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This Article is From Mar 24, 2016

बांग्लादेश मैच : सोचिए, कल भारत हार जाता तो क्या हाल करते?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 24, 2016 12:22 pm IST
    • Published On मार्च 24, 2016 12:13 pm IST
    • Last Updated On मार्च 24, 2016 12:22 pm IST
न बांग्लादेश की हार है, न भारत की जीत है, यह तो ‘खेल की विजय’ है। यह जरूर है कि बदलती दुनिया, बदलते फार्मेट में ऐसे मौके कम ही आते हैं जब रोमांच इतने चरम पर होता है, जब सांसें रुक सी जाती हैं, जब ब्लड प्रेशर तेजी से ऊपर-नीचे होता है, जब हर गेंद, हर पल भारी पड़ता दिखाई देता है, जब हर गेंद पर समीकरण बदल से जाते हैं, जब मैच के परिणाम किसी भी, किसी भी तरफ झुक जाते हैं।

कल रात जब बांग्लादेश से भारत की क्रिकेट टीम अपना किला भिड़ा रही थी, तब ऐसा ही हुआ। लंबे समय बाद ऐसा हुआ। परिणाम चाहे जिस तरफ जाता, विजय चाहे जिसे चुनती, लेकिन केवल खेल और केवल खेल के नजरिए से देखा जाए तो यह एक बेहद रोमांचक मुकाबला साबित हुआ। सारी सीमाओं को तोड़ होली पर दिवाली सा जश्न मनाने का जिसने मौका दिया वह क्रिकेट ही है। ऐसे ही खेल के लिए हमारे महाद्वीप की दीवानगी चरम पर सिर चढ़कर बोलती है। सच पूछा जाए तो ऐसे ही आनंद के लिए तो हम मरे जाते हैं।

बहुत बचपन का कोई मुकाबला याद है संभवत: ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ। केवल एक रन से हार गया था भारत। तब इतने मैच भी नहीं होते थे। इतनी जल्दी जल्दी-नहीं होते थे। छह सौ बॉल से कम के नहीं होते थे। कक्षा से समय चुराकर पांच दिनों का टेस्ट मैच तब धैर्य से देख लिया करते थे। सफेद ड्रेस को रंगीन होते देखने और इसी बीच सचिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी की पूरी पारी का एक-एक मैच हमारी पीढ़ी ने सीधे-सीधे देखा, उसको जिया, और यह अपने आप में फख्र करने जैसी स्थिति है।

लेकिन इसी बीच क्रिकेट और बाजार के संबंधों ने जो इस खेल को अपनी गिरफ्त में लिया उसे भी हमने सीधे अपनी आंखों से देखा। हमने खिलाड़ियों को बिकते देखा, नीलाम होते देखा। हमने सभ्य लोगों के खेल को बदलते देखा। छह सौ गेंदों का मैच 240 गेंदों तक आ जाएगा यह तो कभी सोचा नहीं था, पर आया। हमने देखा कि कैसे इस खेल में हम अपनी टीम ही तय नहीं कर पा रहे हैं। हम सोचते रहे कि किस टीम को वोट दें, भारत की टीम कोहली की टीम, धोनी की टीम में बदल गईं। आईपीएल जैसी प्रतियोगिताओं ने इस खेल और उस खेल में हमारे प्रतिमानों को तोड़ा। हमने यह कभी नहीं सोचा था कि दुनियाभर के खिलाड़ी हमारे देश की ही कई टीमों से खेलेंगे। हमने कभी नहीं सोचा था कि क्रिस गेल से लेकर कई पाकिस्तानी खिलाड़ी कभी भारत के कुछ शहरों के नाम पर बनी टीम के नाम पर खेल पाएंगे। तमाम धुरंधर हमें आईपीएल की खिचड़ी में नजर आएंगे। लेकिन हमारी ही सहिष्णुता है कि हमने इस फार्मेट को भी सफल बना दिया। बेहद सफल बना दिया।

भले ही हम दूसरे मोर्चों पर एक बेहतर भारतीय बनने में असफल सिद्ध हुए हों, लेकिन क्रिकेट देशभक्ति का एक पैमाना बन गया। इसके अतिवाद ने एक वर्ग को इससे दूर भी किया। हमें लग गया कि यह खेल नहीं है, बाजार बन गया है। बाजार से देशभक्ति तय नहीं की जा सकती। आरोप यह भी कि पैसा लेकर खेल किसी भी तरह की भक्ति का द्योतक नहीं, यह तो धंधा है। या एक किस्म की नौकरी। इसे सेवा से पृथक रखा जाए।

लेकिन खेल तो खेल है। एक स्वस्थ मनोरंजन। कल जैसे ही खेल की हम अपेक्षा करते हैं, किसी का भी हो। हमें गेल के छक्के देखना उतना ही अच्छा नहीं लगता जितनी कि अश्विन की चकमा देती गेंदबाजी? पर क्या हम गेल की तारीफ कर पाते हैं ? लेकिन हम भूल जाते हैं हमेशा कि सामने वाला उतनी ही तैयारी से मैदान में उतरता है। प्रतिद्वंदी भी उतनी ही ताकत झोंक देता है। कल्पना कीजिए, यदि कल भारत यह मैच हार जाता तो हम पांडया का क्या हाल कर देते! धोनी से हार्दिक को ओवर पकड़ाने पर क्या-क्या सवाल उठाते? पांच या दस और रन बनाने के लिए पूरी टीम को कितना कोसते? क्या खेल के नए सितारों बांग्लादेशियों की मेहनत और जीत की कोशिशों को हम अनदेखा कर देते?  

हम खेल देखते हैं लेकिन अक्सर खेल भावना को भूल जाते हैं। हर एक विजयी मैच के बाद हीरो बनाने और हर एक हार के बाद विलेन बनाने के लिए हम कितने उतावले हो जाते हैं। हम कितनी आसानी से भूल जाते हैं कि जीत का हक सामने वाली टीम को भी है। किसी भी खेल में एक पक्ष जीतता और एक पक्ष हारता है। यही खेल है, इसे हम कैसे भूल जाते हैं?

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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