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This Article is From Feb 23, 2018

दर्द एक पुलिसवाले का, जब उसने पूछा- तो क्या हम चौकीदार बन जाएं...

Anita Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 23, 2018 11:15 am IST
    • Published On फ़रवरी 23, 2018 09:55 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 23, 2018 11:15 am IST
मेरे घर परसों चोरी हुई. यह हमारे घर में बीते कुछ महीनों में तीसरी चोरी रही. हैरानी वाली बात यह कि हर बार एक ही समय पर (सुबह के आठ से नौ बजे के बीच), एक ही मुहल्ले में, एक ही समूह ने, एक ही घर में, एक ही चीज को तीन बार चुराया. और वह चीज थी पानी का मीटर और मोटर. पहली चोरी के बाद सुरक्षा के जुगाड़ किए गए. मजेदार ये रहा कि इन त्वरित जुगाड़ों के बावजूद दो दिन बाद ही फिर से चोरी हुई और करीब करीब छह महीने के अंदर ही एक बार फिर यानी परसों चोरी हुई. किसी तरह इस बार चोरों की शिनाख्त संभव हो सकी.

किस्से से जुड़ा डर 
पर इस बार मेरी चिंता कुछ और थी. मेरे मन में एक डर था, मुझे ऐसा लगा जैसे शहरों में नहीं, भीड़ भरे जंगलों में रह रहे हैं, और हम में से ही कुछ लोग आए दिन दैत्य बन रहे हैं, जैसे कोई पुराना श्राप फल-फूल रहा हो, आईने से दिखने वाले मुस्कुराते चहरों के पीछे घुप्प अंधेरा छिपा हो, काला स्याह अंधेरा... 
क्या हम जरा भी सेफ नहीं. अब मेरे मन में एक डर ने जगह बना ली. बार-बार सवाल उठ रहा था कि इन चोरों में कितना आत्मविश्वास भरा था. सबसे बड़ा डर ये कि चोरों के कंधों पर कंबल के नीचे मोटर की जगह किसी का बच्चा भी हो सकता था. किसी का क्यों मेरा ही हो सकता था. 

और पुलिस वाले के बेतुके जवाब
खैर, पुलिस बुलाई गई. अपने डर के साथ मैं उनके सामने थी, लेकिन हाथ लगी तो सिर्फ हताशा. पुलिसकर्मी से जब मैंने पूछा कि हमारे इलाके में पेट्रोलिंग बहुत कम है, मुझे बताइए कि हम कैसे सुरक्ष‍ित हैं. उन साहब ने जवाब तो क्या देना था, मुझ से सवाल कर बैठे और सवाल भी हद बेतुका. उनका सवाल था- '' तो क्या अब हम चौकीदार बन जाएं...''  मैं स्तब्ध थी. इस जवाब की तो दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं थी. जनाब के हाथ में कुछ फाइलें थीं, जिन्हें वे बार-बार दिखाए जा रहे थे ये कहते हुए कि इन्हें लेकर कोर्ट जाना है, देर हो जाएगी. आप लोग जल्दी निपटाओ. 

खैर, मैंने अपना सवाल मजबूती से फिर उनके सामने रखा- '' मैं नहीं जानती कि आपको क्या बनने की जरूरत है, लेकिन जरा बताइए कि अगर मोटर की जगह बच्चे को उठा लिया जाता तो?'' इस बार पुलिस कर्मी का जवाब उम्मीद के मुताबिक था. उन्होंने कहा- तो आप कैमरे लगवाएं, गली में गेट लगवाएं, एक चौकीदार रखें, घर में ऑटोमेटिक लॉक लगाएं" जाने कितने सुझाव उसने दे डाले. पर उसके मुंह से एक बार भी नहीं निकला कि पुलिस पर भरोसा रखें, हम इस इलाके की पेट्रोलिंग बढ़ाएंगे या सुरक्षा के कुछ और इंतजाम किए जाएंगे. खैर वो अपनी बीट पर आया और कुछ औपचारिकताओं के बाद लिखित में यह ले गया कि हमें आगे कोई कारवाई नहीं चाहिए.

