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This Article is From Mar 30, 2024

महुआ की छाया में पलती गोंड चित्रकला

Atula Gupta
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 30, 2024 00:04 am IST
    • Published On मार्च 30, 2024 00:03 am IST
    • Last Updated On मार्च 30, 2024 00:04 am IST

मार्च-अप्रैल के महीनों में, जब फागुन के फूल बहार में हों, गोंड जनजाति की महिलाएं अक्सर एक पेड़ के नीचे हजारों की संख्या में बिखरे पड़े मनमोहक फूलों को बीनती हुई मिलेंगी. यह पेड़ इनके लिए रोजगार का साधन भी है, आराधना योग्य भगवान भी और सांस्कृतिक धरोहर भी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इनके जीवन को सजाती और संवारती चली आ रही है. यह विशेष वृक्ष है महुआ, जिसे गोंड आदिवासी “Elixir of Life” या जीवनदायिनी मानते हैं.

गोंड आदिवासी मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और बिहार में रहते हैं. ये भारत के सबसे पुराने भूखंड "गोंडवाना" के मूल निवासी हैं. इस धरा के पेड़, पौधे, जीव-जंतुओं के बारे में जितना इन्हें व्यावहारिक ज्ञान है, उतना शायद ही किताबों में किसी ने लिखा या पढ़ा हो.

गोंड शब्द का अर्थ ही है 'हरा पहाड़'. ये अपने घरों को पेड़-पौधे, फूल-पत्तियों और जानवरों की आकृतियों से सजाते हैं. इनकी बिंदुओं और रेखाओं वाली चित्रकला अब दुनिया भर में प्रसिद्ध है. वैसे तो इनमें शेर, हिरण, तोते.. सभी चित्रित किए जाते हैं पर जिस चीज को ये सबसे ज्यादा दिखाते हैं, वह है महुआ का पेड़, मानो इसी के इर्दगिर्द सारी दुनिया बसी हो. देखा जाए तो यह इस समुदाय के लिए शाश्वत सत्य भी है.

जन्म से लेकर मृत्यु तक गोंड जनजाति के लोग महुआ के पेड़ का उपयोग करते हैं. उनके हर त्योहार, हर पूजा, हर विशेष दिन में इसका एक महत्वपूर्ण स्थान है. बच्चे के जन्म के समय उसे महुआ का तेल लगाया जाता है, शादी के समय वर-वधु महुआ के तने को पकड़कर उसके चारों ओर रस्म निभाते हैं और मेहमानों का आदर-सत्कार भी महुआ से बनी शराब से किया जाता है. पेट की बीमारियों से लेकर हल्का बुखार होने पर भी महुआ इनके लिए हर रोग का इलाज है. इस वृक्ष को कभी भी काटा नहीं जाता बल्कि गोंड आदिवासी इसे धन-संपत्ति के समान अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ कर जाते हैं.

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फोटो- एजेटी जॉनसिंह.

एक समय था जब भारत में महुआ का पेड़ काफी आम था, खासकर उत्तर और मध्य भारत में. यह इतना प्राचीन पेड़ है कि इसका वर्णन वेदों में किया गया है. चरक संहिता में भी इसके औषधीय गुणों का उल्लेख है. कालिदास ने तो यह भी लिखा है कि मां पार्वती महुआ के बने फूलों का हार पहनती हैं.

महुआ के फूलों की अनूठी बात यह है कि ये रात में खिलते हैं और सुबह तक मुरझा जाते हैं. पेड़ के नीचे बिखरे पड़े फूलों की महक दूर तक जाती है जिससे चमगादड़, जंगली कबूतर, स्लोथ भालू आदि जैसे पशु-पक्षी इनकी ओर खिंचे चले आते हैं. गोंड आदिवासी इन फूलों को इकट्ठा करके उन्हें सुखाते हैं और दुनिया की एकमात्र फूलों से बनने वाली शराब बनाते हैं.

अगर आप गोंड चित्रकला को ध्यान से देखें तो आप पाएंगे कि उसमें कभी हिरण के सींग पेड़ की शाखाओं का आकार ले लेते हैं तो कभी पक्षियों के पंख महुआ की पत्तियां बन जाते हैं. अपनी हर रचना में गोंड यह सरलता से समझाते हैं कि पेड़ों से ही जीव, पेड़ों से ही जीवन है.


(अतुला गुप्ता पर्यावरण एवं विज्ञान लेखिका हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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