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This Article is From Jul 30, 2016

‘सहस्राब्दि’ शहर गुड़गांव की समस्या की जड़ है बाईपास संस्कृति और जीवन-शैली

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 30, 2016 21:16 pm IST
    • Published On जुलाई 30, 2016 21:16 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 30, 2016 21:16 pm IST
दो घंटे की बारिश और दस घंटे जिंदगी बेहाल. सड़कें लबालब और बाईपास बेमानी. सैकड़ों वाहन और हजारों लोग अपनी कार में बैठे पूरी रात बिताने को मजबूर. काम-धंधे ठप्प. स्कूल-कॉलेज बंद. आईटी, ऑटो, मेडिकल, एजुकेशन, आउटसोर्सिंग इंडस्ट्री को करोड़ों की चपत. बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों, कॉल सेंटरों की धड़कन रुक जाने से विदेशों तक असर. मानो आधुनिक विकास और जीवन-शैली की धूरी ही टूट गई. इसी विकास और जीवन-शैली की कामना के साथ डिजाइन किए गए महज डेढ़ दशक के ‘सहस्राब्दि’ (मिलेनियम) शहर गुड़गांव (या अब भाजपा सरकार के तहत गुरुग्राम) ने जैसे हमारे आधुनिक विकास के मॉडल को ही डुबो दिया. यही नजारा बेंगलूरू, चेन्नै और मुंबई में भी दिख रहा है या दिख चुका है.

आखिर इसी विकास की नींव पर अगली सहस्राब्दि के स्मार्ट शहरों की कल्पना ही नहीं, योजना भी बनाई गई है. मौजूदा एनडीए सरकार ने 100 स्मार्ट शहर बनाने का ऐलान किया है जिसके दो चरणों की घोशणा भी हो चुकी है. यह योजना कितनी गंभीर है? उसमें कितने बजट का आवंटन हो पाया है? उसकी परियोजनाएं वाकई मूल कल्पना को साकार करने में कितनी सक्षम हैं? इसमें देश का कितना संसाधन खप सकता है? यह हमारे लिए मुफीद है या नहीं? इन सवालों को छूने से पहले आइए जरा यह देखें कि इस मॉडल की मौजूदा नाकामी से कैसा हाहाकार मचा और बाकी देश की हालत से उसका फर्क क्या है.

देश के राष्‍ट्रीय मीडिया के लिए तो यह इतना गंभीर विषय है कि वह लोगों की छोटी-छोटी तकलीफों को भी जगह दे रहा है और शहर के ड्रेनेज सिस्टम से लेकर ट्रैफिक व्यवस्था की बदइंतजामी पर विस्तार से चर्चा कर रहा है. सरकारें भी बेहद संजीदा हो गई हैं. केंद्र में बैठकें शुरू हो गई हैं तो हरियाणा की भाजपाई मनोहरलाल खट्टर सरकार ने फौरन शहर के पुलिस प्रमुख का तबादला कर दिया है और कमीश्‍नर से सवाल-जवाब किया जा रहा है. राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोप तो शुरू ही हो गया है. दिल्ली और हरियाणा सरकारें नालों की सफाई वगैरह को लेकर एक-दूसरे पर दोशारोपण कर रही हैं.

कुछ-कुछ ऐसा ही हंगामा हमारे ‘कॉस्मोपॉलिटन’ और ग्लोबल विकास के मॉडल मुंबई में बारिश से तबाही पर भी कुछ साल पहले से लगातार देखा जाता रहा है. इस साल बेंगलूरू और कुछ समय पहले चेन्नै में भी इसका भयावह रूप देखा गया है. यह अलग बात है कि अभी तक कोई स्थायी हल नहीं निकाला जा सका है और बरसात खत्म होते ही उसे शायद भूलकर आधुनिक जीवन के रंग-रोगन में मन रमा लिया जाता है. सवाल है कि क्या इतनी ही चिंता देश के बाढ़ पीड़ित दूसरे इलाकों के बारे में की जाती है या उन पर सरकारें इतना संजीदा हो पाती हैं?

फर्क जानना हो तो यह गौर कीजिए कि समूचा असम और पूर्वोत्तर हर साल की तरह बाढ़ से बेहाल है. असम में आदमी ही नहीं, जंगली जानवरों की भी शामत आई हुई है. मणिपुर में वाहनों की आवाजाही अवरुद्ध होने से पेट्रोल-डिजल करीब 300 रु. लिटर बिक रहा है. रसद की मारामारी है. लेकिन राष्‍ट्रीय मीडिया में ये खबरें ऐसे हाहाकार का वायस नहीं बनतीं. काजीरंगा में बाढ़ में तैरते गैंडों की तस्वीरें उच्च और मध्यवर्गीय ड्राइंगरूमों में कौतुहल और विस्मय का विषय बनती हैं. अमूमन यह मान लिया जाता है कि ये तो सामान्य समस्याएं हैं जिसकी वजह विकास और बाजार की गैर-मौजूदगी है. लेकिन गुड़गांव या ऐसे ही स्मार्ट शहरों का एक दिन के लिए भी बरसात और सड़क जाम से पस्त होना उसी नए विकास और वित्तीय पूंजीवाद का ठप्प होना है, जिसके लिए देश का कम से कम ऊपरी वर्ग लालायित है.

