उपचुनावों के नतीजे : सांप-छछूंदर बन गए गले की हड्डी

फूलपुर में अगर प्रधानमंत्री मोदी का पुराना करिश्मा बचा रहता, अगर पिछला समर्थन भी बचा रहता तो सपा-बसपा मिलकर भी बीजेपी को हरा नहीं पातीं. यह सच है कि यूपी में बीजेपी, मोदी या योगी का जादू टूटा है, उनसे की जा रही उम्मीद में दरार पड़ी है.

उपचुनावों के नतीजे : सांप-छछूंदर बन गए गले की हड्डी

जिसे योगी आदित्यनाथ ने पहले केले और बेल का साझा कहा और फिर सांप-छछूंदर की दोस्ती, वह अब बीजेपी के लिए गले की हड्डी बन गई है. 2014 की लोकसभा में 71 सीटें और 2017 के विधानसभा चुनाव में 312 सीटें जीतने वाली बीजेपी देख रही है कि सपा और बसपा के बहुत आखिरी समय में हुए मेल ने उसका खेल बिगाड़ दिया. जिस गोरखपुर लोकसभा सीट पर 1989 से बीजेपी हारी नहीं, वहां वह बुरी तरह परास्त नज़र आ रही है और जिस फूलपुर में बरसों के सपाई दबदबे को तोड़कर उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य ने 51 फीसदी वोट लेकर पांच लाख से ज़्यादा वोटों से जीत हासिल की थी, वह सीट भी उसके हाथ से निकल चुकी है. ध्यान दें तो यह मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री की जीती हुई सीटें हैं जो बीजेपी ने गंवाई हैं.

राजनीतिक पंडित हिसाब लगाकर बता देंगे कि दलित-पिछड़े वोट मिलकर किस तरह बीजेपी का किला तोड़ देते हैं. वे यूपी से पहले बिहार की याद दिला देंगे जहां लालू यादव और नीतीश कुमार की जोड़ी ने सबसे पहले मोदी और अमित शाह के अश्वमेध का रथ रोका था. वे यह भी याद दिला देंगे कि जो हाल बाद में नीतीश-लालू की मैत्री का हुआ, कहीं वही सपा-बसपा के साझे का न हो.

बेशक, ये सारी बातें अपनी तरह से सही हैं, लेकिन समझने लायक सच्चाई कहीं और बड़ी है. फूलपुर में अगर प्रधानमंत्री मोदी का पुराना करिश्मा बचा रहता, अगर पिछला समर्थन भी बचा रहता तो सपा-बसपा मिलकर भी बीजेपी को हरा नहीं पातीं. यह सच है कि यूपी में बीजेपी, मोदी या योगी का जादू टूटा है, उनसे की जा रही उम्मीद में दरार पड़ी है. बीते एक साल में कभी लव जेहाद के नाम पर, कभी पुलिस मुठभेड़ के नाम पर, कभी गौरक्षा के नाम पर और कभी ऐंटी रोमियो मुहिम के नाम पर भीड़तंत्र या कानून के समानांतर चलने वाले संगठनों का जो सरकारी समर्थन दिखता रहा, वह एक बड़े तबके के भीतर डर पैदा करने वाला रहा है. बीजेपी के पारपंरिक वोट आधार के बाहर माने जाने वाले जिन समुदायों ने उसे अपना समर्थन दिया, वे खुद को छला गया महसूस करते रहे हैं. गैर यादव पिछड़ों या गैर जाटव दलितों के जिस समर्थन का दम बीजेपी भरती रही, वह बड़ी तेज़ी से खिसका है.

कहा जा सकता है कि बीजेपी की इस फिसलन के बावजूद अगर बसपा ने सपा का साथ देने की समझदारी न दिखाई होती तो सपा के लिए राह इतनी आसान न होती. लेकिन यह साझा बीजेपी की एक हार से कहीं ज़्यादा दूसरी वजहों से महत्वपूर्ण है. ऐतिहासिक तौर पर भारतीय राजनीति में दलित और पिछड़े अमूमन साथ नहीं रहे. एक दौर में कांग्रेस अगड़ों, मुसलमानों और दलितों को जोड़कर देश पर शासन करती रही और पिछड़ी ताकतें समाजवादी झंडों के तले एकजुट होती रहीं. संकट तब आया जब अस्सी के उत्तरार्ध में राम मंदिर आंदोलन के नाम पर बीजेपी ने नई गोलबंदी शुरू की और हिंदुत्ववादी पहचान की राजनीति करते हुए सारे समीकरण बदल डाले. इस मोड़ पर 1993 में मुलायम और कांशीराम ने हाथ मिलाए और बीजेपी को यूपी में रोक दिया. दुर्भाग्य से आपसी दुराग्रहों की बहुत तीखी राजनीति की वजह से यह गठबंधन महज दो साल में बिखर गया.

