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This Article is From Jan 06, 2016

अमिताभ बच्‍चन : खुद को तलाशता एक 'वजीर'

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 07, 2016 10:14 am IST
    • Published On जनवरी 06, 2016 16:26 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 07, 2016 10:14 am IST
'फिलहाल मैं तो कोई भी फिल्म नहीं बना रहा हूं। हां, मेरा बेटा जरूर एक फिल्म बना रहा है। तुम चाहो तो उससे मिल सकते हो। लेकिन वह तुम्हें पैसे नहीं दे सकेगा।' 'मैं आपके पास काम मांगने आया हूँ, पैसे नहीं।' यश चोपड़ा की सलाह पर यह 'वजीर' फिल्म में लकवाग्रस्त ग्रैंडमास्टर पंडित ओंकरनाथ धर बने एक्टर का जवाब था। यहीं से फिल्म 'मोहब्बतें' की जो दूसरी पारी शुरू हुई, उसने इस अभिनेता को न केवल लोकप्रियता के ही, बल्कि अभिनय के शिखर पर पहुंचा दिया। (सीएम केजरीवाल ने बिगबी और फरहान के साथ देखी 'वजीर')

विदेशों में खुद को 'रीइन्‍वेन्‍ट' करते हैं लोग
जी हां, मैं अमिताभ बच्चन की ही बात कर रहा हूं। आस्ट्रेलिया में एक साल तक पढ़कर आने के बाद मेरे एक आईएएस दोस्त ने वहां के लोगों के बारे में एक विचित्र बात बताई थी। वह यह, कि वहां के अधिकांश लोग दो-तीन साल के बाद अपना काम छोड़-छाड़कर कहीं निकल जाते हैं- बिल्कुल ही नई जगह। एकाध साल के बाद लौटकर फिर वे एक बिल्कुल ही ऐसे काम में लगते हैं, जिसका पहले वाले काम से कोई संबंध नहीं रहता। 'वे ऐसा पागलपन क्यों करते हैं,' मेरे इस प्रश्‍न का उत्तर उन्होंने इस वाक्य में दिया था कि 'वे ऐसा कर-करके खुद को 'रीइन्वेन्ट करते रहते हैं।'

ज्‍यादातर फिल्‍मों में बिगबी ऐसा ही करते हैं
'रीइन्वेन्ट' यानी पुनर्खोज। खुद की फिर-फिर से तलाश करना। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमिताभ बच्चन भी अपनी अधिकांश फिल्मों में ऐसा ही करते रहते हैं। और यही उनकी वह शक्ति है, और जिजीविषा भी कि जहां ऋषि कपूर और धर्मेन्द्र जैसे पुराने एक्टर सामान्य सी भूमिकाओं में खुद को दुहरा-दुहराकर पर्दे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं, वहीं अमिताभ लगातार उसी पर्दे पर नये-नये अवतारों में अवतरित हो रहे हैं।

कलात्‍मक प्रतिबद्धता के कारण कर पाते हैं ऐसा
यह नित नयापन कोई आसान काम नहीं है। वैसे शिखर पर पहुंचना भी कोई आसान तो नहीं है। पहुंचकर वहां लम्बे समय तक बने रहना पहुंचने से भी अधिक कठिन है। अमिताभ यदि यह सब कर पा रहे हैं, तो केवल अपने इसी जीवन-दर्शन और कलात्मक प्रतिबद्धता के कारण कि 'खुद को लगातार ढूंढते रहे। कुछ न कुछ नया जरूर मिलेगा।'

'पा' से हुई इस पुनर्खोज की शुरुआत
उनके इस पुनर्खोज की शुरुआत दिखाई देती है फिल्म 'पा' में उनकी प्रोजेरिया की बीमारी से ग्रस्त एक बच्चे की अद्भुत भूमिका से। 'ब्लैक' में वे एक सनकी शिक्षक (फिल्म 'मोहब्बतें' के शंकरनारायण का एक अन्य रूप) बने, तो 'सरकार' में 'गॉड फादर'। एक मजेदार बात यह भी है कि वे जहां 'भूतनाथ' के भूत हैं, तो 'अलादीन' के जिन्न भी। यह बात काफी गौर करने की है कि लगभग चालीस साल पहले की फिल्म 'शोले' में जिन्होंने जिस पेशेवर बदमाश की भूमिका निभाई थी, जब राम गोपाल वर्मा ने उसका रीमेक बनाया, तो उन्होंने इसमें अपनी इस भूमिका को फिर से जीने की बजाय गब्बर का रोल स्वीकार किया। 'पीकू' का वह विचित्र बंगाली अभी भी लोगों के जेहन में चहलकदमी करता रहता है।

73 साल का यह यंग एक्टर आज भी सुबह-सुबह जिम जाता है। सारे आधुनिक गेजेट्स उनके उपयोग में होते हैं। और उनके अनुशासन का तो कोई जवाब ही नहीं है। हम उनके इन कामों को 'स्वयं की पुनर्खोज' करते रहने का बीज मान सकते हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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