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राजनीति में क्यों फल-फूल रहे हैं अपराधी

डॉ. नीरज कुमार
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 04, 2025 16:16 pm IST
    • Published On नवंबर 04, 2025 16:16 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 04, 2025 16:16 pm IST
राजनीति में क्यों फल-फूल रहे हैं अपराधी

बिहार के पिछले तीन विधानसभा चुनावों से ऐसा लग रहा है कि सभी दलों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों पर भरोसा जताया है. राजनीति के अपराधीकरण का सीधा सा मतलब है अपराधियों का राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में शामिल होना. बिहार विधानसभा चुनाव के पहले फेज तक कुल प्रत्याशियों में 35 फीसदी ऐसे उम्मीदवार हैं, जिनपर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. हाल ही में मोकामा विधानसभा क्षेत्र में जन सुराज के उम्मीदवार के समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या ने एक बार फिर से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान राजनीति के अपराधीकरण की ओर खींचा है. यहीं पर सवाल उठता है कि आखिर क्यों भारत में, अपराध और राजनीति के बीच एक जाना-माना गठजोड़ हाल के दशकों में फल-फूल रहा है? क्या कारण हैं कि राजनीतिक दल इस गठजोड़ को मजबूत करने में एक केंद्रीय भूमिका निभाते हैं? क्योंकि, ज्यादातर मामलों में, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को नामांकित करने के लिए वे ही जिम्मेदार संस्थाएं होते हैं. इन प्रश्नों के अलावा यह आलेख राजनीति में अपराधीकरण से जुड़े दो और महत्वपूर्ण प्रश्नों के समाधान की तलाश करता है: क्या सभी राजनीतिक दल इसके लिए जिम्मेदार हैं? क्या भारतीय लोकतंत्र में राजनीति का अपराधीकरण बिहार के अलावा अन्य राज्यों में भी प्रभावी है? अंत में, राजनीति में अपराध की ओर ले जाने वाले विशिष्ट मार्ग क्या हैं.

राजनीति में अपराधियों का प्रवेश द्वार

अगर देखा जाए तो भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ढांचा ही ऐसा रहा है कि राजनीतिक दल चुनावी राजनीति में विशिष्ट भूमिका अदा करते हैं. ऐसा इसलिए कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में दलीय राजनीति ने लोगों के मानसिक पटल पर गहरा प्रभाव छोड़ा है. भारत के प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक मिलन वैष्णव का मानना है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में गरीबी और निरक्षरता व्याप्त थी.ऐसे में लोगों के बीच विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच अंतर स्पष्ट करने के लिए अलग-अलग चुनाव चिह्न दिए गए. इसका परिणाम यह निकला कि राजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र में एक ब्रांड बन गए. लोगों के दिलों-दिमाग में राजनीतिक दलों की छवि बैठ गई. धीरे-धीरे ये राजनीतिक दल व्यक्ति-केंद्रित होते चले गए  जहां न तो विचारधारा का महत्व रह गया और न ही राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र. उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, तृणमूल कांग्रेस एवं तेलुगु देशम पार्टी इत्यादि. इन राजनीतिक दलों को चुनाव के समय चुनावी फंड के साथ ऐसे व्यक्ति की भी तलाश रहती है, जिसका क्षेत्र विशेष में लोगों पर पकड़ हो. संक्षेप में, पार्टियां सर्वव्यापी हैं. वे आंतरिक रूप से लोकतांत्रिक नहीं हैं. उम्मीदवारों का चयन आम तौर पर अभिजात वर्ग द्वारा संचालित मामला होता है. विचारधारा शायद ही कभी लिटमस टेस्ट के रूप में काम करती है.इसलिए, राजनीतिक दल ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार की ओर ज्यादा मुखातिब होते हैं.

वहीं दूसरी ओर आपराधिक पृष्ठभूमि वालों को ये राजनीतिक दल इस प्रकार ब्रांडिंग करते हैं कि वह व्यक्ति ही क्षेत्र विशेष एवं समुदाय विशेष का उद्धारक है. मतदाता भी अक्सर आपराधिक उम्मीदवारों का समर्थन करते हैं क्योंकि उनकी आपराधिकता उनके इरादे और क्षमता को दर्शाती है कि वे अपने समुदाय के हितों की रक्षा करते हैं. समुदाय और जाति-आधारित हित सुप्रसिद्ध 'गरिमा की राजनीति' का लाभ उठाते हैं जो भारत में समकालीन राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की एक पहचान है. आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार अपने समुदाय के सर्वोत्तम हितों का प्रतिनिधित्व करने के आधार पर प्रचार करते हैं, न कि किसी भी तरह से पूरे निर्वाचन क्षेत्र के हितों की सेवा करने के. वे अपने समर्थकों को लक्षित करने वाले विभिन्न तरीकों के माध्यम से इस प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करते हैं: स्थानीय विवादों का निपटारा करना, भौतिक सुरक्षा प्रदान करना, कल्याणकारी लाभों के प्रशासन में हस्तक्षेप करना और अक्सर अपने स्वयं के खजाने से सामाजिक बीमा प्रदान करना. उनका धन और जबरदस्ती करने की क्षमता या केवल हिंसा की धमकी, इस धारणा को बढ़ावा देती है कि वे काम करवाने के लिए जो भी करना पड़े, करेंगे.ऐसे राजनीतिक संदर्भ में जहां सामाजिक विभाजन व्याप्त हैं और राज्य को अपने मूल संप्रभु कार्यों के लिए एक निष्पक्ष या प्रभावी वितरणकर्ता के रूप में नहीं देखा जाता है, उम्मीदवार अपनी आपराधिक प्रतिष्ठा को अपने मतदाताओं की ओर से 'काम करवाने' की विश्वसनीयता के संकेत के रूप में इस्तेमाल करके अपनी वैधता पाते हैं.

