विज्ञापन
This Article is From Oct 06, 2015

दिलीप पांडे : देश के दर्द को बयां करती है दादरी की घटना

Dilip Pandey
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 06, 2015 20:43 pm IST
    • Published On अक्टूबर 06, 2015 19:02 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 06, 2015 20:43 pm IST
ये हिचक मेरे, आपके, और शायद हम सबके अन्दर होगी कि 29 सितम्बर की रात हुई दादरी की घटना को कैसे बोला, सुना और लिखा जाये। क्या इसे ऐसे कहा जाए कि एक गांव के आदमी को उसी गांव के लोगों ने मार डाला? या ऐसे लिखें कि एक निर्दोष को कुछ दोषियों ने मार डाला? पर असल सच हम सबको डराता है, क्योंकि जितना असहनशील और असहिष्णु हमारा समाज इस वक़्त हो चुका है हम ये कहने में भी डरने लगे हैं कि असल मुद्दा क्या है।

वाकई ये मुद्दा हिन्दू मुसलमान का नहीं है। एक धर्म से दूसरे धर्म के बैर का नही है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो अखलाक का परिवार 35 साल से उस गांव में कई हिन्दू पड़ोसियों के बीच में इत्मीनान से नहीं रह रहा होता, और ये अगर हिन्दू मुसलमान का मुद्दा होता तो गांव के हिन्दू परिवारों ने कई मुस्लिम परिवारों की जान अपनी जान दांव पर लगाकर नहीं बचाई होती। अखलाक की पड़ोसी शशि देवी और विष्णु राणा ने अखलाक के परिवार की 3 महिलाएं, 1 पुरुष और 1 बच्चे को अपने घर में शरण देकर उनकी जान बचाई थी। शशि देवी और विष्णु राणा रात भर अपने घर पर पहरा देते रहे थे ताकि अपने पड़ोसी के परिवार की हिफाज़त कर सकें। अगर गांव में हिन्दू मुस्लिम के नाम पर इतनी मार काट मची होती तो क्या ये परिवार उस सामूहिक निर्दयी ह्त्या का सहभागी न बन गया होता?

5 दिन पहले जब मीडिया में ये खबर फैली कि दादरी के एक गांव में एक निर्दोष की ह्त्या सैकड़ों लोगों ने सिर्फ इस अफवाह मात्र पर कर दी है कि उसके घर में बीफ खाया गया है, तो हममें से अधिकतर तो सुन्न हो गए। दंगाइयों ने अखलाक के बेटे को भी पीट पीट कर मौत के मुंह तक पहुंचा डाला। राजधानी से इतना नज़दीक ऐसा कैसे हो सकता है कि सैकड़ों की तादाद में लोग किसी के घर में घुसे, 2 लोगों को ईंट, सरिये, सिलाई मशीन से मारें और आस पास किसी पुलिस चौकी, प्रशासन, को इस बात की भनक भी न लगे?

ये वाकई मुमकिन नहीं है। आज अखबारों में जो खबर आई कि उस गांव के कई हिन्दू परिवारों ने वहां के एक संयुक्त मुस्लिम परिवार के 70 लोगों को सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचाया, और ऐसा करने में करीब 2-3 घंटे का वक़्त गया, तो इस बात का अंदाज़ा तो लग गया कि ये काम अचानक नहीं हुआ। मंदिर के स्पीकर से करायी गयी घोषणा और इस दुर्भाग्यपूर्ण ह्त्या में कई घंटे का वक़्त रहा होगा, तो क्या ऐसे में पुलिस, प्रशासन, और सरकार के कोई नुमाइंदे इस अनहोनी को रोक नहीं पाए? तनाव का माहौल तो बहुत आसानी से भांपा जा सकता है, इसके लिए हमारी पुलिस और प्रशासन को हमेशा मुस्तैद रहने की ट्रेनिंग दी जाती है, फिर इतना बड़ा दादरी कांड आखिर कैसे हो गया।

इस बात का जवाब ढूंढने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना पड़ा, क्योंकि जिन लोगों हाथों से इसकी रूपरेखा तैयार हुई उन्हीं की तेजाबी जुबान अपने अन्दर पल रहे हेय और नफरत को छिपा नहीं पायी। भाजपा के महेश शर्मा जो कि इस इलाके से ही सांसद हैं, उन्होंने पीड़ित परिवार के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने में कोई कसर नहीं छोड़ी। महेश शर्मा ने कभी इस घटना की वजह 'ग़लतफ़हमी' बताई तो कभी इसे एक 'दुर्घटना' करार दे दिया। महेश शर्मा यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने बार-बार यही कहा कि ये ह्त्या सिर्फ एक ग़लतफ़हमी के चलते हुई है, क्यों‍कि भीड़ इस बात पर गुस्साई थी कि परिवार बीफ का सेवन कर रहा है, इसलिए गुस्से में ये हो गया।

मतलब कि महेश शर्मा जी का मतलब है कि अगर अखलाक के घर में मिला मांस सच में ही गौ मास होता तो ये हत्या जायज़ होती? और जिस हत्याकांड को सैकड़ों लोगों ने अंजाम दिया वो गुस्से का नतीजा है? सैकड़ों लोगों को अपने-अपने घर में एक वक़्त पर इतना तेज़ गुस्सा आ गया कि वो इंसानी चोले से निकलकर भेड़िये की खाल में आ गये और एक घर में घुसकर मासूम लोगों को बेदर्दी और बेरहमी से पीट पीट कर मार डाला?

