कार्तिक का महीना पूरबी प्रदेशों के लोगों के लिए एक अलग तरह की कैफियत का महीना होता है. इन प्रदेशों के लोग दुनिया के किसी भी कोने में हों; दीपावली के बीतते ही उनके कानों में स्वतः ही छठ पूजा के गीत गूंजने लगते हैं. उनका हृदय अपने गांव-घर के लिए तड़पने लगता है. सिंदूर से जोड़ुआ मांग टीकी हुई, लाल सूती साड़ी पहने, कांपते भीगे बदन में सभी मौसमी फलों और ठेकुआ से भरा हुआ भारी सूप लेकर पानी में खड़ी अपने बच्चों के लिए प्रार्थना करती मां की छवि आंखों के सामने तैर जाती है. आंखें सजल हो जाती हैं. हृदय भावविह्वल हो जाता है. उस क्षण मां की स्मृति के प्रति नतमस्तक हो, हृदय कृतज्ञता से भर उठता है कि 'हम जो कुछ हैं, मां की तपस्या और प्रार्थनाओं की वजह से ही हैं.'
स्मृतियों का झुरमुट
भारतीय संस्कृति में त्योहार केवल उत्सव नहीं, बल्कि जीवन के संतुलन और समाज की सामूहिक चेतना के प्रतीक हैं. इन्हीं में से एक है छठ पर्व, सादगी, स्वच्छता, श्रद्धा और सूर्य उपासना का अद्भुत संगम. बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों से शुरू हुआ यह पर्व आज पूरे देश और विश्व के प्रवासी भारतीयों तक पहुंच चुका है. यह पर्व लोक जीवन की उसी मिट्टी की सादगी और श्रम की सुगंध को सहेजता है जो भारतीय समाज की आत्मा है. छठ का महापर्व पवित्रता, पावनता, निर्मलता, स्वच्छता और प्रार्थना का सामूहिक सांस्कृतिक आयोजन है. आज भी इस अवसर पर सामुदायिकता की भावना अत्यंत प्रखर हो जाती है. चार दिनों का यह महापर्व नहाय-खाए से शुरू होता है. उस दिन पवनैती स्नान आदि करके सात्विक भोजन का भोग लगाकर व्रत का संकल्प लेती हैं. अरवा चावल, चने की दाल और लौकी की सब्जी बनती है. मैंने देखा है कि मां अपनी रसोई के बगीचे से छठ पर्व करने वाले हर घर में लौकी जरूर भेजती थीं. यदि किसी साल लौकी बहुत ज्यादा नहीं हुई, यदि एक भी हुई तो उसके टुकड़े कर के आसपास के पर्व करने वाले घरों में जरूर भेजती थीं. छठ के कुछ दिन पहले ही सभी आटा चक्कियां धो कर साफ कर दी जाती हैं ताकि प्रसाद के लिए गेहूं की पिसाई हो सके. सभी कुम्हार मिट्टी का चूल्हा बनाकर तैयार रखते हैं. प्रसाद हर साल मिट्टी के नए चूल्हे पर ही बनता है. बांस का काम करने वाले डोम जाति के लोग सूप और पूजा में काम आने वाले अन्य चीजों को बनाकर तैयार रखते हैं. सामुदायिक भावना की ऐसी महिमा शायद ही किसी अन्य लोकपर्व में देखने को मिलेगी जैसी की छठ में मिलती है.

छठ महापर्व पवित्रता, पावनता, निर्मलता, स्वच्छता और प्रार्थना का सामूहिक सांस्कृतिक आयोजन है.
छठ के महापर्व में समाज के वंचित और तिरस्कृत समुदायों का पूरा सम्मान और स्वीकार्य है. बांस का काम करने वाली जाति, मिट्टी का काम करने वाली जाति- सबके सहयोग से ही यह पर्व पूरा होता है. यहां तक कि फलों में भी जिन फलों की रोजमर्रा के जीवन में उतनी प्रतिष्ठा नहीं है, उन्हें भी चढ़ाया जाता है. मसलन सुथनी को ही ले लें. मैंने सुथनी फल छठ के प्रसाद के अलावा कभी नहीं खाया. फलों में चुन-चुन कर सभी मौसमी फलों को चढ़ाया जाता है कि गलती से भी कहीं कोई फल छूट न जाए. इस तरह चाहे समाज के लोग हों या प्रकृति में होने वाले फल-फूल सभी की स्वीकृति का, सभी को साथ लेकर चलने का महापर्व है छठ.
