देश में मंदी दस्तक दे रही है। आर्थिक हालात को एक नजर में देखने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि ये क्या बला है। लेकिन मुश्किल यह है कि ऐसे अर्थशास्त्री यानी समष्टिभाजी अर्थशास्त्र के विद्वान इस समय मीडिया से गायब हैं। पिछले दो महीनों से विद्वानों और विशेषज्ञों की विश्वसनीयता पर हो रहे हमलों से सहमे बुद्धिजीवी फिलहाल चुप से हो गए हैं। इधर आर्थिक और सामाजिक बीमारियों और व्याधियों के जिक्र से मीडिया भी बचने लगा है।
वैसे दो-तीन महीने के राजनीतिक शोर-शराबे में मीडिया की व्यस्तता स्वाभाविक थी। हालांकि बिहार चुनाव खत्म हो जाने के बाद देश के आर्थिक हालात पर सोच-विचार का मौका बन सकता था, लेकिन बिहार चुनाव के फौरन बाद सत्तारूढ़ दल की अंदरूनी उठापटक ने मीडिया को व्यस्त कर लिया। उधर खुद प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर निकल गए। यह हफ्ता उनके वहां के भव्य समारोहों के प्रचार-प्रसार में निकल जाएगा। हालांकि प्रधानमंत्री के इस विदेशी दौरे को भी संभावित 'मेक इन इंडिया' और संभावित विदेशी पूंजी के भारत में लाए जाने की कोशिशों के तौर पर दिखाने का मौका था, लेकिन सारा समय भव्य स्वागत सत्कार की खबरों में निकल गया। कुल मिलाकर दिन पर दिन देश में वर्तमान की विकट आर्थिक स्थितियों पर गौर करने के सारे मौके ही निकलते जा रहे हैं।
बहरहाल देश के हालात पर गौर करने की बात यह है कि इस हफ्ते जारी साल की पहली छमाही के हिसाब के मुताबिक सितंबर में देश में औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर घटकर 3.6 के स्तर पर आ गई। पिछले डेढ़ साल से उद्योग व्यापार में ताबड़तोड़ सुधार और फुर्ती लाने के तमाम दावों के बावजूद ऐसा क्यों हो गया? इस पर गंभीरता से कोई चर्चा सुनाई नहीं दी।
भोजन का एक तिहाई हिस्सा दालें हैं। ढाई महीने में दालों के दामों में दोगुनी से लेकर ढाई गुनी की बढ़ोतरी पर जितने भी उपायों का एलान हुआ उनका असर अब तक नहीं दिखा। गोदामों पर छापेमारी के बाद उन दालों को उपभोक्ताओं तक सस्ते दाम पर पहुंचाने का काम युद्धस्तर पर पता नहीं क्यों शुरू नहीं हो पाया। जबकि दालें महीने दो महीने से ज्यादा टिकती नहीं हैं। उनमें घुन लगना शुरू हो जाता है। उन्हें टिकाने के लिए कोल्ड स्टोरेज में दालें रखने का चलन अभी शुरू नहीं हुआ है। और फिर दालों के दामों में दोगनी ढाई गुनी बढ़ोतरी से मचे हाहाकार के बाद इसे जमा रखना इतना संवेदनशील हो गया कि व्यापारी कम से कम दालों के व्यापार से ज्यादा मुनाफे के लालच में अब बिल्कुल नहीं पड़ना चाहते।
केंद्र में सत्तारूढ़ दल की बिहार चुनाव में सनसनीखेज हार का विश्लेषण अभी हुआ नहीं है, लेकिन इस हार के पीछे जिन दो प्रमुख काराणों को मीडिया ने चिन्हित किया है वे दाल और दादरी ही बताए गए हैं। हारने के बाद भी और चुनाव प्रचार के दौरान भी। लेकिन खुद को बड़ा चौकन्ना और चौकस दिखाती हुई डेढ़ साल पहले सत्ता में आई सरकार से ये कैसी हीला हवाली हो गई। सिर्फ तब ही नहीं, बल्कि मुसलसल अभी तक।
दालों में महंगाई इतना गंभीर मामला है कि दाल सिर्फ मौसमी मुद्दा ही साबित नहीं होगा। जब कृषि उत्पादन का हिसाब-किताब देखा जाएगा, तो आंकड़े चौंकाने वाले आ सकते हैं। अभी तो सिर्फ अरहर, मूंग और उड़द की बातें ही सुनी गई हैं। इसकी कमी की भरपाई के लिए छापेमारी और विदेशों से आयात के प्रचार के सहारे तदर्थ रूप से बात आई गई करने की कोशिश हुई है। इस चक्कर में हो क्या गया? इसकी भी चर्चा जरूरी है।
