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This Article is From Jun 12, 2024

गोंड कला - रंगों में सांस लेती परंपरा

Poonam Arora
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 12, 2024 19:41 pm IST
    • Published On जून 12, 2024 19:40 pm IST
    • Last Updated On जून 12, 2024 19:41 pm IST

कला एक ऐसा भाव है, जो किसी भाषा में नहीं बंधा, बल्कि उसका अस्तित्व इतना संपूर्ण है कि वह किसी भी तरह की अभिव्यक्ति में ख़ुद को शामिल कर लेता है.

जब हम कला में नवाचार की बात करते हैं, तो इसकी जड़ों को याद रखना उतना ही ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि कलाकृतियां अप्रत्याशित घटने की मुग्धता में उन रेशों की तरह होती हैं, जो अपने आयामों में, अपना पूरा समय लेकर, निर्माण के संधान में प्रार्थनारत होती हैं. कलाकृतियों के पास अपने लोक का स्वप्न, सूर्य और मध्यरात्रि के चारों पहर होते हैं. एक संसार, जो कलाकृतियों के बीच स्पंदनों का अद्वैत गढ़ता है, जिसमें रेखाचित्र बाकायदा और यकीनन सांस लेते दृश्यमान होते हैं. यह हलचल इतनी धीमी होती है कि कलाकृति कई बार मायावी रूप से संवाद करती नज़र आने लगती है. किसी भी कलाकृति को देखते हुए उसे भौतिक शरीर की उपस्थिति और तार्किकता से मुक्त कर दिया जाए, तो यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड की ध्वनि निर्मित करती महसूस होता है.

यही कलाकृतियों का जादू है.

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गोंड कला अन्य किसी भी कला की तरह ही आधुनिक, उदात्त और सत्य की अंतर्दृष्टि है. यह लोककला की सांस्कृतिक मीमांसा का प्रदीप्त रूप है, जो गोंड जनजाति की उपशाखा परधान जनजाति के कलाकारों द्वारा चित्रित की जाती है. अपनी कलाकृतियों में गोंड कलाकार स्मृतियों की 'आदि सृष्टि' में लौटते हैं और परम्परा के नवाचार में अपने पूर्वजों द्वारा कही गई कथाओं और लोकगीतों को चित्रित करते हैं कि स्मृति भी एक वितान है अपने आयतन में. गोंड कला में स्मृति आख्यान जीवन के पवित्र कर्मकाण्डों से पुनःजीवित करने की रीति है. यह रीति रंगों, आकृतियों के रूप में कथा वाचन की आदि परम्परा को प्रस्तुत करती है.

ऐसा माना जाता है कि परधान समुदाय अपने सामाजिक स्थापत्य में देवी-देवताओं की भंगिमाओं को तटस्थ रूप से पूजता आया है. अपने इष्टों की शक्ति को पुनः सक्रिय करना, उन्हें प्रसन्न करना, इस समुदाय का मुख्य कार्मिक और आध्यात्मिक अभ्यास रहा. कथावचन के अभ्यास ने उन्हें सामाजिक रूप से एकत्व की भावना प्रदान की और सामूहिक ऊर्जा से उनका दैनिक जीवन साकार होता आया. इन कथाओं पर गोंड समुदाय का विश्वास इतना गहरा रहा है कि यह कथागायन की परम्परा ही बन गई. समय के साथ इसकी प्रसिद्धि ने लोकजीवन को इतना प्रभावित कर दिया कि यह परधान लोगों की जीविका का साधन बन गई.

परधान कलाकार जनगढ़ सिंह श्याम ने इस कला के प्रारम्भिक स्वरूप को परिवर्तित कर इसे एक नवीन और सुरम्य आयाम प्रदान किया. गोंड समुदाय में कथावाचन की परम्परा चित्रकला में साकार होने लगी. कथाएं रंगों और आकृतियों के माध्यम से अपनी प्राचीन परम्परा और संस्कृति को पुनः नवाचार में रचने लगीं.

इस तरह गोंड समुदाय में चित्रकला का नवीनतम सूर्य उगा.

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गोंड चित्रकला में कलाकार अपनी अर्जित जातीय स्मृतियों के आधार पर आदिवासी लोककथाओं को मूर्त अथवा अमूर्त की भाषा देता है. ऐसा माना जाता है कि एक गोंड कलाकार चित्र बनाते समय अपनी अंतःदृष्टि से जंगल, पशु, देवी-देवता, धरती, सामुदायिक अनुष्ठानों और विश्वासों को केवल कल्पना या फिर यथार्थ के संयोजन के साथ प्रतीक रूप में चित्रित करता है. कल्पना और यथार्थ दोनों ही शैलियों में कलाकार अपने उच्च कलात्मक कौशल को बारीकी से कथाओं में बुनता है. यह अद्भुत कला आज अपने अतीत से पुनः जीवित होकर आधुनिक कलाओं का ही एक अविभाजित अंग बनकर सामने आई है. यह प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर गोंड समुदाय की अपनी विशिष्ट पहचान है.

