'मैंने कहा आजादी...
मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली दौड़ रही थी.
मैंने कहा आजादी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर गया.
वहां कतार के कतार अनाज के अंकुए फूट रहे थे.
खेत की मेड़ पार करते हुए
मैंने एक बैल की पीठ थपथपाई...
सड़क पर जाते हुए आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई....'
(पटकथा : धूमिल)
आजादी की सत्तरवीं बधाई. बधाई देते समय उदास क्यों हुआ जाए? बधाई देने तक कोई दिक्कत नहीं है. बधाई देना और लेना शुभकामनाओं का शुभ लेन-देन है. मोबाइल का इनबॉक्स भरने लगा है. व्हाट्सएप पर तिरंगे से सराबोर संदेश आ रहे हैं, फॉरवर्ड होकर आगे चले जा रहे हैं. मन:अवस्था के इस बधाई-बिंदु तक कोई समस्या नहीं है. मन उल्लसित है. कौन अभागा इस दिवस पर उदास होना चाहेगा? बधाइयों से आगे जो सवालों के चौराहे हैं, कुछ बच्चे उन चौराहों पर तिरंगे बेच रहे हैं. सड़कों पर होर्डिंग्स खड़े कर दिए गए हैं. कुछ होर्डिंग्स पर केवल 15 अगस्त की इकहरी बधाई लिखी है. कुछ जो शायद एकल बधाई बाला होर्डिंग अफोर्ड नहीं कर पा रहे होंगे, उन्होंने अगले दो तीन-महीने के सभी त्योहारों की बधाई 15 अगस्त की बधाई के साथ मिक्स करके होर्डिंग पर डाल दी है. इस तरह अलग-अलग होर्डिंग लगाने की रस्मी रिवायत से एक साथ छुट्टी पा ली गई है.
नगर निगमों में चूना खरीद लिया गया है. 'विद्रोही' नालियों और नालों से निपटने की यह कारगर भारतीय पद्धति है. इस पद्धति में चूना डालकर नाली-नालों के किनारे-किनारे चूने की लंबी लकीर खींच दी गई है. इस प्रकार बदबू भी दब गई है. चूना भी लग गया है. चूने के प्रयोग में हम एक सिद्धहस्त समाज हैं. बड़े बड़े पंडाल लगा लिए गए हैं. मंच सज गए हैं. माइक और लाउडस्पीकर तैयार हैं. आजादी के मतवाले देशभक्तों की तस्वीरों को पोंछ-पांछ कर रख लिया गया है. फूल-मालाएं चढ़ने को तैयार हैं.
बात अब बधाई से आगे आ गई है. दिमाग झनझना रहा है. मन है कि उस चूने के पार जो बदबूदार नाले हैं, वहां चलकर बदबू को उसकी पूरी तीव्रता से नथुनों में भर लिया जाए. पलायन क्यों? यह मानने से हम कम राष्ट्रभक्त नहीं हो जाएंगे कि बदबू मौजूद है और चूने का प्रयोग जारी है. वो जो तिरंगे बेचते हुए बच्चे हैं, वो उन्हीं बदबूदार बस्तियों में ही रहते हैं. वो बच्चे जो 14 अगस्त की देर शाम तक झुण्ड बनकर शहरों के चौराहों पर छा जाते हैं, जो तिरंगे हस्तांतरित करते हैं और 16 अगस्त की सुबह से तिरंगा छोड़कर कुछ और बेचने लगते हैं. बच्चे कितने अच्छे हैं! उनके पास बेचने के लिए तिरंगा है! मैं बार-बार अपने गिरेबां में झांकता हूं. मैं क्या बेचता हूं!! इस प्रश्न से कतराकर निकल जाना चाहता हूं. गाडी की रफ़्तार थमते ही एक बच्चा गाड़ी के शीशे पर दस्तक देता है और एक तिरंगा दे जाता है.
तिरंगा जैसे फ्लैशबैक में जाने का एक जरिया हो. आधुनिकता ने स्मृतियों को सेल्फी में बदल दिया है. मैं तिरंगे को स्मृति में बदलकर 'सेल्फ' टटोल रहा हूं. नाले की बदबू जैसा ही एक तीव्र बदबूदार अपराध-बोध. मैं इस देश की 'जनता' हूं, तो धूमिल के शब्दों में 'कुहरे और कीचड़ से बना हुआ क्या एक शब्द' मात्र हूं? क्या एक 'भेड़' हूं, जो 'दूसरों की ठंड के लिए, अपनी पीठ पर उन की फसल ढो रही है.' मैं 'जनता' हूं तो साजिशों का हिस्सा क्यों हूं? मैं 'जनता' हूं तो नफरतों को क्यों सहारा दे रहा हूं। मैं क्यों बदहवास हूं? मैं क्यों मजहब के नाम पर पगला जाता हूं? अतार्किक उत्तेजनाओं के आक्रोश में, क्यों अपने ही पड़ोसी को मार देता हूं? मैं क्यों बुद्धिहीन नारों को अपनी आवाज सौंप दे रहा हूं? मैं क्यों उस अंधी शव-यात्रा का हिस्सा हूं, जो मुझे अनिवार्यत: इंसानियत के मरघटों तक ले जाती है और जहां लिखा है 'यह श्मशान है, यहां की तस्वीर लेना सख्त मना है.'
मैं क्यों उस जनतंत्र का हिस्सा हूं, जहां 'जिन्दा रहने के लिए घोड़े और घास को एक जैसी छूट है.' मैं चिल्लाकर क्यों नहीं बोलता, मुझे ऐसी 'श्रद्धा' मंजूर नहीं जो मुझे नेत्रहीन बना देती है. मैं सक्रिय हस्तक्षेप क्यों नहीं करता?
'मैं देखता रहा
देखता रहा
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफरत थी
मगर हर आदमी अपनी जरूरतों के आगे असहाय था
उसमें सारी चीजों को नए सिरे से बदलने की बैचेनी थी
रोष था
लेकिन उसका गुस्सा एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग, आंसू और हाय का.'
सहसा सड़क के किनारे बजता हुआ एक राष्ट्रभक्ति का गाना तंद्रा तोड़ देता है. एक बुरा सपना था. मेरे पास उदास होने का कोई कारण नहीं है. तिरंगा बेचते-बेचते बच्चे चौराहे से काफी आगे निकल गए हैं. सड़क के दोनों ओर बने घर रोशन हो गए हैं. इंडिया गेट जगमगा रहा है. मेरा भरोसा लौट रहा है. बच्चे के नन्हे हाथों से लिया हुआ तिरंगा मुस्करा कर हवा में खुद ही फहरा जा रहा है. मुझे कवि केदारनाथ अग्रवाल की ये पंक्तियां याद आ रही हैं
'सब देशों में, सब राष्ट्रों में
शासक ही शासक मरते हैं
शोषक ही शोषक मरते हैं
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती है.'
धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...
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This Article is From Aug 14, 2016
जश्न-ए-आजादी और स्मृतियों की सेल्फी
Dharmendra Singh
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 14, 2016 19:21 pm IST
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Published On अगस्त 14, 2016 19:21 pm IST
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Last Updated On अगस्त 14, 2016 19:21 pm IST
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