'मेरो मन अनंत कहां सुख पावे', मन के पेट में फिर वही सवाल गुड़गुड़ करने लगा. उसी दिन मैं इलाके के एसएचओ के पास पहुंची. एसएचओ जी तो बीट ऑफिसर से भी चार कदम आगे निकले. उन्होंने भी वही सब सलाहें देकर हमें शांति बनाए रखने की हिदायत दे डाली. हां, एक वादा उन्होंने किया कि वे इलाके में पेट्रोलिंग बढ़ाएंगे. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. 

अंत में फूटा पुलिस का दर्द
चोरी के बाद गली में लगी भीड़ और शोर-शराबे में किसी ने बीट ऑफिसर को यह बता दिया कि मैं मीडिया से हूं. बस फिर क्या था, वे अपने कोर्ट के काम को भूलकर भारी पेट के साथ तीन मंजिले चढ़कर मेरे घर तक पहुंचे और अपना दुख मुझे बताने लगे. उनका दुख वाकई दुख ही था. वो कहने लगे - 

'' बीस हजार लोगों पर एक पुलिस वाला है, आप बताइए कैसे काम चलेगा. एक पुलिस वाला कहां-कहां जाएगा. करीब रुआंसे होकर उन्होंने अपना फोन निकाला, जिसमें व्हट्सएप पर कुछ मैसेज और तस्वीरें दिखाने लगे, देखि‍ए इस पुलिस वाले को गोली मार दी, इसके भी तो बाल-बच्चे थे. अपराधी पुलिस वालों के साथ बहुत बुरा करते हैं. कुछ रोज पहले पुलिस की आंखों में मिर्च डालकर कोर्ट से अपराधी को भगा ले गए.'' और भी जाने क्या क्या... 

वह कहना चाह रहे थे कि आखि‍र हैं तो हम भी इंसान ही. एक पुलिस वाले के सिर पर इतना बोझ है कि वह एक साथ कई काम करता है, डिपार्टमेंट में लोग कम हैं. अगर पुलिस कार्रवाई करती है, तो कुछ‍ दिनों में बाहर आने के बाद वे क्रिमिनल मौका देखकर उन्हें ही पीट जाते हैं या किसी दूसरे तरीके से खुन्नस निकालते हैं. उसके चेहरे से ही पता चल रहा था कि जिसे मैं अपनी मदद के लिए देखती हूं, वह तो खुद मदद चाहता है.

रात को मेरे पति ने बताया कि जब वे उस पुलिसकर्मी के साथ चोर को तलाशने पास ही के झुग्गी इलाके में गए थे, तो चोराहे पर सट्टा खेल रहे कुछ लड़कों में से एक ने जोर से दूसरे से कहा था- ' ओये, देख ये तो वही पुलिस वाला है न, जिसे पसरों पीटा था...' यह सुनने के बाद भी पुलिसकर्मी ने अपनी राह बदल ली थी. मैं इस घटना और इसके बाद आए क्रमों से थोड़ा व्यथित हुई, पर आप न हों और सोचें कि क्या इसका कोई हल निकल सकता है. या देश के मेहनतकश नौकरीपेशा और टैक्सपेयर बस वोट बैंक और उसकी समझ से परे की औझी राजनीति का यूं ही शिकार होते रहेंगे. 

इस स्टोरी में मैं कोई निर्णय या सही गलत की पड़ताल नहीं करना चाहती. क्योंकि यह बहस लम्बी चलने वाली है. पुलिसकर्मी का इंसान होना, डिपार्टमेंट में लोगों की कमी होना, भर्ती के लिए अर्जियां ड़ालना, खुद राजनीतिक दलों की शह में ऐसे इलाकों को पलने-बढ़ने दिया जाना जहां क्राइम रचा बसा हो और भी जाने क्या-क्या मुद्दे निकल कर आ सकते हैं. इस घटना से मुझे बस एक ही बात समझ आई है कि इस देश में सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेदार है.


(अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में चीफ सब एडिटर हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
 

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