लेकिन आज पूरा मामला लगभग साफ़ हो गया है। ये साफ़ है कि इखलाक ने अपनी जान गंदी साम्प्रदायिक राजनीति की भेंट चढ़कर गंवाई है। महेश शर्मा की अध्यक्षता में एक महापंचायत का आयोजन भी इसी गांव में हुआ। मीडिया और पीड़ित परिवार को भाजपा का नाम न लेने के लिए धमकाया भी गया। इसी क्रम में शक साम्प्रदायिक राजनीति की ओर इसलिए जाता है कि हत्या के 2 दिन बाद जैसा कि मंदिर के पुजारी ने बयान दिया था कि उन्हें ये घोषणा करने के लिए 2 युवकों ने ज़बरदस्ती धमकाया था, वो दोनों युवक आज पुलिस ने गिरफ्तार कर लिए हैं। और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आरोपियों में से एक विशाल राणा, भाजपा नेता संजय राणा का बेटा है और दूसरा आरोपी शिवम है। ऐसे 7 आरोपी हैं जिनका सम्बन्ध बीजेपी से है, ऐसा मीडिया के हवाले से पता चला है।

ये मामला कहीं किसी तरह से हिन्दू मुसलमान का मामला नहीं था। हमारे देश के आम हिन्दू और आम मुसलमान आज भी हर मोहल्ले, हर बस्ती में एक दूसरे के संग प्रेम और सद्भावना से रहते हैं। कांवड़ यात्रा के दौरान कई कई गांवों में इतने दिनों मुस्लिम भाई शरबत और फल बांटते दिखते थे। वहीं गणेश चतुर्थी के पंडालों में कई जगहों पर नमाज़ पढ़ी गयी थी।

दुःख की बात है कि देश के प्रधानमंत्री ने देश को शर्मसार करने वाली इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर अपने होठ सिल लिए, उन्होंने पीड़ित के परिवार को सांत्वना के 2 बोल कहना तो दूर, पर जान गंवाने वाले निर्दोष अखलाक की ऐसी दिल दहलाने वाली हत्या पर एक शब्द नहीं कहा। वही प्रधानमंत्री जो लगभग हर बात पर बोलते हैं। क्रिकेट से लेकर, फुटबॉल पर बोलते हैं, फेसबुक के बारे में बोलते हैं, सेल्फी के बारे में बोलते हैं, और तो और इस मामले पर सबसे शर्मसार बयान देने वाले महेश शर्मा के जन्मदिन पर भी घटना के 2 दिन बाद ही ट्विटर पर ट्वीट करके मुबारकबाद दी।

इस दौर की सरकारों के चलन ने भी शर्मसार किया है। महाराष्ट्र में मीट पर बैन, तो किसी कॉलेज कैंपस में लेगिंग्स पहनने पर बैन या किसी के विरोध पूर्ण ट्वीट या फेसबुक पर बैन या जेल, क्यों? यकीन मानिए जिस दिन से सरकारें तय करने लगें कि हमें क्या खाना, क्या पहनना और क्या बोलना चाहिए, समझें उस दिन से लोकतंत्र के पतन की उल्टी गिनती शुरू। इस दौर-ए-सियासत में इन मुद्दों पर आत्मचिंतन बेहद ज़रूरी हो गया है।

यह दौर खतरनाक है, जहां सियासतदां नफ़रत के औज़ार का इस्तेमाल कर, खौफ़ की ज़मीन पर अपना सियासी क़ारोबार चला रहे हैं। देश को संभालना होगा। और अब तो ये आलम है कि हथियारों की, षडयंत्रों की छोड़िये, यहां स्थापित राजनीति में ऐसे बहुतेरे हैं जो अपनी ज़ुबानी तलवार से ही इंसान और इंसानियत दोनों का क़त्ल कर रहे हैं। जिन कंधों पर देश को सुरक्षित महसूस करवाने की ज़िम्मेदारी है वो नफरत के कारोबारियों का सहारा बने हुए हैं। भले लोगों की मुश्किल ये भी है कि अब चुप रहना ठीक है या ज़िम्मेदार आवाज़ों को और मुखर होना होगा? डर ये कि आप उन्हें उनके नापाक इरादों में कामयाब न कर दें।

ये सब वाकई शर्मनाक है। इस साम्प्रदायिक राजनीति की भेंट चढ़ता हमारा अमन और चैन एक बार अगर खो गया तो उसे वापस पाना फिर नामुमकिन होगा। वो मीट चाहे किसी भी जानवर का रहा हो, पुलिस के लैब टेस्ट की रिपोर्ट में आ जाएगा। लेकिन शाइस्ता के अब्बू अब कभी नहीं लौट कर आएंगे। इस देश की जनता इस नफरत की राजनीति के मुंह पर अपनी एकता और प्यार-विश्वास से करारा तमाचा मार सकती है। बहुसंख्यक वर्ग, अल्पसंख्यक के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझे। अगर कहीं इस राजनीति ने उनके दिल में कोई शंका पैदा की है, तो ये पूरे देश का फ़र्ज़ है कि अपनेपन और भरोसे से शंका को दूर करे। इस गन्दी साम्प्रदायिक राजनीति को हराकर ही हम जीत सकते हैं।

- दिलीप पांडे आम आदमी पार्टी के नेता हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
दादरी कांड, आशुतोष, बीफ पर राजनीति, भीड़ ने मार डाला, अखलाक, Dadri Incident, Dadri Beef Killing, Ashutosh, Politics Over Beef, Dadri Lynching, Ikhlaq
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com