लेकिन अब वक़्त बदला है. बीजेपी का हिंदुत्ववादी चोला इस बार अपने चरम पर है और उसका साया अलग-अलग खड़े तमाम दलों को ग्रस लेने पर आमादा दिख रहा है. 2014 और 2017 के सफाये ने सपा और बसपा दोनों को सांसत में डाल दिया है. सपा की कमान अब अखिलेश के हाथों में है जो अपने पिता मुलायम के मुकाबले राजनीतिक तौर पर कहीं ज़्यादा मुलायम माने जाते हैं. इसी तरह मायावती भी बीते 25 बरस में पहले से ज़्यादा परिपक्व हुई हैं.

2018 के इन उपचुनावों में सपा-बसपा जिस सहजता से साथ आए, उसमें यह परिपक्वता दिखती है. इसके लिए न शिखर नेतृत्व को साथ बैठना पड़ा, न मोलतोल करना पड़ा, बस माया ने अपने स्थानीय नेताओं को निर्देश दिया और बात बन गई. अखिलेश इस बात को बुआ-भतीजे के साथ के तौर पर कुछ और आगे ले जाने की कामना करते नज़र आए. बेशक, इस सद्भाव की अपनी राजनीतिक गांठें हैं जो आने वाले दिनों में दोनों दलों को परेशान कर सकती हैं, लेकिन ताजा परिदृश्य तो यही है कि सपा-बसपा ने बीजेपी को रोक दिया है.

दिल्ली और बिहार के बाद यूपी ने साबित किया है कि बीजेपी की हिंदुत्वववादी राजनीति की लगाम थामी जा सकती है. अब तक यही लगता रहा कि सांप्रदायिक दरार और नफ़रत की राजनीति के सहारे बीजेपी ऐसा ध्रुवीकरण करेगी जो उसे चुनाव में अजेय बनाता रहेगा, लेकिन माया-अखिलेश के साझे को मिला समर्थन बताता है कि सांप्रदायिक दरार खड़ी करने की इस राजनीति की भी सीमाएं हैं. लोग बहुत देर तक ऐसे भुलावों में रहने वाले नहीं हैं. वे अंततः अमन पसंद करते हैं और ऐसा शासन चाहते हैं जो जन की आकांक्षाओं का पोषक हो, उनको आपसी टकराव के रास्ते पर न धकेले.

वैसे इन नतीजों में एक सबक कांग्रेस के लिए भी है. क्या इत्तेफाक है कि जिस दिन सोनिया गांधी ने 20 दलों को डिनर देकर तीसरे मोर्चे की नई बुनियाद रखने की कोशिश की, उसके एक दिन बाद ही फूलपुर और गोरखपुर में उसके प्रत्याशियों को मुट्ठी भर ही वोट मिल पाए. जाहिर है, तीसरे मोर्चे की अब जो भी राजनीति होगी, उसमें कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा बराबर की सहयोगी होगी, नेतृत्वकर्ता नहीं. नेतृत्वकर्ता होने के लिए उसे भारतीय जनता का समर्थन चाहिए होगा, कम से कम सौ से ऊपर सीटें चाहिए होंगी.

कुल मिलाकर इस रणनीतिक कामयाबी के साथ भारतीय राजनीति में नई संभावनाओं के दरवाज़े खुलते हैं. 2019 बस इस बात का इम्तिहान नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी की कुर्सी बची रहती है या नहीं, वह इस बात का भी इम्तिहान होगा कि भारतीय राजनीति और समाज में हाशिए पर पड़ी और आपस में टकराती नई राजनीतिक ताकतें मिलकर वह जाल बना और बिछा सकती हैं या नहीं जो विद्वेष और कट्टरता की मौजूदा राजनीति को रोक सके और देश और समाज दोनों को बदल सके. विकास के नाम पर बहुत इकहरी किस्म की अर्थनीति हो या परंपरा के नाम पर बहुत अधकचरी किस्म की सामाजिक समझ- इन दोनों ने सबसे ज्यादा नुक़सान इन्हीं समुदायों का किया है और इनके पास वापसी का, अपनी हैसियत हासिल करने का इकलौता जरिया भारतीय लोकतंत्र है, चुनाव है और वोट है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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