यह भी कह सकते हैं कि यही नजरिया आज हमारे शासक वर्ग का है. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कई बार यह जाहिर कर चुके हैं कि शहरीकरण की प्रक्रिया की रफ्तार रोकने से ही देश पिछड़ा रहा गया है. वे बार-बार कहते भी हैं कि देश की हर समस्या का समाधान है ‘‘विकास, विकास और विकास.’’ उनकी सरकार की योजनाएं भी शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज करने और ''कारोबारी सहूलियत'' बढ़ाने की ओर ही प्रेरित हैं. एफडीआई का हर क्षेत्र में उन्मुक्त प्रवाह, बड़ी परियोजनाओं के लिए पर्यावरण संबंधी मानकों में ढील देने और बड़े कारपोरेट के लाखों करोड़ के कर्जे माफ करने की प्रक्रिया उसी ओर जाती है. शुरू में भूमि अधिग्रहण और हर हाईवे के दोनों तरफ इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर परियोजनाओं पर भी जोर था लेकिन ये विरोध और चुनावी मजबूरियों की वजह से शायद टल गई हैं.

यह कहना मुनासिब नहीं है कि यह सिर्फ मौजूदा सरकार ही कर रही है. ये नीतियां नब्बे के दशक में उदारीकरण के दौर से ही जारी हैं और लगभग हर सरकार इस दिशा में तेजी से ‘सुधार’ करने का संकल्प जाहिर करती आई है. ये नीतियां देश में कितने लोगों के लिए माकूल हैं? या इसके लिए जितने संसाधनों की दरकार है, उसे वहन करने की देश में क्षमता है या नहीं? अभी इन बड़े सवालों में जाए बगैर यह देखना ही माकूल होगा कि शहरीकरण की प्रक्रिया से अब तक क्या हुआ है और शहरों की क्या हालत है? शहरीकरण की यह प्रक्रिया 2000 के बाद से जबसे तेज हुई है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चैपट होनी शुरू हुई है, शहरों में हर बारिश में हालात बुरे हो जाते हैं. थोड़ी-सी बारिश में भी शहरी नाले जवाब दे जाते हैं. इसके लिए अमूमन नगर योजनाकार, नीति-नियंता और मंत्री तक बेतरतीब और अनियोजित शहरीकरण को ऐसे दोशी ठहराते हैं, जैसे उनका इससे कोई लेनादेना न हों.

इस दौरान दिल्ली और उसके आसपास फरीदाबाद, गुड़गांव, नोएडा, गाजियाबाद में राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शहर बसाए जाने की.

प्रक्रिया पर जरा गौर करें. इन उपनगरों में कायदे की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली भी विकसित नहीं की गई और ऑटो उद्योग में तेजी लाने के लिए लोगों को निजी वाहन खरीदने को प्रेरित किया गया. अब हालत यह है कि देश के सभी महानगरों में वाहनों के कुल योग से यहां अधिक वाहन हैं. इसी तरह बिल्डरों को ऊंची-ऊंची इमारतें बनाने की छूट दी गई, यह ध्यान में नहीं रखा गया कि इससे शहर की ड्रेनेज, पानी वगैरह की व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा. विभिन्न इलाकों में जल निकासी के प्राकृतिक ढलानों और जल भराव क्षेत्रों को पाटकर उन पर मकान वगैरह बनाने की छूट दे दी गई. यह काम निजी बिल्डर ही नहीं, सरकारी निकायों ने भी किया. योजनाएं लोगों की सहूलियत और आबादी के दबाव को ध्यान में रखकर नहीं, कारपोरेट चमक-दमक कायम करने के लिए बनाई गईं. यानी लालच और अपनी लकदक जीवन-शैली की तलाश में हर कुछ से समझौता कर लिया गया.

अब उसके दुष्‍परिणाम दिखते हैं तो हमारे हाथ-पांव फूल जाते हैं. अगर वाकई गंभीरता से विचार किया जाए तो शहरीकरण और स्मार्ट शहर बनाने की प्रक्रिया पर नए सिरे से विचार किया जाना चाहिए. लेकिन जो निजाम सड़क जाम की मूल वजहों पर गौर किए बिना बाईपास और फ्लाईओवर बनाकर मूल समस्या को भूल जाने में ही उसका हल तलाशता हो, उससे शायद गंभीर विचार की उम्मीद कम ही बंधती है. साहित्य अकादमी से सम्मानित हिंदी कथाकार अल्‍का सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ में एक बिंब हमारी आधुनिक संस्कृति का है, जो समस्या से निजात पाने का तरीका बाईपास में तलाशती है. यह आधुनिक जीवन की बाईपास संस्कृति ही गुड़गांव जैसी समस्याओं की जड़ है.

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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