ग्लायफोसेट (GLYPHOSATE), इसके बारे में जान लीजिए. दुनिया के हर मुल्क की तरह भारत में भी इसका इस्तेमाल ख़ूब हो रहा है. यह एक प्रकार का रसायन है जिसका इस्तेमाल खर-पतवार नाशक के तौर पर होता है. इसे बनाने वाली कंपनी का नाम है मोंसांटो. अमरीका में इस कंपनी के ख़िलाफ़ 4000 से अधिक मामले दर्ज़ हो चुके हैं. कई तरह की जांच से साबित हो गया है कि यह कैंसर फैलाता है मगर किसान इसके इस्तेमाल के लोभ से नहीं बच पाते हैं.
डाउन टू अर्थ पत्रिका इस पर लगातार लिखती रहती है. 16-31 जुलाई वाले अंक के लिए वर्षा वार्ष्णेय ने कवर स्टोरी लिखी है. मैं इसी रिपोर्ट के आधार पर हिन्दी में आपके लिए लिख रहा हूं. हिन्दी के पाठकों का दुर्भाग्य है कि उनकी मेहनत की कमाई का हज़ार रुपये लेकर चैनल और अख़बार ऐसी जानकारी नहीं देते हैं. आप कब हिन्दी के अख़बारों को आलोचनात्मक नज़र से देखेंगे पता नहीं. डाउन टू अर्थ हिन्दी में भी आता है, जहां इन सब बातों पर विस्तार से रिपोर्ट छपती है. कई बार लगता है कि हिन्दी का पाठक ख़ुद को मूर्ख और अनजान बनाए रखने के लिए हिन्दी के अख़बारों को सब्सिडी देता है.
भारत के किसान भी कपास और सोयाबीन की खेती में इसका ख़ूब इस्तेमाल करते हैं. यवतमाल के किसान कहते हैं कि इसके बिना खेती नहीं कर सकते हैं. हाथ से खर-पतवार निकालने के बजाए इस रसायन का इस्तेमाल करना पंसद करते हैं. वर्ना खेती की लागत तीन गुनी हो जाएगी. खेती के अलावा रेल ट्रैक, पार्क, जलाशयों में खर-पतवार को साफ करने में यह इस्तेमाल होता है. फ़सलों की कटाई से पहले भी इसका छिड़काव किया जाता है.
1974 से मोंसांटो बना रही है जिसे इस साल जून में जर्मन कंपनी बेयर ने ख़रीद लिया है. दुनिया भर में इसका इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है. शुरूआत हुई थी चाय के बाग़ानों में छिड़काव से. मगर किसान अवैध रूप से इसका इस्तेमाल दूसरी फसलों में भी करने लगे हैं. किसान फसलों को प्लास्टिक की चादरों से ढंक देते हैं और उसकी जड़ों के आस-पास छिड़काव करने लगते हैं ताकि खर-पतवार साफ हो जाए. किसान दूरगामी परिणामों की सोचेगा तो तुरंत फायदा नहीं होगा. इसलिए वह इसके इस्तेमाल के लिए बाध्य हो जाता है. भारत में इस पर नज़र रखने के लिए Directorate of Plant Protection, Ouarantine and Storage नाम की संस्था है जिसके अनुसार भारत में भी इसका इस्तेमाल काफी बढ़ चुका है. भारत में इस रसायन को लेकर दर्जनों दवाइयां बिक रही हैं. इनमें सबसे लोकप्रिय राउंडअप है. यह सब डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट से ही लिख रहा हूं.
ऐसा नहीं है कि किसानों को इसके ख़तरे का पता नहीं है. पिछले साल यवतमाल में छिड़काव के दौरान संपर्क में आने से 23 किसान मारे गए थे. यवतमाल के अस्तपाल के डाक्टर ने भी कहा है कि इस केमिकल के असर में आए कई मरीज़ आते रहते हैं. ग्लायफोसेट के कारण किडनी और लीवर भी नष्ट हो जाता है. न्यूरो की बीमारियां होने लगती हैं. कैंसर तो होता ही है. और भी कई बीमारियों का ज़िक्र है जिसके लिए आपको यह रिपोर्ट पूरी पढ़नी चाहिए. मैं शब्दश: अनुवाद नहीं कर रहा हूं.
