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This Article is From Sep 30, 2016

पाकिस्तान से वीर सैनिक चव्हाण की देश को चिट्ठी...

Virag Gupta
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 03, 2016 16:19 pm IST
    • Published On सितंबर 30, 2016 19:29 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 03, 2016 16:19 pm IST
मैं चंदू बाबूलाल चव्हाण राष्ट्रीय राइफल्स का 22 साल का सैनिक, अब पाकिस्तानी सेना के निकयाल मुख्यालय में कैद हूं. मैं इतिहास के पन्नों में कैद पृथ्वीराज चौहान चाह कर भी नहीं हो सकता जिन्होंने 12वीं शताब्दी में मोहम्मद बिन गोरी को शब्दभेदी बाण से मारा था. मुझे यह भी नहीं मालूम कि मैं वापस भारत आ पाऊंगा या मेरा हश्र भी शहीद लांस नायक हेमराज की तरह हो जाएगा. अपने परिवार और सेना के साथियों से दूर पाकिस्तानी सेना की यंत्रणा भरी कैद के बावजूद अपने देश के लिए मर-मिटने का जुनून है. शहादत की दहलीज पर झूलते इस सैनिक का अपने देश से कुछ सवाल पूछने का हक तो बनता ही है.

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कंधार में मौलाना मसूद अजहर को क्यों छोड़ा
भारत के खिलाफ जैश-ए-मोहम्मद के सरगना, मौलाना मसूद अजहर ने आतंकी जंग से कहर बरपाया है, जिसे हमारे जवानों ने वीरतापूर्ण अभियान 1994 में गिरफ्तार किया था. इंडियन एयरलाइंस के विमान अपहरण कांड के बाद 176 यात्रियों को बचाने के एवज में दो अन्य कुख्यात आतंकियों के साथ 1999 में उसे रिहा कर दिया गया. 1999 में ही कारगिल का युद्ध हुआ जिसमें सेना के 527 जवान शहीद हुए. उसके बाद सेना के 4000 से अधिक जवान आतंकी हमले और गोलीबारी का शिकार हो चुके है. अगर 176 यात्रियों की जान कीमती थी तो फिर सेना के जवानों की जान भी तो बेशकीमती है.

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अलगाववादियों को भारत सरकार की मदद क्यों?
भारत की केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार द्वारा गिलानी, मीर वाइज और यासीन मलिक जैसे अलगाववादियों को सरकारी पैसे से फाइव स्टार सुविधाएं दी जाती हैं. सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक, यह पैसा सुरक्षाबलों तथा विस्थापितों के कल्याण के लिए खर्च होना चाहिए. इन अलगाववादियों द्वारा आम जनता के मन में भारत के खिलाफ जहर भरा जाता है जिसका दंश सैन्यबलों को ही काटता है. यह बात मन में आती है कि जब राजसत्ता ने अलगाववाद से समझौता कर लिया हो तो फिर सैन्य बलों की शहादत से ही आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई क्यों होती है?

सोशल मीडिया के राष्ट्रभक्त अपनी जवाबदेही से क्यों भागते हैं?
देश की राजधानी दिल्ली में कुछ दिनों पहले करुणा नाम की एक अध्यापिका को दिन-दहाड़े एक वहशी ने चाकुओं से गोदकर मार दिया पर कोई भी उसे बचाने नहीं आया. उरी में हमारे 19 साथी पाकिस्तान समर्थित आतंकियों के हमले के शिकार हुए जिस पर हम सभी का खून खौला. परन्तु सोशल मीडिया में देशभक्तों का डिजीटल उन्माद बेकाबू हो गया जिसने भारत सरकार को पाकिस्तान पर सर्जिकल अटैक के लिए बाध्य कर दिया. किसने किसके कितने मारे यह सच दोनों देशों के मीडिया की टीआरपी बढ़ा रहा है, पर शहादत तो हमारे जिम्मे ही आती है.

पाकिस्तानी संधि, चीनी प्यार और अमेरिकी इकरार के खिलाफ जंग क्यों नहीं
पाकिस्तान के साथ युद्ध और संधि दोनों दौर में राजनेता ही लाभान्वित होते हैं. पाकिस्तानी आतंक को चीन और अमेरिका का समर्थन है, जिसके बावजूद हम उनकी कंपनियों को भारत में खुला बाजार देते हैं. संचार तथा सामरिक क्षेत्र में चीनी कंपनियों की गैर-कानूनी उपस्थिति से सरकार बेपरवाह है. अमेरिकी इंटरनेट कंपनियों ने भारतीय समाज तथा अर्थव्यवस्था को अपने आधिपत्य में ले लिया है. भारत-पाक उन्माद से अमेरिका के हथियार व्यापारियों का लाभ किससे छिपा है? आतंक के प्रक्षन्न आर्थिक गठजोड़ को मीडिया के मार्फत मिलने वाली बड़ी शह से मुझे अचम्भा नहीं, पर इसकी कीमत हमारी शहादत से क्यों? वीर जवान ड्यूटी में मुस्तैद और शहादत के बाद हमेशा के लिए चुप हो जाते हैं, जिससे उनका इस्तेमाल युद्ध का उन्माद बढ़ाने के लिए आसानी से हो जाता है. मैं रुबैया सईद की तरह विशिष्ट राजनीतिक वर्ग से नहीं हूं जिनके लिए पांच आतंकवादी छोड़ दिए गए. परंतु मेरी यह पाती देश की जनता और राजनेताओं को जवाबदेह बना सके, तो मुझे शहीद होने में गुरेज भी नहीं!

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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