटर में जमा या उसके ज़रिए भेजी गई सामग्री, पैदा की गई सूचना को इंटरसेप्ट कर सकती है, निगरानी कर सकती है, उनके डेटा को एनक्रिप्ट यानी उसे खोल सकती है. इसके लिए दस एजेंसियां अधिकृत की जाती हैं जिनके नाम हैं, इंटेलिजेंस ब्यूरो, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, सेंट्रल बोर्ड एंड डायरेक्ट टैक्सेस, डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस, सीबीआई, नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी, कैबनिट सचिव(रॉ), डायरेक्टोरेट ऑफ सिग्नल इंटेलिजेंस और कमिश्नर ऑफ पुलिस दिल्ली.
दिल्ली पुलिस के कमिश्नर का नाम देखकर यूं ही ख़्याल आया कि मुंबई पुलिस के कमिश्नर कैसे छूट गए. क्या राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित ख़तरे में पुणे और मुंबई के कमिश्नर की कोई भूमिका नहीं है. पर ये बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है. पर यह महत्वपूर्ण है कि दिल्ली ही क्यों, यह भी कि सीबीडीटी क्यों, सीबीआई क्यों. आपके कंप्यूटर में जो कुछ भी है, जो कुछ भी उससे भेजा जा रहा है और जो कुछ भी पहले उसमें जमा था मगर मिटा दिया गया, इन सबको हासिल किया जा सकता है, मॉनिटर किया जा सकता है और इंटरसेप्ट किया जा सकता है. राज्यसभा में इस बात को लेकर काफी बहस हुई कि क्या सरकार ने सभी एजेंसियों को खुली छूट दे दी है.
अगर पहले से ही कानून था तो फिर गृह मंत्रालय को 20 दिसंबर 2018 को यह अधिसूचना क्यों जारी करनी पड़ी. हमारी सहयोगी नीता शर्मा ने एनडीटीवी डॉट कॉम पर लिखा है कि पहले गृह मंत्रालय लोगों के फोन कॉल और ईमेल स्कैन कर सकता था. नए आदेश से कई और एजेंसियों को यह अधिकार मिल गया है. जिनके नाम अभी अभी हमने बताए नीता से एक पूर्व नौकरशाह ने बताया कि पहली बार डेटा स्कैन करने का अधिकार कई सारी एजेंसियों को दिया गया है. इसके पहले जो बातचीत चल रही है जिसे डेटा इन मोशन कहते हैं उसे इंटरसेप्ट किया जा सकता है. मगर इस आदेश के बाद कंप्यूटर में जमा, या उससे भेजी गई सूचना को भी इंटरसेप्ट करने का पावर दे दिया गया है.
यह मामला तकनीकि का भी है. अगर सरकार किसी खास कोड से एक साथ लाखों कंप्यूटर को मोनिटर करने लगे तो क्या होगा, सोशल मीडिया की कंपनियां ऐसी तकनीक को लेकर हमेशा विवादों में रहती हैं और दुनिया के कई देश उनकी इस बदमाशी को लेकर कानून बना रहे हैं लेकिन जब सरकार खुद यही काम करती है तो क्या उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर करने दिया जा सकता है, यह सवाल सिर्फ भारत का नहीं है, अमरीका और जापान और लंदन जर्मनी का भी है. अभी तक इंटेलिजेंस ब्यूरो को ज़ब्त करने का अधिकार नहीं है. उन्हें राज्य पुलिस के साथ मिलकर ऐसा करना पड़ता था. मगर इस नोटिफिकेशन के बाद से सब बदल गया है. नीता शर्मा ने लिखा है कि नए नोटिफिकेशन के बाद से सब्सक्राइबर, सर्विस प्रोवाइडर या कोई भी व्यक्ति जिसके अंडर वो कंप्यूटर है, उसे एजेंसियों को सारी जानकारी देनी होगी. नहीं देने पर सात साल तक की जेल हो सकती है.
क्या यह कंप्यूटर ज़ब्त करने का आदेश भर है या आपके घर में रखा कंप्टूयर अब फोन की तरह टैप किया जा सकेगा. हमें इस मामले में कम से कम तीन पहलुओं को समझना होगा. कानूनी, प्राइवेसी और तकनीकि. ईमेल और फोन गृह सचिव की अनुमति के बाद टैप किए जाते रहे हैं लेकिन कंप्यूटर के इस सूची में जुड़ने से क्या बदल गया है.
क्यों ममता बनर्जी से लेकर सीताराम येचुरी, रामगोपाल यादव से लेकर आनंद शर्मा तक सभी विपक्ष के नेता इस आदेश को लेकर चिन्तित हैं और सवाल उठा रहे हैं. असर देखिए, मोदी जी के कान और आंखें अब घर घर में हैं. हर फोन पर हुई बातचीत हर फोन पर हुई मेसेज सुन सकते हैं. कोई मां बेटे से बात कर रही है तो मोदी सुन रहे हैं. बेटा पिता से बात कर रहा है, कोई पत्रकार मोदी सरकार की नीतियों पर टिप्पणियों कर रहा है तो मोदी जी सुन रहे हैं. कोई किसान मोदी जी की किसान विरोधी नीतियों पर कह रहा है तो मोदी जी सुन सकते हैं. कोई युवा गूगल कर रहा है तो मोदी जी वो भी सुन सकते हैं. 2014 में सत्ता में आए घर घर में मोदी के नारे से, अब जब सत्ता जा रही है जो नारा बन गया है घर घर जासूसी.
दि प्रिंट में मनीष छिब्बर ने लिखा है कि 22 दिसंबर 2008 को लोकसभा में बगैर किसी चर्चा के ही यह संशोधन पास हो गया था. तब कांग्रेस की सरकार थी. लोकसभा ही नहीं जब राज्य सभा में बहस हुई तब एक भी सांसद ने इसके खिलाफ वोट नहीं किया. इसी संशोधन के तहत पहली बार कंप्यूटर में जमा, या कंप्यूटर के द्वारा प्रसारित किसी सूचना को ट्रैक करने का अधिकार केंद सरकार को मिला था. यह गंभीर बात तो है लेकिन उस वक्त प्राइवेसी को लेकर वैसी समझ नहीं थी, जैसी आज है. आज दुनिया में टेक्नालजी के कारण डेटा सर्वेलांस यानी निगरानी के नए ख़तरे सामने आए हैं, उनकी बहस पहले से कहीं ज्यादा जटिल और सीरीयस हुई है. 2008 के संशोधन को लेकर कई संस्थाओं ने सवाल उठाए, क्या तब की सरकार ने उसे सुना था. क्यों नहीं तब के कानून में प्राइवेसी को लेकर सुरक्षा के उपाय किए गए थे, और अगर तब नहीं हुआ था तो क्या इसे आधार बनाकर कहा जा सकता है कि अब नहीं होगा.