हालांकि, भारत में मतदाता उदासीन बिल्कुल नहीं दिखते एवं भारतीय इतिहास में पहली बार, महिलाएं – जो हाल के अनुभवजन्य अध्ययनों के अनुसार, सुशासन को प्राथमिकता देने की अधिक संभावना रखती हैं , चुनाव के दिन पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान करती हैं. दूसरा, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा अभी भी मजबूत बनी हुई है. अंत में, सभी स्तरों पर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के जीवन-वृत्तांत की जानकारी पहले से कहीं अधिक व्यापक रूप से सुलभ है. मीडिया कवरेज, नागरिक समाज अभियान और इंटरनेट के माध्यम से, मतदाता अपने निर्वाचन क्षेत्र के उम्मीदवारों के व्यक्तिगत विवरण एक बटन दबाकर पा सकते हैं. और फिर भी, इन सकारात्मक प्रवृत्तियों के बावजूद, अपराध अभी भी गहराई से जड़ जमाए हुए हैं.

क्या कहते हैं आंकड़े

राजनीति के अपराधीकरण के लिए सभी राजनीतिक दल चाहे वो राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय हों समान रूप से जिम्मेदार हैं. क्योंकि, कोई भी राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को अपना उम्मीदवार बनाने में परहेज नहीं करते हैं. बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के उम्मीदवारों का विश्लेषण करते हुए एडीआर ने पाया है कि पहले फेज के चुनाव में 35 फीसदी उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं.इसमें राजद के 76फीसदी, बीजेपी के 65 फीसदी, कांग्रेस के 65 फीसदी, जन सुराज के 44 फीसदी, जदयू के 39 फीसदी, भाकपा (माले) के 93 फीसदी और भाकपा के 100 फीसदी दागी छवि के हैं. इन उम्मीदवारों में 27 फीसदी के खिलाफ गंभीर मुकदमे दर्ज हैं. 

ये आंकड़े दिखाते हैं कि राजनीति का अपराधीकरण चिंताजनक है. अगर राज्यवार स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो आंध्र प्रदेश में 79 फीसदी विधायक, तेलंगाना और केरल के 69 फीसदी, बिहार के 66 फीसदी और महाराष्ट्र के 65 फीसदी विधायक दागी हैं. जबकि सबसे कम सिक्किम के मात्र तीन फीसदी विधायक ही दागी हैं. परिणाम यह है कि अब राजनीति में अपराधी पृष्ठभूमि वाले और इनके जीतने की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. अगर लोकसभा चुनाव में देखा जाए तो 2009 में 15 फीसदी दागी उम्मीदवार थे. ऐसे में उम्मीदवारों की संख्या 2024 में बढ़कर 20 फीसदी हो गई. इन दागी उम्मीदवारों में 2009 में 30 फीसदी विजयी हुए और 2024 में यह 46 फीसदी चुने गए.जबकि बिहार विधानसभा चुनाव 2010 में 32 फीसदी दागी उम्मीदवार थे. इसमें से 50 फीसदी चुने गए थे. वहीं, 2020 के बिहार चुनाव में कुल दागी उम्मीदवारों में से 68 फीसदी विजयी हुए थे.

समाधान की संभावनाएं

राजनीतिक प्रक्रिया में अपराधियों के निरंतर प्रवाह को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए कानूनी ढांचे में सुधार की जरूरत है. दोष सिद्धि के बाद अयोग्यता से उत्पन्न सीमित निरोध और प्रभावशाली व्यक्तियों के मुकदमों में देरी, जिसके परिणामस्वरूप न्याय प्रक्रिया बाधित होती है, जैसे मुद्दों का तत्काल समाधान किया जाना चाहिए. चुनाव आयोग को अपराधियों और राजनेताओं के बीच गठजोड़ को तोड़ने के लिए पर्याप्त उपाय करने चाहिए. इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम पार्टी और चुनावी फंडिंग में 'काले धन' के इस्तेमाल पर रोक लगाना होगा. इसके साथ ही, आवश्यक कानून बनाकर और पर्याप्त उपाय करके पूरी राजनीतिक व्यवस्था को अपराधमुक्त करने के लिए सरकार की ओर से एक दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है. हालांकि, राजनीति को केवल व्यापक सामाजिक जागरूकता और चुनाव, राजनीति और शासन में जन भागीदारी से ही अपराधमुक्त किया जा सकता है. इसके अलावा, समाज के सभी वर्गों की व्यापक भागीदारी के माध्यम से चुनावी प्रक्रिया को और अधिक समावेशी बनाया जाना चाहिए.

इसके अलावा, चुनाव सुधार पर दिनेश गोस्वामी और इंद्रजीत समिति जैसी कई समितियों ने चुनावों के लिए राज्य द्वारा वित्त पोषण का सुझाव दिया है. इससे काले धन के इस्तेमाल पर अंकुश लगेगा और राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगेगा. चुनाव आयोग किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण कर सकता है, लेकिन उसका पंजीकरण रद्द नहीं कर सकता. एक स्वच्छ चुनावी प्रक्रिया के लिए राजनीतिक दल के कामकाज का नियमन जरूरी है. इसलिए, चुनाव आयोग को मजबूत करना जरूरी है. इसके लिए व्यवहार में बदलाव की भी जरूरत है. जब तक नागरिकों को यह एहसास नहीं होगा कि वोट के लिए रिश्वत देने वालों पर भरोसा नहीं किया जा सकता और यह अंततः उनके लिए ही नुकसानदेह होगा, तब तक राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के प्रयासों का सीमित प्रभाव ही होगा.

डिस्क्लेमर: डॉ नीरज कुमार बिहार के वैशाली स्थित सीवी रमन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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