पार्टी के विस्तार को लेकर अब तक नाकाम रहे अरविंद केजरीवाल ने अपनी आम आदमी पार्टी के प्रभाव को बढ़ाने के लिए नई योजनओं की घोषणा की है. उन्होंने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी 2022 में होने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ेगी. राज्यसभा सांसद और पार्टी के राजनीतिक रणनीतिकार संजय सिंह, जो स्थानीय चेहरा भी हैं, पार्टी संगठन को आगे बढ़ाने के लिए राज्य में दौरे कर रहे हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की खुलेआम आलोचना कर अपने बॉस की नजरों में वैसे भी उन्होंने अपना स्थान ऊंचा कर लिया है. हालांकि उन्हें इसका खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा है और राज्य सरकार ने उनके खिलाफ दर्जन भर से ज़्यादा मामले दर्ज कराए हैं.
केजरीवाल हाल में एक वीडियो में गोवा में जिला परिषद का चुनाव जीतने वाले अपनी पार्टी के एक सदस्य को बधाई देते हुए भी दिखे. इस तटवर्ती राज्य में AAP की यह पहली कामयाबी है. 2017 में हुए गोवा विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को छह फीसदी वोट हासिल हुए थे. दिल्ली और पंजाब के बाद यह AAP का तीसरा बेहतरीन प्रदर्शन था. 2017 में तो पार्टी पंजाब में मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी थी.
ये सारे एक बड़ी तस्वीर के हिस्से हैं. केजरीवाल अभी चल रहे किसान आंदोलन के दौरान सक्रिय रहे हैं. उन्होंने केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों का समर्थन किया है और पिछले तीन हफ्ते से दिल्ली की सीमा पर धरना दे रहे किसानों से मिले भी. वह मंगलवार को किसानों द्वारा आहूत अनशन में भी शामिल हुए. किसानों का समर्थन कर, जो मुख्यत: पंजाब से हैं, केजरीवाल बेहतर प्रदर्शन पर काम कर रहे हैं, जहां अगले साल चुनाव होने वाले हैं. पंजाब के किसानों का समर्थन कर वह आंतरिक असंतोष और कलह का सामना कर रही AAP को एक बार फिर राज्य में प्रासंगिक बनाना चाहते हैं.
साल 2017 तक माना जाता रहा था कि केजरीवाल और उनकी पार्टी में देश के बड़े और पुराने राजनीतिक दलों की जगह लेने की क्षमता है. इसे एक ऐसी पार्टी के रूप में देखा गया, जो बुरी तरह पस्त कांग्रेस की जगह ले सकती थी. शायद पार्टी इस धारणा में बह गई और 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में उसने 400 से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा. पंजाब को छोड़कर, जहां इसे चार लोकसभा सीटों पर जीत मिली, पार्टी को और कुछ भी हासिल नहीं हुआ. दिल्ली में, जहां 2013 में AAP ने सरकार बनाई थी, पार्टी सभी सात लोकसभा सीटें हार गई. 2019 में भी यही कहानी दोहराई गई, लेकिन इसी साल की शुरुआत में दिल्ली में हुए चुनाव में केजरीवाल का जादू फिर चला और पार्टी ने 70 में से 62 सीटें जीत लीं.
तो क्या केजरीवाल के दिल्ली मॉडल को अन्य राज्यों में दोहराया जा सकता है...? मेरा जवाब 'न' है. केजरीवाल के साथ बेहद करीब से काम कर चुका होने की वजह से, मैं मानता हूं कि वह उस चीज़ से चूक गए हैं, जो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर करिश्माई बना सकता था. इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी और अमित शाह की तरह केजरीवाल भी 24 घंटे राजनीति ही करते हैं और हमेशा वह कुछ अलग सोचते हैं. उनमें अपने विरोधियों को चौंकाने की प्रवृत्ति है. वह बेहद मेहनती हैं और दिल्ली के लिए एकाग्र मन से लक्ष्य का पीछा करना अद्वितीय है और उसी में उनकी काबिलियत है.
