बिहार विधानसभा चुनाव की टिक-टिक शुरू हो चुकी है. कयास लगाए जा रहे हैं कि चंद दिनों बाद ही चुनाव आयोग चुनाव की तारीखों का ऐलान कर देगा. चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी की 'वोटर अधिकार यात्रा' को चुनावी गुणा-गणित के लिहाज से अहम कदम माना जा रहा है. 23 जिलों से होकर 1300 किलोमीटर का सफर तय करने वाली यह यात्रा सिर्फ 'वोटर लिस्ट' की खामियों के खिलाफ विरोध भर नहीं थी, बल्कि महागठबंधन के शक्ति प्रदर्शन का एक जरिया भी थी. राहुल गांधी के साथ सारथी भूमिका में दिखे तेजस्वी यादव जैसे प्रमुख नेताओं की मौजूदगी ने कांग्रेस को बिहार में फिर से खड़ा होने का मौका दिया.
राजनीतिक जमीन तलाशती कांग्रेस
राहुल गांधी की इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य बिहार में 'वोट चोरी' का मुद्दा उठाकर बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को घेरना था. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग के माध्यम से मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जा रहे हैं, जो एक बड़ी साजिश का हिस्सा है. इस आरोप को लेकर राहुल ने चुनाव आयोग पर निशाना साधा और बीजेपी-जेडीयू को कटघरे में खड़ा किया.
लेकिन ध्यान से देखें तो यह यात्रा सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसका एक स्पष्ट रणनीतिक लक्ष्य निहित था. यात्रा 110 से अधिक विधानसभा सीटों से होकर गुजरी, जिनमें से करीब 80 सीटों पर एनडीए का कब्जा है. यानी यात्रा के जरिए राहुल और तेजस्वी ने एनडीए के मजबूत गढ़ों में सेंध लगाने की कोशिश की. यह यात्रा कांग्रेस के लिए अपनी जमीन मजबूत करने का एक अवसर भी थी. 2020 के विधानसभा चुनाव में 70 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस इस बार सीट बंटवारे में अपनी स्थिति को मजबूत करना चाहती है.

वोटर अधिकार यात्रा 110 से अधिक विधानसभा सीटों से होकर गुजरी.
राहुल गांधी की व्यक्तिगत छवि पर प्रभाव
राजनीतिक विश्लेषण वोटर अधिकार यात्रा से राहुल गांधी की सियासत को संजीवनी मिलने की बात कह रहे हैं. राहुल गांधी ने जिस तरह वोट चोरी का मुद्दा उठाया है, उससे बाकि राज्यों में भी राहुल के अभियान को बल मिलेगा. एक तरफ, उन्होंने जमीन पर उतरकर लोगों से सीधा संवाद स्थापित किया, जिससे उनकी छवि एक गंभीर और मेहनती नेता के रूप में उभरी. 'भारत जोड़ो यात्रा' के बाद यह उनका दूसरा बड़ा अभियान था, जिसने यह साबित किया कि वे सिर्फ दिल्ली से राजनीति नहीं करते, बल्कि राज्यों में भी सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं.
हालांकि, यात्रा के दौरान एक विवादास्पद घटना ने उनकी छवि को काफी नुकसान पहुंचाया. दरभंगा में एक मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी दिवंगत मां हीराबेन मोदी को गाली दी गई. वीडियो वायरल होने के बाद बीजेपी ने इसे 'राजनीति की नीचता' और 'घृणा की राजनीति' करार दिया. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत कई बड़े नेताओं ने राहुल गांधी से माफी की मांग की. बिहार महिला आयोग ने इस घटना का स्वतः संज्ञान लेते हुए राहुल और तेजस्वी को नोटिस जारी किया. इस घटना ने यात्रा की सफलता पर पानी फेर दिया और कांग्रेस को रक्षात्मक मुद्रा में आने पर मजबूर कर दिया.
किसे होगा अधिक फायदा, राहुल या तेजस्वी
कहने को तो राहुल गांधी और तेजस्वी यादव इस यात्रा में साथ थे, लेकिन पूरी यात्रा में राहुल गांधी ही छाए रहे. तेजस्वी यादव को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं मिली, जबकि बिहार की राजनीति में उनकी मौजूदगी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. इस यात्रा ने कांग्रेस को आरजेडी की पिछलग्गू होने की छवि से बाहर निकालने का काम किया. अब कांग्रेस के रणनीतिकार लालू यादव के दरबार से नहीं, बल्कि अपनी सोच से पार्टी के कार्यक्रम तय कर रहे हैं.
