रेल किराया बढ़ाने का घुमावदार तरीका, 90 फीसदी यात्रियों पर महंगाई की मार

रेल किराया बढ़ाने का घुमावदार तरीका, 90 फीसदी यात्रियों पर महंगाई की मार

प्रतीकात्मक फोटो

रेल किराया बढ़ाने का तरीका बड़ा घुमावदार है. सरकार ने क्या चतुर तरकीब लगाई. कोई आसानी से समझ नहीं पाएगा कि आम जनता के लिए रेल का सफर कितना महंगा हो गया. जो कहेगा उसे जवाब दे दिया जाएगा कि पहले आकर टिकट खरीद लेते. शुरू के सिर्फ दस फीसदी मुसाफिरों को रेल के टिकट पुराने रेट पर मिलेंगे. उसके बाद के 90 फीसदी यात्रियों को औसतन 25 फीसदी ज्यादा किराया देना पड़ेगा. अचानक मुनाफे के लालच में फंसती दिख रही रेल व्यवस्था पर वाकई सोचने के दिन आ गए हैं.

नई सरकार के वायदे का क्या हुआ
पिछले सत्तर साल में जब-जब किराया बढ़ता था तब-तब उस सरकार के कान उमेठे जाते थे. पिछले चुनाव के पहले सत्ता के आकांक्षी राजनीतिक दल रेल किरायों को लेकर तरह-तरह के वायदे किया करते थे. सत्ता सौंपने के बाद अब लोग उनसे पूछ रहे हैं कि उन वायदों का क्या हुआ. खासतौर पर रेल में सफर को सस्ते सरकारी यातायात का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता था. सत्तर साल में कभी भी यह नहीं माना गया कि रेलवे मुनाफे का जरिया है. हालांकि पिछले साल नई सरकार ने यह ऐलान करके चौंका दिया था कि रेलवे अपनी आमदानी दस प्रतिशत बढ़ाएगी. लेकिन तब यह नहीं पता था कि इसके लिए ताबड़तोड़ तरीके से यात्री किराया बढ़ाया जाएगा.

सयाने तरीके पर सवाल
सरकार ने बड़ा ही चतुर तरीका अपनाया. शुरू के 100 में से सिर्फ दस यात्रियों को पुराने रेट पर टिकट मिलेंगे. उसके बाद के यात्रियों के लिए रेल टिकट बहुत ही ऊंचे दाम पर मिलेंगे. यह बढ़ोतरी औसतन 25 फीसद होगी. बिल्कुल बाद में बिकने वाले टिकटों पर यह बढ़ोतरी 40 से 50 प्रतिशत हो गई है. शुरू के सिर्फ दस फीसदी यात्रियों को छोड़ देने के पीछे चतुराई यह है कि अगर महंगा टिकट खरीदने को मजबूर कोई मुसाफिर शिकायत करे तो उसे यह तर्क टिका दिया जाए कि पहले आकर टिकट क्यों नहीं खरीद लिया. यह लंगड़ा तर्क सरकार को जवाब देने के काम आएगा कि सबसे पहले आने वालों के लिए किराया नहीं बढ़ा. जबकि पहले आने वालों का कोटा सिर्फ 10 फीसदी का है.

कहने को सिर्फ तीन ट्रेनें, जबकि हकीकत में 142
हर काम धुमावदार तरीके से करने का अभ्यास कर रही नई सरकार ने प्रचार करवाया कि सिर्फ तीन ट्रेनों के किराये बढ़ रहे हैं. लेकिन इन तीन नामों से चलने वाली ट्रनों की कुल संख्या 142 है. राजधानी के नाम से 42, शताब्दी 46 और दूरंतो नाम से अलग-अलग 54 ट्रेनें हैं. यानी यह कोई प्रायोगिक फैसला नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की जेब से खूब सारा पैसा निकाल लेने का फैसला है. और अगर जनता ने यह बोझ सह लिया तो बाकी सारी ट्रेनों के किराये तो बढ़ ही जाएंगे.