जब दाल के थोक व्यापारियों से दालों के व्यापार या आढ़त की बारीकियां जानने की कोशिश की गई, तो बड़े दूर की बात पता चली। पूछा यह गया था कि भारतीय भोजन में लगभग एक तिहाई हिस्से वाली दालों का क्या कोई विकल्प भी है। जवाब था कि अरहर, मूंग और उड़द के महंगे होने के बाद दूसरी सस्ती दालें विकल्प बनकर उभरी हैं। इनमें दो प्रमुख हैं- चना और राजमा। लेकिन चना भी महंगाई की चपेट में आया है। बचता है राजमा। राजमा पर ज्यादा असर क्यों नहीं हुआ? यह सवाल खुश होने की बचाय हद से ज्यादा चौंकाने वाला है।
राजमा के उत्पादन और इसके व्यापार के पक्के आंकड़े हाल फिलहाल हाथ में नहीं हैं। फिर भी इस चर्चा में यह जानकारी मिली कि अब तक मद्रास, पंजाब और जम्मू का राजमा ही मशहूर था। खासतौर पर मद्रास का राजमा सबसे ज्यादा। लेकिन महंगाई की अफरातफरी में अचानक चीन का राजमा भारतीय बाजार में बढ़ गया। यह सस्ता है और इसने देसी राजमा की सभी किस्मों पर दबिश बना दी। सस्तेपन के कारण इतनी दबिश बन गई कि देसी राजमा पैदा करने वाले भारतीय किसानों को लागत निकालने के लाले पड़ रहे हैं। एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले देश की आर्थिक स्थिति की चर्चा में राजमा पर अटकना कुछ लोगों को अजीब लग सकता है, लेकिन भारतीय बाजार में आई यह नई प्रवृत्ति निकट भविष्य के खतरनाक रुख की तरफ इशारा कर रही है। खासतौर पर तब तो और ज्यादा जब हमने 'मेक इन इंडिया' के नारे से बड़ी उम्मीदें लगा रखी हों। अगर कृषि प्रधान देश के कृषि उत्पाद की यह हालत हो रही हो, तो वह कौन सी चीज होगी, जिसका उत्पादन हम वैश्विक बाजार के दाम पर कर पाएंगे।
कहा गया था कि दालें अपवाद हैं और इससे महंगाई के आंकड़ों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में भारी गिरावट के बावजूद अक्टूबर में खुदरा महंगाई 4.41 से बढ़कर 5 फीसद हो गई। हैरत की नई बात यह है कि इस बार ग्रामीण भारत में खुदरा खाद्य महंगाई दर सवा पांच फीसद तक पहुंच गई। देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था के ये गंभीर संकेत उस कुदरती मौसम के हैं जिसे बाजार के लिहाज से सबसे आसान और माफिक माना जाता है। इन सर्दियों के डेढ़-दो महीने गुजरते ही पानी की किल्लत और आर्थिक सुस्ती का असर कई अंदेशे पैदा कर रहा होगा। इसे अभी से भांपना चाहें, तो शेयर बाजार की बदहाली पर नजर डाल सकते हैं। हफ्ते के आखिरी दिन शेयर बाजार 256 अंक टूटकर नीचे गिर गया। हफ्ते में यह गिरावट 654.71 है और लगातार गिरने का यह तीसरा हफ्ता है।
अब तक गिनाए गए अंदेशे तो फिर भी दिखने और नापतौल करने लायक हैं। इनके अलावा बेरोजगारी की तरफ तो अभी किसी का ध्यान ही नहीं है। जबकि डेढ़ साल पहले राजनीतिक बदलाव का माहौल बनाने के लिए इन बेरोजगार युवकों को ही सबसे ज्यादा उम्मीदें बंधाई गई थीं। आलम यह है कि पिछले डेढ़ साल में कम से कम दो करोड़ बेरोजगार युवकों की फौज पहले से बेरोजगार पांच करोड़ बेरोजगारो में और जुड़ गई है। इधर देश की जनसंख्या में 65 फीसद युवकों की संख्या होने को जिस तरह अपनी बेशकीमती धरोहर बताए जाने का प्रचार इस समय हो रहा है उसे कब तक प्रचारित किया जा सकेगा?
आखिर में सवाल खड़ा हो सकता है कि अगर वाकई देश के हालात ऐसे हैं, तो सरकार और प्रशासन की तरफ से आश्चर्यजनक निश्चिंतता के क्या कारण हो सकते हैं? जवाब यही हो सकता है कि कुछ सरकारों को फील गुड भी एक रणनीति लगती है।
This Article is From Nov 15, 2015
सुधीर जैन का ब्लॉग : फील गुड में तो नहीं फंस रहा देश...
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 15, 2015 16:44 pm IST
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Published On नवंबर 15, 2015 16:29 pm IST
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Last Updated On नवंबर 15, 2015 16:44 pm IST
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