छठ पर्व की लोककथा: प्रियव्रत और मालिनी की कथा
शायद प्राचीनकाल से भी पहले की बात है. स्वायंभुव मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत अपनी पत्नी मालिनी के साथ शासन करते थे. वे अत्यंत धर्मात्मा और न्यायप्रिय राजा थे. लेकिन संतान के बिना उनका जीवन दुखमय था. प्रियव्रत और मालिनी ने संतान प्राप्ति के लिए अनेक यज्ञ और व्रत किए, परंतु कोई फल नहीं मिला. अंततः उन्होंने मित्रावरुण यज्ञ करवाया. यज्ञ पूर्ण होने पर यज्ञ कुंड से एक दिव्य फल प्रकट हुआ. ऋषियों ने कहा कि यह फल रानी मालिनी को खिला दीजिए, उन्हें पुत्र प्राप्त होगा. रानी ने श्रद्धापूर्वक वह फल खा लिया. कुछ समय बाद उन्होंने एक मृत पुत्र को जन्म दिया. रानी शोक से व्याकुल हो गईं. वो बालक के शव को लेकर विलाप करने लगीं. राजा प्रियव्रत भी दुख में डूब गए. उन दोनों के दुख से द्रवित होकर देवी षष्ठी (छठी मइया) प्रकट हुईं. छठी मइया को सृष्टि की पालनहार और संतान की रक्षिका कहा गया है. देवी ने कहा, ''हे राजा, मैं षष्ठी देवी हूं, ब्रह्मा की मानस पुत्री. संसार के समस्त बालकों की रक्षा मेरा दायित्व है. यदि तुम मेरी पूजा करोगे, तो तुम्हें जीवित पुत्र रत्न प्राप्त होगा.'' राजा और रानी ने देवी की विधिपूर्वक पूजा-अर्चना की और उन्हें पुनः संतान प्राप्त हुई जो जीवित और स्वस्थ थी. राजा प्रियव्रत और रानी मालिनी ने इस अनुष्ठान को हर साल करने का संकल्प लिया. इसी घटना से 'छठ पर्व' की परंपरा की शुरुआत मानी जाती है. कहा जाता है कि इस दिन से ही मनुष्य ने सूर्य और षष्ठी देवी (छठी मइया) की संयुक्त आराधना प्रारंभ की.

छठ का प्रसाद हर साल मिट्टी के नए चूल्हे पर ही बनता है.
सूर्य और लोक जीवन का संवाद
भारतीय लोक परंपरा में सूर्य केवल देवता नहीं, बल्कि जीवनदाता हैं. किसानों के लिए वह अन्न के संरक्षक हैं, गृहस्थ के लिए स्वास्थ्य और ऊर्जा के स्रोत. जब छठ व्रती जल में खड़े होकर डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देती हैं, तब यह केवल पूजा की क्रिया नहीं होती, यह प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का एक जीवंत संवाद होता है. लोकगीतों में यह आस्था सुरों में ढल जाती है, ''कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए, छठी मइया घर अइलीं, सुगंध बयार बहाए.'' दरअसल श्रद्धा से परिपूरित छठ के सारे ही गीत मनुष्य और प्रकृति की पूरकता का महागान है.
स्वच्छता, अनुशासन और संयम का पर्व
छठ पर्व का सबसे बड़ा संदेश है- स्वच्छता और आत्मसंयम. घरों से लेकर घाटों तक की सफाई, मिट्टी से लीपा आंगन, दीयों की पंक्तियां- सब लोक जीवन में स्वच्छता और सुंदरता के सहज रूप हैं. व्रतधारी महिलाओं का कठिन उपवास- दो दिन तक निर्जला रहना, केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि शारीरिक और मानसिक शुद्धि का अभ्यास है. यह हमें सिखाता है कि आस्था का वास्तविक अर्थ आत्मिक-शुद्धि है. बिना आत्मिक शुद्धि और बाहरी स्वच्छता के कोई भी पूजा-प्रार्थना और अनुष्ठान सफल नहीं हो सकता. बाहरी स्वच्छता आंतरिक स्वच्छता की पहली शर्त है और छठ पर्व में इन दोनों का अद्भुत संतुलन देखने को मिलता है. कहना गलत न होगा कि छठ का महापर्व कई दिनों की कठिन तपस्या है, जिसमें न केवल छठ पूजा के तीन दिन, बल्कि उसकी तैयारी के दिनों में भी कठिन अनुशासन और संयम की जरूरत होती है.

छठ महापर्व में समाज के वंचित और तिरस्कृत समुदायों का पूरा सम्मान और स्वीकार्य है.
लोकधर्मिता और स्त्री-शक्ति का उत्सव
छठ में न अमीर-गरीब का भेद, न जाति का अंतर शेष रह जाता है. एक ही घाट पर सब मिलकर सूर्य को प्रणाम करते हैं. समानता और सामूहिकता की भावना ही छठ पर्व का मर्म है. छठ व्रत अधिकतर महिलाएं ही रखती हैं. स्त्री के धीरज, श्रद्धा, संयम, त्याग और सहनशीलता की अभिव्यक्ति इस कठिन पर्व में सहज ही देखी जा सकती है. व्रती स्त्रियों का करुणापूरित मन न केवल अपने परिवार, बल्कि पूरे समाज के कल्याण की प्रार्थना करता है. यह पर्व स्त्री-शक्ति और उसकी त्यागमय आस्था का प्रतीक है. व्रती महिला का चेहरा जब डूबते सूर्य की किरणों से दमकता है, तो उसमें भक्ति और आत्मबल दोनों की झलक दिखाई देती है. कभी-कभी पुरुष भी मनोकामना के पूरे होने पर इस व्रत को रखते हैं.