फ्रांस के मोलिक्यूलर बायोलॉजिस्ट Gilles-Eric Seralini ने गहन अध्ययन किया है, उनके अनुसार इस रसायन को तुरंत ही बैन कर देना चाहिए. मगर कंपनी अपनी तरफ से रिसर्च में फ्रॉड कर इन बातों को दबा देती है. कंपनी ने अरबो डॉलर ख़र्च कर वैज्ञानिकों और सरकारों के मुंह बंद किए हैं. भारत में इसके असर पर कम अध्ययन हुआ है. मगर गांव गांव में कैंसर फैल रहा है यह बात किसान भी जानते हैं. उनके बीच से भी किडनी फेल होने की बीमारी बढ़ रही है.
2014 में श्रीलंका ने इसे बैन कर दिया. वहां किडनी नष्ट होने के बहुत सारे मामले सामने आने लगे थे. धान के किसान इसकी चपेट में आए. इसके इस्तेमाल से पानी ज़हरीला हो गया. जून 2018 में बैन हटा लिया गया क्योंकि चाय बाग़ानों के मालिक दबाव डालने लगे और बताने लगे कि अरबों डालर का नुकसान हो रहा है. थाईलैंड में भी रबर, ताड़ के तेल और फलों में इस्तेमाल होता है. वहां के किसान भी सरकार पर दबाव डालते हैं कि इसके इस्तेमाल पर अंकुश न लगाया जाए. यूरोपीयन यूनियन ने भी इसी दबाव के कारण इस रसायन के लाइसेंस को पांच साल के लिए बढ़ा दिया है. खेल यह है कि मोंसांटो का नाम बदनाम हो चुका था. इसलिए बेयर कंपनी ने इसे अपने नाम से बेचने का फैसला किया है. डाउन टू अर्थ की इस रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि इसके बावजूद अनेक रिसर्च में इस रसायन से कैंसर होने और लीवर और किडनी नष्ट होने की बात की पुष्टि हुई है.
26 मार्च 2018 को महाराष्ट्र के यवतमाल ज़िले के कृषि विभाग ने Director, quality control, Pune को लिखा कि यवतमाल में तो चाय बाग़ान नहीं हैं फिर यहां इस्तेमाल क्यों हो रहा है. हम अपने अधिकार क्षेत्र में इस नुकसानदेह रसायन का इस्तेमाल नहीं चाहते हैं इसलिए आप इस पर रोक लगाएं. वहां इसकी बिक्री पर अंकुश तो लगा है मगर किसान दूसरे ज़िले से ख़रीद कर ला रहे हैं. आंध्र प्रदेश भी इसके इस्तेमाल को कम करने के लिए प्रयास कर रहा है. मगर कई अड़चनें ऐसा होने नहीं दे रही हैं.
अब आते हैं एक दूसरी ख़बर पर. डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट भी इसी ख़बर से शुरू होती है मगर तब तक कोर्ट का आदेश नहीं आया था. अमरीका की सैन फ्रांसिस्कों की अदालत ने ग्लायफोसेट बनाने वाली कंपनी मोंसांटो पर 289 मिलियन डॉलर जुर्माना देने का फैसला सुनाया है. इस केस का ट्रायल काफी लंबा चला है. जजों ने एक एक बात को समझा है. वैज्ञानिक रिसर्च पर ग़ौर किया है और यह भी देखा है कि मोंसांटो उन बातों को छिपाने के लिए क्या क्या जुगाड़ करता है. आप गार्डियन अख़बार की रिपोर्ट पढ़ सकते हैं. इंटरनेट पर है.
46 साल के एक माली ने केस न किया होता तो इस कंपनी को इतना बड़ा दंड न मिलता और दुनिया के सामने इसकी सच्चाई सामने नहीं आती. एक स्कूल में काम करने वाला यह माली खर-पतवारों को मिटाने के लिए मोंसांटो के बनाए राउंडअप रसायन का छिड़काव करता था. उसे भयंकर किस्म का कैंसर हो गया. उसने मोंसांटो के ख़िलाफ़ मुक़दमा लड़ा और इस रसायन के असर को दुनिया भर में छिपाने के खेल का पर्दाफ़ाश कर दिया. अफसोस उस भयंकर बीमारी से माली बहुत दिनों तक नहीं बच सकेगा मगर उसने अपनी ज़िंदगी अरबों लोगों के नाम कर दी है जिनके बीच के लाखों लोग हर साल कैंसर के शिकार हो रहे हैं. और उन्हें लगता है कि यह सब राहु केतु की वक्र दृष्टि से हो रहा है.
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This Article is From Aug 12, 2018
क्या हमारे किसानों को ग्लायफोसेट के असर का अंदाज़ा है?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 12, 2018 19:19 pm IST
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Published On अगस्त 12, 2018 19:18 pm IST
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Last Updated On अगस्त 12, 2018 19:19 pm IST
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