तेजस्वी यादव ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार तक बताया, लेकिन राहुल गांधी ने बिहार में सीएम पद के चेहरे के सवाल पर चुप्पी साधे रखी. यह चुप्पी कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा मानी जा रही है. कांग्रेस गैर-यादव ओबीसी और सवर्ण वोटों को नाराज नहीं करना चाहती, जो तेजस्वी के नाम पर बिखर सकते हैं. इस रणनीति ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राहुल ने कांग्रेस को बिहार में 'ड्राइविंग सीट' पर ला दिया है?

राजनीतिक विश्लेषण वोटर अधिकार यात्रा से राहुल गांधी की सियासत को संजीवनी मिलने की बात कह रहे हैं.
ममता बनर्जी ने क्यों बनाई यात्रा से दूरी
'इंडिया ब्लॉक' के अन्य नेताओं का यात्रा में शामिल होना भी महत्वपूर्ण था. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने यात्रा में हिस्सा लिया. स्टालिन का आना महागठबंधन के लिए मिश्रित संकेत था. उनकी पार्टी के नेताओं द्वारा बिहार के लोगों के खिलाफ दिए गए आपत्तिजनक बयानों के कारण बीजेपी को महागठबंधन पर हमला करने का एक और मौका मिल गया. वहीं, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का शामिल होना महागठबंधन के लिए एक सकारात्मक संकेत था. उन्होंने अयोध्या की तरह मगध से भी बीजेपी को खदेड़ने की अपील की, जिससे बिहार के जातीय समीकरणों को साधने में मदद मिल सकती है. हालांकि, टीएमसी नेता ममता बनर्जी की इस यात्रा से दूरी भी दिखी. उन्होंने यात्रा में खुद शामिल होने के बजाय अपने प्रतिनिधियों को भेजा, जो 'इंडिया ब्लॉक' में उनकी अनिच्छा को दर्शाता है.
क्या उत्तर बिहार और मिथिलांचल में मजबूत होगी कांग्रेस?
कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 'वोटर अधिकार यात्रा' का रूट मैप बहुत सोच-समझकर तैयार किया था. यात्रा ने सबसे ज्यादा ध्यान उत्तर बिहार और मिथिलांचल के लगभग आधा दर्जन जिलों पर दिया, जिन्हें एनडीए का मजबूत गढ़ माना जाता है. इन इलाकों में दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा और मुस्लिम मतदाताओं की अच्छी खासी तादाद है, जिन पर कांग्रेस अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है. उदाहरण के लिए, मिथिलांचल के इलाकों जैसे दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, और चंपारण में कांग्रेस ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. इन क्षेत्रों की कई सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस पिछले चुनाव में दूसरे नंबर पर रही थी. यात्रा के जरिए पार्टी ने इन सीटों पर अपनी दावेदारी फिर से पेश करने की कोशिश की है.
कुल मिलाकर, राहुल गांधी की 'वोटर अधिकार यात्रा' ने बिहार में कांग्रेस और महागठबंधन को एक नई ऊर्जा दी है. यह यात्रा न केवल आगामी विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी माहौल बनाने में सफल रही, बल्कि इसने सीट बंटवारे में कांग्रेस की मोलभाव करने की शक्ति को भी बढ़ाया है. हालांकि, यात्रा के दौरान हुई विवादास्पद घटनाओं ने इसके सकारात्मक प्रभाव को कम किया है. पीएम मोदी और उनकी माँ पर की गई टिप्पणी ने बीजेपी को राहुल और तेजस्वी पर हमला करने का मौका दिया है. इसके अलावा, सीएम चेहरे को लेकर कांग्रेस की चुप्पी भी महागठबंधन के भीतर असंतोष पैदा कर सकती है.
यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस अपने दावे को कितनी मजबूती से रखती है और आरजेडी के साथ सीट बंटवारे को कैसे सुलझाती है. क्या यह यात्रा 2025 में वोटों में तब्दील हो पाएगी या सिर्फ एक राजनीतिक घटना बनकर रह जाएगी, इसका जवाब तो भविष्य ही देगा. लेकिन इतना तय है कि इस यात्रा ने बिहार की राजनीति में कांग्रेस को एक बार फिर से चर्चा में ला दिया है. और तेजस्वी यादव के सामने भी कुछ नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं.
अस्वीकरण: लेखक देश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं. वो राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.