छठ पर्व का हर तत्व पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता सिखाता है. ठेकुआ, गुड़, गन्ना, नारियल, केला, फल आदि सब वस्तु प्राकृतिक और जैविक हैं. छठ पूजा के पारंपरिक स्वरूप में न पटाखे थे, न प्लास्टिक की सजावट, न शोरगुल. घाटों की सजावट केले के थम (तना) और कागज के पताकों से की जाती थी. मिट्टी, गोबर, भूसा, लकड़ी , बांस, फल और फूल इन्हीं चीजों से पूरे पर्व का आयोजन किया जाता रहा है. लोक जीवन का सिखाया हुआ सिद्धांत है कि प्रकृति की पूजा वही है, जिसमें उसे कोई क्षति न पहुंचे. घाटों की सफाई, जल की शुद्धता और मिट्टी की पूजा इस पर्व को हरित-संस्कृति का सुंदर उदाहरण बनाती है.

छठ में अमीर और गरीब का भेद मिट जाता है, सब एक ही घाट पर मिलकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं.
छठ पर्व की आत्मा हैं लोक गीत
रुनकी झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल पंडितवा दामाद छठी मइया दर्शन दींही ना आपन...
छठ पर्व का ध्यान आते ही बचपन में हर साल सुना जाने वाला यह गीत कान में बजने लगता है. इन पंक्तियों में रुनकी-झुनकी और पढ़ल-पंडित शब्द बार-बार आकर्षित करता रहा. और हर बार उसे समझने की दृष्टि बदलती रही. बचपन में इस शब्द को सुनते ही कल्पना में चुलबुली, स्वस्थ- सुंदर और सदैव प्रसन्न रहने वाली एक बालिका की छवि आंखों के सामने आ जाती थी. बड़े होने पर सवाल मन में आया कि आखिर रुनकी-झुनकी बेटी क्यों चाहिए? बेटी पढ़ी-लिखी क्यों नहीं चाहिए? उसी गीत में मां सूर्य देव से विद्वान दामाद की कामना करती है. पहली नजर में यह लग सकता है कि इस गीत में लैंगिक असमानता की बात कही गई है. लेकिन जब हम गहराई से इस गीत के मर्म को समझेंगे तो पाएंगे कि भारतीय समाज में जहां आज भी तमाम कानूनी एहतियात के बाद भी कन्या भ्रूण- हत्या जारी है. आज भी भारत में महिलाओं की संख्या पुरुषों से कम है, वहां एक स्वस्थ- प्रसन्न और सदैव आनंद में रहने वाली बेटी की कामना सूर्य देव से बकायदा डंके की चोट पर करना कहीं न कहीं छठ मनाए जाने वाले समाज में पुत्री की स्वीकृति और उसके प्रति प्रेम की घोषणा है. यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि मां सूर्यदेव से पढ़ल-पंडितवा दामाद की कामना करती है न कि अमीर और समृद्ध दामाद की. यहां भी लोकमानस की गहरी सोच काम करती है. ज्ञानी और विद्वान दामाद न केवल उसकी बेटी का भरण-पोषण करेगा बल्कि उसके व्यक्तित्व का सम्मान भी करेगा. यहां पर पांडित्य का तात्पर्य केवल बौद्धिक पांडित्य से नहीं वरन् जिसने जीवन के धर्म को समझा और जो आंतरिक- आध्यात्मिक यात्रा में भी अग्रसर हो.
कह सकते हें कि छठ पर्व के गीत इसकी आत्मा हैं. ये गीत किसी ग्रंथ में नहीं, लोक-स्मृति में बसे हैं. 'उग हे सूरज देव, अरघ देब तोहर नीर भरल अंचरा, मन मांगे उपहार'. इन गीतों में मां की ममता, धरती की सुगंध और जीवन के प्रति आशा का संगीत गूंजता है. यह वही लोक संगीत है जो कठिन उपवास के बीच भी मन को स्थिर और प्रसन्न बनाए रखता है. छठ पर्व का संदेश यही है कि जीवन का सार भव्यता में नहीं, बल्कि सादगी, श्रम और समरसता में है. धर्म और विज्ञान, परंपरा और पर्यावरण का अद्भुत संतुलन है यह पर्व.
अस्वीकरण: लेखिका मेधा दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में पढ़ाती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी हैं और उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.