देश में भयावह सूखे के बाद अब बाढ़ का अंदेशा खड़ा हो गया है। मौसम विभाग ने खुशफहमी के चक्कर में इस साल बारिश के अनुमान को जिस तरह प्रचारित किया है उससे विशेषज्ञों के बीच खुशी की बजाए बाढ़ का डर ज्यादा बैठ गया है। पिछले साल के मुकाबले इस साल 28 फीसदी ज्यादा पानी बरसने का अंदाजा है। यानी इस साल सामान्य से नौ फीसद ज्यादा पानी बरसने का अनुमान है। एक दो साल से केंद्रीय जल आयोग में क्या हलचल है? इसका आजकल कुछ पता नहीं चलता। लेकिन राज्यों में बाढ़ नियंत्रण विभागों के अफसर जरूर चिंतित हो रहे होंगे। यह अलग बात है कि ऐन मौके पर कर वे भी कुछ नहीं कर सकते। इस साल तो देश में चौतरफा आर्थिक तंगी के कारण बड़े राज्यों में बाढ़ नियंत्रण के पारंपरिक उपाय भी नहीं किए जा सके। न उतना पैसा था और न कुछ करने का समय बचा था।
बाढ़ नियंत्रण का काम भूल जाना मंहगा पड़ेगा
देखने में आ रहा है कि केंद्र सरकार वे सारे काम अपने कंधों से उतारती जा रही है जिससे उसकी छवि निर्माण का काम न होता हो। बाढ़ नियंत्रण का काम छूट जाना उनमें एक है। हालांकि प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले नुकसान और हाहाकार से बचाव की जिम्मेदारी पर अदालत इसी साल केंद्र सरकार पर दबिश दे चुकी है। इसके बावजूद मौजूदा केंद्र सरकार का रवैया यही प्रचार करने का है कि यह काम राज्यों का है। जबकि यह बात खुलकर सामने आ चुकी है कि देश में किसी भी राज्य सरकार की माली हालत ठीक नहीं है। योजना आयोग के खात्मे के बावजूद राज्य सरकारें आज भी मानकर चल रही हैं कि प्राकृतिक आपदाएं राष्ट्रीय प्रकार का संकट होती है लिहाजा केंद्र सरकार से ही राहत की रकम मिलेगी। कुल मिलाकर बाढ़ नियंत्रण के लिए राज्य सरकारों के खर्च पिछले दो साल से घटना शुरू हो गए हैं।
कितना बड़ा होता जा रहा है यह काम
सरकारी आंकड़ों को सामने रखकर हिसाब लगाएं तो उससे यह पता चलता है कि देश में अस्सी के दशक के बाद से हर दूसरे साल बाढ़ की समस्या आने लगी। लगभग तभी से सूखे की आवृत्ति बढ़ी। और उससे भी बड़ी चौंकाने वाली बात यह कि उसी साल सूखा और उसी साल बाढ़ की स्थितियां बनने लगीं। सन 2016 का यह साल तो एक ही साल में सूखे और बाढ़ का जीता जागता प्रमाण बनने जा रहा है। हमारे मौजूदा जल कुप्रबंध का इससे बड़ा और जिंदा सबूत और क्या हो सकता है।
होता क्या था पहले
वैसे तो अंग्रेजों के समय से ही बाढ़ नियंत्रण की व्यवस्था बनाई गई है। आजादी के बाद प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की प्राथमिकता सूची में जल प्रबंधन का काम नंबर एक पर था। बड़े-बड़े बांधों की नींव रखने से लेकर उनके उद्घाटन उन्हीं के हाथों हुए थे। बढ़ती आबादी का हिसाब लगाकर सत्तर के दशक में तबकी सरकारों ने जल प्रबंधन के लिए बांधों की परियोजनाओं की रफ्तार बढ़ाने का फैसला किया था। लेकिन तब तक देश में चुनावी राजनीति की स्थितियां इतनी तेजी से बदलने लगीं कि तत्कालीन सरकारों की आलोचना का आधार बांध परियोजनाओं को भी बना लिया गया। टिहरी बांध उनमें एक था। जैसे तैसे टिहरी बना। लेकिन राजीव गांधी को इसके कारण इतना राजनीतिक विरोध झेलना पड़ा कि अगर उनकी हत्या न भी हुई होती तो शायद वे बाद के सालों में खुलकर जल प्रबंधन पर उसी तरह से काम न कर पाते। पिछले दशक में यूपीए-एक और यूपीए-दो की सरकारें भी बांधों के राजनीतिक विरोध के कारण मंजूरशुदा बांध परियोजनाओं को चालू करने में हमेशा हिचकती ही रहीं। फिर भी देश में उपलब्ध पुराने बांधों के रखरखाव के जरिए साल दर साल स्थितियों को संभाले रखा गया। साथ ही जहां-जहां जल प्रबंधन परियोजनाएं बन सकती थीं उन्हें सोचकर मंजूरियां देने का काम भी होता रहा।