ऊंचे दर्जे को पूरी छूट पर हैरत
जनता से लेन-देन के सत्तर साल के सरकारी इतिहास में यह पहली बार दिखा है कि ऊंचे दर्जे के रेल किरायों के बजाए नीचे दर्जे वाले किराये बढ़े. मौजूदा सरकार का बड़ा दिलचस्प तर्क है कि ऊंचे दर्जे का किराया पहले से ही ज्यादा है. यानी औसत जनता से ही ज्यादा वसूली की गुंजाइश इस सरकार को दिखाई दे रही थी. पता नहीं यह क्या चक्कर है, लेकिन इतना तय है कि महंगाई से जूझती और नाकाम होती जा रही सरकारी योजनाओं के कारण आमदनी से छीजती जनता पर रेल किराये का यह बोझ महंगाई को और ज्यादा महसूस कराने वाला होगा.

कहां गया अमीरों से लेकर गरीबों को देने का तर्क
अब तक यही तर्क सुनने में आता था कि लोकतांत्रिक सरकार का काम सबको समान स्तर पर लाने का होगा. इसके लिए तय यह था कि ज्यादा आमदनी वालों से टैक्स लेकर गरीबों को सुविधाएं देने का काम होगा. लेकिन सरकार के नए फैसले ने इस दर्शन को एक झटके में उलट दिया. पहली बार हुआ है कि ऊंचे दर्जे के टिकट में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई बल्कि जिस नीचे दर्जे वाले को बोझ से हमेशा से बचाकर रखा जाता था, सारा बोझ उसी पर लादा गया. इसका तर्क यह दिया जा रहा है कि ऊंचे दर्जे के किराए पहले से ही ज्यादा हैं. यानी ऊंचे दर्जे में सफर करने वालों को खुश रखा गया है.

किराया बढ़ाकर सुविधाएं बढ़ाने का लूला लंगड़ा तर्क
मौजूदा सरकार के वकील नुमा एजेंट यह प्रचार करने के काम पर लगाए गए हैं कि किराया बढ़ाकर सरकार के पास पैसा आएगा और उस पैसे से सुविधाएं बढ़ाएंगे.  रेलवे का हिसाब-किताब देखें तो पिछले साल रेल किराये से 45 हजार करोड़ आमदनी का लक्ष्य था जिसे बढ़ाकर 51 हजार करोड़ का लक्ष्य बनाया गया था. उस समय साफ-साफ यह नहीं बताया गया था कि आमदनी का बढ़ा हुआ लक्ष्य रेल किराया बढ़ाकर पूरा होगा. तब ऐसा लग रहा था कि सरकार ट्रेनों की संख्या बढ़ाकर और प्रबंधन में अपनी अक्लमंदी लगाकर आमदनी बढ़ाएगी. अपने हिस्से के पांच साल में से आधा समय गुजारने के बाद भी सरकार यह काम नहीं कर पाई. रेलवे के लिए विदेशी निवेश के सारे उपाय सिर्फ नारे साबित होते जा रहे हैं.

किसका दबाव हो सकता है रेलवे पर
यह तो शुरुआत है. आगे का अंदाजा अभी नहीं लग सकता. अनुमान जरूर लगाया जा सकता है कि अब तक जिस तरह रेलवे आम जनता की सेवा करती दिखती आई है कहीं वह व्यापार जगत की दुकान में तब्दील न हो जाए. यह सबके सामने है कि सत्तर साल में रेलवे के आधारभूत ढांचे पर रात दिन काम हुआ है. दुनिया के तमाम सेठों की नजरें इस भारी भरकम संपत्ति पर होना स्वाभाविक है. लेकिन भारतीय रेलवे को अब तक दुकान में तब्दील करने लायक हालत नहीं बनी थी. उसे जनहित का एक उपक्रम बनाकर ही रखा गया था. लेकिन अब जैसे लक्षण दिख रहे हैं उससे लगता है कि कहीं यह बातें न उठवाई जाने लगें कि रेलवे को निजी क्षेत्र को ही क्यों न सौंप दिया जाए. और तब यह भी हो सकता है कि भारतीय लोकतंत्र में एक कल्याणकारी राज्य के जो लक्षण अभी तक हमें दिखाई दे रहे थे वे लक्षण भी खत्म होने लगें. इसीलिए यह सवाल उठता है कि विदेशी निवेशकों के लिए रेलवे को मुनाफेदार दिखाने के मकसद से रेल किराया बढ़ाने के फैसले से जोड़कर क्यों नहीं देखा जा सकता?

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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