लेकिन राजनीति में कामयाब होने के लिए किसी पार्टी को तीन चीज़ों की आवश्यकता होती है - एक करिश्माई नेता की, जो मतदाताओं की कल्पनाओं को समझे, काडर, जो पार्टी को चला सके और इसकी पहुंच को बढ़ाए और राष्ट्रीय पार्टी के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए संसाधन. केजरीवाल को दो साल से भी कम वक्त में एक नई पार्टी बनाकर दिल्ली की सत्ता हासिल कर लेने के असंभव कार्य का श्रेय हमेशा दिया जाना चाहिए. वह ऐसा कर सके, क्योंकि वह एक ईमानदार नेता और व्यवस्था को बदलने के लिए प्रतिबद्ध एक पार्टी के विचार को बेचने में कामयाब रहे. हमारे जैसे आध्यात्मिक समाज में उन्होंने नैतिकता को प्रतीक बना दिया. लेकिन अब नैतिकता को लेकर उनकी छवि उस शख्स की नहीं रही, जिसकी विचारधारा उसकी राजनीति से ऊपर हो. समय के साथ उनमें और अन्य राजनेताओं में कोई फर्क नहीं रह गया. और आम आदमी एक बार फिर बेवकूफ बनना पसंद नहीं करेगा.
एक मसीहा या असाधारण नेता ने अल्पसंख्यक समुदाय को तब अकेला नहीं छोड़ा होता, जब फरवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़क उठे थे. उन्होंने उनके लिए सहानुभूति का एक शब्द नहीं कहा, वह उनसे मिलने नहीं गए, यहां तक कि बाद में भी खामोश ही रहे, यह जानते हुए भी कि दिल्ली पुलिस ने फर्ज़ी मामले थोपे हैं और केवल एक समुदाय को निशाना बनाया है.
केजरीवाल में किसी भी प्रकार की व्यवस्था को लेकर विरोध अंतर्निहित है. वह लाचार महसूस करते हैं और वह व्यक्तिपरक हैं. यह एक कारण है, जिसकी वजह से उन्होंने अपनी योग्यता और ऊर्जा को न तो टीम बनाने में और न ही संगठन बनाने में लगाया. यहां तक कि दिल्ली में भी संगठन की हालत बुरी है. वह BJP की वजह से जीते, जो संगठनात्मक रूप से काफी मज़बूत होते हुए भी मुख्यमंत्री पद को कोई मज़बूत उम्मीदवार नहीं दे सकी, जो उनकी वाकपटुता का मुकाबला कर पाए. पंजाब इसका उत्कृष्ट उदाहरण है. AAP ने संगठन को काफी मजबूत कर लिया, लेकिन 2017 के चुनाव में हार के बाद पूरे संगठनात्मक ढांचे को ही भंग कर दिया गया और उसे दोबारा बनाने की कोशिश तक नहीं की गई. गोवा में भी पार्टी ने अपना आधार मजबूत करने के लिए बहुत मेहनत की, लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म हुए, उसे काफी हद तक अनाथ छोड़ दिया गया.
आम आदमी पार्टी के पास कभी भी इतने वित्तीय संसाधन नहीं थे कि उसे बड़ा खिलाड़ी माना जाए, लेकिन यह पार्टी का क्रांतिकारी उत्साह ही था, जिसने कम से कम मूल रूप से दानदाताओं को आकर्षित किया.
केजरीवाल कहते हैं, 'दिल्ली बदली है, UP बदलेंगे.' लेकिन दिल्ली के मुद्दे उत्तर प्रदेश की तुलना में बिल्कुल अलग हैं. केजरीवाल की बातें केवल बातें ही रह जाएंगी.
आशुतोष दिल्ली में बसे लेखक व पत्रकार हैं...
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