यह कितना अजीब है न कि एक किताब आपको कुछ ही समय में थोड़ा और वयस्क बना देती है, कुछ और संवेदनशील और कई बार आपको उन किनारों पर अकेला छोड़ देती है, जहां जवाब की खोज नहीं बल्कि सवाल ही अपनी हार मान लेते हैं. एक किताब, अगर सही मायने में वो आपकी जड़ और चेतन अवस्था के साथ टकराव की स्थिति में आने योग्य है तो यह वही किताब है जिसका एक पूरा संसार आपकी मांसपेशियों की स्मृति को जगा देगा.
इसी के साथ मुझे डेकालॉग (महान पोलिश निर्देशक किश्लोवस्की का टेलीविजन ड्रामा सीरीज)के कुछ एपिसोड्स याद आने लगे जिसमें दृश्यों और घटनाओं की गति सबसे महत्वपूर्ण बात है. जैसे हम गति को गति में ही शामिल होने पर उसके सत्य को अपनाते हैं, इस भूल के साथ कि गति दरअसल एक माया है. ठहराव दरअसल एक वास्तविक गति है. इसे एक धीमी गति कह सकते हैं. लेकिन मैं फिर भी इसे गति नहीं कहना चाहती. यहां मैं ठहराव को एक सबसे सच्ची गति, सबसे विध्वंसकारी और सबसे मायावी गति कहना चाहती हूं. यह वही गति है जिससे सूर्य समय के साथ बाध्य है और इसी गति में फूलों का खिलना प्रकृति की सबसे खूबसूरत घटना है. लेकिन इन घटनाओं से जो हमें मिलता है, वो सबके लिए एक समान नहीं होता. क्योंकि यहां समय की अधिकता या समय की कमी या समय के प्रति नासमझी या समय के प्रति अविश्वास या समय के प्रति अनभिज्ञता है.हम जिस भी चीज का चुनाव करते हैं, उसी के अर्थ ग्रहण कर लेते हैं.
अपर्याप्त शब्द
इस मायने में 'बरफ महल' को 'डेकालॉग 'के समान पाती हूं. हर चैप्टर अपने आप में संपूर्ण और एक आगे के लिए एक सिरा छोड़ता हुआ. कोई भी सच्ची घटना आपको जवाब नहीं देती, बल्कि नि:शब्द करती है. जवाब पाना एक सांसारिक और छोटी घटना है. इसे स्वीकृति के मानकों पर सबसे नीचे पायदान पर रखा जा सकता है, लेकिन हृदयविदारक घटना केवल भीतर महसूस होती है जिसके लिए शब्द कभी पर्याप्त हो ही नहीं सकते. जैसे बरफ महल में हर जगह पसरी चुप्पी, जैसे सिस के दौड़ने में कंपकंपाता रास्ता, जैसे खुद को आशीर्वादों और नियामतों का मतलब समझ आना और उनकी कीमत का अहसास होना कि बस हम इसके लिए 'चुन' लिए गए हैं.
नॉर्वीजी लेखक भी अपने देश की आबोहवा की तरह अपने लेखन में गहरे, भाप की उम्मीद में ठिठुरते और आंतरिक प्रतिवाद के प्रणेता समान प्रतीत होते हैं. जैसे कोई बड़ा पक्षी दूर कहीं अपने अनुभवों की चोंच को तोड़ कर फिर से अपना इतिहास लिखने की शांति और गरिमा का कठोर अनुशासन अपने में बना कर रखता है. इसके लिए वह ऊंचाई और अकेलेपन का चुनाव करता है और ताउम्र उसी के साथ रहता है. थारयै वेसोस उसी ऊंचाई के प्रणेता हैं, बिना किसी प्रतिवाद और प्रश्न के.