चित्रों को रचना जहां एक गूढ़ कला है, वहीं चित्रों को पढ़ना, उसे शाब्दिक अर्थों में ढालना भी कला के साथ, उसकी अनुभूति के साथ सन्तुलन बनाने की तरह है. यह सन्तुलन इतना पारखी होना चाहिए कि कला में से सत्य का एक भी कण ओझल न हो पाए, केवल चमत्कृत करता रहे, अदृश्य में दृश्य की तरह समाहित रहे. कला यूं भी एक कलाकार और कला प्रेमी की दृष्टि की परख है. गोंड कलाकृतियों में ध्वनि के प्रतिबिम्ब हर ओर दर्ज हैं, क्योंकि इनका होना ध्वनि, संगीत और लोकजीवन का आधार है. फ़र्क इस बात से नहीं पड़ता कि दर्शक ने कलाकृति में क्या और कितना देखा, फ़र्क इस बात से पड़ता है कि देखी जा रही कलाकृति देखने वाले को किस जगह पर अचानक रोक लेती है, ध्वस्त कर देती है या सुरक्षित महसूस कराती है.

कला उच्च भाव में एक शून्य बन जाती है.

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एक्रेलिक रंगों के प्रयोग द्वारा गोंड कलाकारों ने अपनी कलाकृतियों को चित्रित किया है. चित्रों में सबसे पहले जिस ओर ध्यान केन्द्रित होता है, वह है प्रकृति और देवी-देवता. जैसे एक चित्र में वनदेवी के एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू कोमलता और साहस का साझा प्रतीक है, जिसे स्त्री की शक्ति के प्रतीक रूप में देखा जाता है. और यह भी कि देवी, मनुष्य और वन का अस्तित्व अलग-अलग नहीं है, मानो, एक ही दैवीय अस्तित्व, जिसके सब अस्तित्व भिन्न अंग की तरह है. हृदय में जहां पक्षी की चोंच मिल रही, वह बता रही है कि समस्त जीवों का आपसी प्रेम ही मूल अस्तित्व का, यानी देवी के हृदय की धड़कन है. समस्त हरियाली, जीव और फसलें वनदेवी के सान्निध्य में फल-फूल रही हैं.

गोंड कलाकृतियों में रेखाओं को दोहराव में दिखाने का अद्भुत अभ्यास है. कलाकार रेखाओं का यह दोहराव घुमाव, बिंदुओं या सीधी लकीरों में रचता है. जैसे कुछ कलाकृतियों में रंग सम्पूर्ण दृश्य पर अधिकार नहीं कर रहे. इसका अर्थ यह नहीं कि रंगों की अधिकता ही किसी कलाकृति में अभूतपूर्व 'स्पेस' निर्मित करती है. काले और सफ़ेद रंग के संयोजन में निर्मित ऐसा ही एक चित्र, आध्यात्मिक शक्ति और प्रभामंडल का प्रतीक है, जिसे सात फन वाले सर्प की विराटता में दिखाया गया है. शेष में अशेष की पूर्णता और उस पूर्णता में पृथ्वी की आदि शक्ति के खुले और फैले नेत्र. शायद यह दृष्टि के सभी भेद समाप्त करने की ओर एक संकेत है. चित्र का बाहरी आयाम आसमानी नीले रंग में रंगा गया है, जो प्रकृति से ऊपर किसी असीम के होने की पुष्टि कर रहा है, मानो, हर आध्यात्मिक स्पेस से ऊपर एक और रहस्य है.

इन कलाकृतियों में आदिवासी लोकसंस्कृति की धुन, विशेषकर उसका संगीत, आचरण, कथाएं और सामुदायिक उत्सवों की गूंज रंगों और आकृतियों के माध्यम से आधुनिक कलाओं के मध्य बीसवीं सदी की गोंड परम्परा का निर्वाह उच्च प्रतीकों द्वारा साकार कर रही है. अपने जीवन और कला के सत्य प्रतीकों का आह्वान करते गोंड चित्रकारों की इस आस्था को अक्सर चिह्नित किया जाता है कि चित्रों में समस्त कलात्मक अवयवों को रचने के बाद ही, अन्त में उनके द्वारा आंखें बनाई जाती हैं, क्योंकि आंखें बनाने के बाद चित्र जीवित हो उठने में उनकी आस्था इस तरह निहित है कि जैसे प्रकृति का चित्र या चित्र की प्रकृति दोनों एक साथ द्वैत-अद्वैत के एकत्व के रूपक की तरह सहअस्तित्वमान जीवित इकाइयां हों. ऐसी कलाएं, जो अपने अनुशासन में दैवीय ऊर्जाओं से परिपूर्ण और अभ्यस्त हों, वे कलाएँ सांस्कृतिक मूल्यों के 'आदि संगीत' के समान अपनी आभा में सबसे अधिक उज्ज्वल होती हैं. गोंड कलाकृतियों को देखते हुए इसी बात का अहसास सबसे ज़्यादा होता है.

पूनम अरोड़ा 'कामनाहीन पत्ता' और 'नीला आईना' की लेखिका हैं. उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार, फिक्की यंग अचीवर, और सनातन संगीत संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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