अस्सी के दशक तक क्या-क्या जान चुके थे हम
सेंटर वॉटर कमीशन, वाटर एंड लैंड डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट, उप्र के सिंचाई विभाग के अनुसंधान व नियोजन खंडों और स्वयंसेवी संस्था सेंटर फॉर सांइस एंड एनवायरानमेंट के गंभीर अध्ययनों से हम जान चुके थे कि भारतवर्ष में आने वाले दिन गंभीर जल संकट होगा। उसी समय से देश के भावी परिदृश्य को देखा जाने लगा था। चालीस साल पहले ही 2025 के लिए विजन डाक्यूमेंट बनने लगे थे। मसलन अस्सी के दशक में उप्र में प्रदेश के सिंचाई मंत्री लोकपति त्रिपाठी, सिंचाई सचिव एके दास और प्रमुख अभियंता एसआई अहमद के बीच होने वाली बैठकों को जो लोग याद कर सकते हों वे बता सकते हैं कि जल संकट के सारे अंदेशों के बावजूद उप्र अगर किसी हादसे से बचा रहा तो कैसे बचा रहा। और नई सदी के पहले दशक में बुंदेलखंड को लगातर आठ साल सूखा झेलना पड़ा तो क्यों झेलना पड़ा।
बुंदेलखंड को सात हजार करोड़ का पैकेज क्यों मिला था
पांच साल पहले की ही बात है कि यूपीए सरकार ने बुंदेलखंड को सात हजार करोड़ का पैकेज सूखे की मार के बाद ही दिया था। देश में पैसे की किल्लत तब भी थी। लेकिन जितनी भी समितियां बनाई गई थीं उन्होंने बुंदेलखंड में पानी के बिना कुछ भी न हो पाने की बात कही थी। और जब हिसाब लगा तो पाया गया कि उसे कम से कम दस हजार करोड़ की राहत फौरन चाहिए। कहने वाले कुछ भी कहते रहें लेकिन अगर बुदेलखंड को तब वह केंदीय मदद न मिली होती तो बुंदेलखंड की वैसी हालत तभी हो गई होती जैसी आज है।
बुंदेलखंड को अब प्रकृति से राहत की उम्मीद
बुंदेलखंड में इतने हाहाकार के बावजूद उसके लिए इस साल प्रकृति से राहत की एक आस दिख रही है। वहां उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में जल प्रबंधन का जो पुराना काम हुआ है उसके हिसाब से इस साल की अच्छी बारिश में सारे बांध और तालाब भरे दिखाई देंगे। यह अलग बात है कि उप्र की मौजूदा सरकार अगर दो-तीन साल पहले से इतनी संजीदा हो जाती तो कम से कम एक हजार प्राचीन तालाबों का जीर्णोद्धार वह और करवा सकती थी और खुद को इतिहास में दर्ज करवा सकती थी। अगर वैसा हो जाता तो इस साल की अच्छी बारिश में वे हजारों तालाब अगले साल तक की पानी की जरूरत को पूरा करने में सक्षम हो सकते थे। इस सिलसिले में उप्र सरकार की मौजूदा मुस्तैदी पर यह टिप्पणी की जा सकती है कि दुरुस्त आयद, लेकिन देर आयद। खैर, इस साल मानसून में नहीं तो मानसून के बाद पुराने तालाबों के जीर्णोद्धार की ऐतिहासिक योजना देशभर में हलचल मचा रही होगी। दूसरे राज्यों और केंद्र सरकार के लिए यह योजना उदाहरण बन सकती है। सिर्फ यही नहीं बुंदेलखंड में बेतवा नदी पर निर्माणाधीन एरच बांध का काम जिस रफ्तार से चल रहा है वह देश में उप्र सरकार का जयकारा सुनवा सकता है। बस अंदेशा एक ही है कि कहीं उप्र सरकार को इस साल बाढ़ की तबाही से निपटने के काम में न उलझना पड़े।
(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं)
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This Article is From Jun 02, 2016
बाढ़ का आगा-पीछा-1 : पहले सूखा और अब इसी साल बाढ़ का भी अंदेशा
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:जून 02, 2016 19:41 pm IST
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Published On जून 02, 2016 19:32 pm IST
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Last Updated On जून 02, 2016 19:41 pm IST
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