सिस और उन्न की दुनिया
किताब के आख़िरी पन्नों तक पहुंचते-पहुंचते मुझे कई सारी चिंताएं होनी चाहिए थीं. सबसे ज़्यादा सिस की चिंता होनी चाहिए थी, लेकिन मुझे सिस और उन्न की कहानी में एक बड़ी दिलचस्प जगह ने अपने में शामिल होने दिया और यहीं से मैंने उन दोनों लड़कियों के लिए अपने सोचने के इलाकों को मजबूत होते पाया. मैंने पाया कि अगर पीड़ा का प्रश्न हमारे सामने साक्षात है तो यकीनन हम गहनतम पीड़ा का चुनाव करते हैं. जिसकी आवाज नारों की तरह नहीं भी हो सकती, जैसे सिस ने अपनी पीड़ा का चुनाव किया. जैसे किसी एक पल ने सिस और उन्न के बीच के समय के एक सबसे छोटे टुकड़े को चुना. जैसे किसी स्मृति ने बर्फ को चुना और बर्फ की स्मृति में उन्न ने खो जाना चुना. यानी अर्थों की एक पर एक परत. अब किस परत की सच्चाई तक हमें पहुंचना है, यही खेल है सारा.
भाषा की तरलता
और अंत में नीलाक्षी सिंह के अनुवाद के बारे में कुछ कहना कैसे भूल सकती हूं भला. हर लेखक अपना प्रतिमान खुद होता है. उसकी अपनी भाषा, अपनी तरलता, अपना विचलन और अपनी ही कहन-शैली होती है. नीलाक्षी ने दो देशों के साहित्य में जो कद्दावर भाषाई पुल बनाया है, वह भारतीय परिप्रेक्ष्य में सहजता से अपनी पहचान और गर्व के साथ मिलता है. नीलाक्षी ने उन्न को वही सितारा बने रहने दिया है जिसे थारयै वेसोस ने अपने आसमान में एक बार रचा था और सिस के कदमों की उन्हीं आहटों को जस का तस यहां निर्मित किया है जिसने कभी थारयै वेसोस यानी मूल लेखक के हृदय में भी एक ठंडी पीड़ा दी होगी.
इसी के साथ मुझे लगता है कि यह कहना भी उचित होगा कि यह खूबसूरत उपन्यास उन हिंदी पाठकों के लिए नहीं है जो हर समय राजनीति,धर्म और विमर्श की चीखती और शोर मचाती आवाजों में अपना शोर मिलाने के लिए हद तत्पर रहते हैं, ताकि किसी आंतरिक पीड़ा को खुद तक पहुंचने देने से पहले ही मुंह मोड़कर दूसरे शोर में हिस्सेदारी को मुड़ जाएं.
यह उपन्यास कुछ सुंदर, गहरा और अस्तित्वपरक पढ़ने की इच्छा को ही पूरा कर सकता है. इस उपन्यास तक अगर कोई आए तो अपनी पीड़ाएं और अनकहे के असीम धैर्य के साथ आए. किताब के जमे ठहराव में धैर्य के साथ रहे. शायद तभी यह महसूस होगा कि कभी-कभी बीतने में बीत जाना ही जीवन और कला दोनों की पराकाष्ठा है, एक अंत है, उस शुरुआत का जहां केवल होने में न होना ही मान्य है, सत्य और ढह जाने जितना सुकून है. जैसे उपन्यास की ये आख़िरी पंक्तियां -
'तैरते जाना.
फिर पिघलते जाना.
फिर चले ही जाना.'
अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
(पूनम अरोड़ा, इतिहास, मास कम्युनिकेशन और हिंदी में स्नातकोत्तर, हरियाणा साहित्य अकादमी युवा लेखन, फिक्की यंग अचीवर अवॉर्ड और सनातन संगीत संस्कृति पुरस्कार विजेता लेखिका हैं. उनकी रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित और कई भाषाओं में अनूदित हुई हैं. उनका एक काव्य संग्रह 'कामनाहीन पत्ता', उपन्यास 'नीला आईना' और 'परख' नामक कृतियां प्रकाशित हैं.लेखिका ने'बारिश के आने से पहले' नामक किताब का संपादन भी किया है.)