ये भीड़ का स्केच है। ये भीड़ कहीं भी और कभी भी बन सकती है। कल भी बनती थी और आज भी बन रही है। मैं उस भीड़ की बात कर रहा हूं जो जमा होते होते 5,000 तक पहुंच जाती है और अहमदाबाद के गुलबर्ग सोसायटी पर धावा बोल देती है। अहसान जाफरी को उनके ही घर में जलाकर मार दिया जाता है। भीड़ 69 लोगों को मार कर चली जाती है। 14-15 साल पहले की बात है। आज से 32 साल पहले इसी तरह की भीड़ दिल्ली की सड़कों-मोहल्लों में बन जाती थी और सिखों का नरसंहार कर चली जाती थी। कई बार ये ख़्याल आता है कि किसी को मार देने वाली भीड़ कैसे बन जाती होगी, जो लोग ऐसी भीड़ में शामिल होते हैं, वो अचानक किसी को मारने के अभियान में कैसे शामिल हो जाते हैं। क्या सभी किसी पार्टी के होते होंगे, कोई हांक कर ले जाता होगा या ख़ुद ही शामिल हो जाते होंगे। किसी को मार कर आने के बाद अपने कपड़े कहां छिपाते होंगे, घर में किस किस को बताते होंगे कि आज हम फलानी भीड़ में किसी को मारने गए थे। ज़ाहिर है सबके नाम तो मुकदमे में नहीं आते, मगर भीड़ में जाने वालों को तो पता होता होगा। क्या इन्हें कभी डर नहीं लगता होगा, कभी अफसोस नहीं होता होगा कि किसी के भड़काने पर हत्या कर बैठे और भड़काने वाला सियासी हवा गरमाते गरमाते सत्ता के शिखर पर पहुंच गया। सैकड़ों दंगों में भीड़ बनकर किसी को मार आने वाले लोग अकेले में क्या सोचते होंगे।
कांग्रेस सरकार के समय हुए मुंबई और भागलपुर दंगे, सपा सरकार के समय हुए मुज़फ्फरनगर, आज़मगढ़ के दंगे... सैकड़ों देंगे हुए और आज भी होते जा रहे हैं। जब भी हम टीवी पर दंगों की चर्चा करते होंगे तो क्या भीड़ में शामिल हुए लोग भी देखते होंगे, मालूम नहीं। अगर आप ऐसी भीड़ का हिस्सा रहे हैं या ऐसे किसी को जानते हैं तो मुझे अकेले में बता सकते हैं। मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगा। कुछ सवाल पूछूंगा, कुछ बात करूंगा।
ईमान की बात पहले कर ली क्योंकि इंसाफ़ की बातों में ऐसी बातें और ऐसे लोग रह जाते हैं जिन्हें मैंने स्केच के ज़रिये आपको दिखाया। 28 फरवरी 2002 के दिन अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी पर भीड़ ने हमला कर दिया था, जिसमें 69 लोग मारे गए। दंगाइयों ने कई लोगों को ज़िंदा जलाकर मार दिया। 39 के शव मिले मगर बाकी के मिले भी नहीं। 14 साल से चल रहे इस मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट की बनाई एसआईटी ने 66 लोगों को आरोपी बनाया था जिनमें से वो 36 के ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत पेश नहीं कर पाई। इस केस में एक पुलिस अफसर भी आरोपी था, जो बरी हो गया है। सज़ा का एलान 6 जून को होगा।
इस फैसले में महत्वपूर्ण बात ये रही कि कोर्ट ने इसे किसी षडयंत्र के तहत हुआ हत्याकांड नहीं माना। कुल दोषियों में से 13 को कम संगीन जुर्म में दोषी माना यानि एसआईटी ने जिन 66 लोगों के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दायर किया था, उसमें से आधे लोगों को सज़ा दिलाने में नाकाम रही।
तो क्या बिना किसी षडयंत्र या सुनियोजित तरीके से इतना बड़ा कांड हो गया होगा। बीजेपी के मौजूदा पार्षद विपिन पटेल और कांग्रेस नेता मेघसिंह चौधरी बरी हो गए हैं, लेकिन विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े रहे अतुल वैद दोषी पाए गए। कैलाश धोबी भी दोषी पाया गया है लेकिन वो परोल पर छूटने के बाद फरार है। मांगीलाल जैन को भी सज़ा मिली है जिसके बारे में आम आदमी पार्टी के नेता आशीष खेतान ने ट्वीट किया है कि मांगीलाल जैन का उन्होंने स्टिंग किया था। आशीष खेतान ने अपने स्टिंग की बातें फेसबुक पर डाली है जो उस वक्त काफी छपी थीं और चर्चित हुई थीं। इसके एक हिस्से में मांगीलाल जैन, आशीष खेतान से कह रहा है कि-
आशीष खेतान- तो उस दिन आप पूरे दिन बस भीड़ में थे
मांगीलाल जैन- भीड़ में थे।
आशीष खेतान- और जय श्री राम का नारा लगा
मांगीलाल जैन- भीड़ में हम, हमारे दोस्त बहुत से लोग थे। जय श्री राम के नारे लगा रहे थे, उसमें सर देखो कितने तो चेहरे ऐसे थे जिन्हें हम पहचानते नहीं हैं लेकिन भरत तेली, अतुल बैद्य बहुत सारे लोग आए थे। दूर दूर से। बापू नगर से, मेघनी नगर से।
आशीष खेतान- लेकिन भरत तेली और अतुल वैद्य अपनी मज़बूती से लड़े
मांगीलाल जैन- ये लोग थे सर, टोली में थे और इन लोगों के साथ में बहुत सारे लड़के थे उस दिन। पचास हज़ार में किसे पहचाने कौन थे।
आशीष खेतान- ये अपने विश्व हिन्दू परिषद वाले आए थे
मांगीलाल- हां, गाड़ी भर-भर कर आए सब
मांगीलाल जैन को सज़ा हुई है। मांगीलाल जैन विश्व हिन्दू परिषद के जिस अतुल वैद्य का नाम ले रहा था उसे भी कम संगीन जुर्म में सज़ा हुई है। स्टिंग ऑपरेशन में मांगीलाल जैन ने ठीक ही कहा कि उस दिन की भीड़ में इतने चेहरे थे कि पहचाने नहीं थे। लोग कई मोहल्लों से गाड़ियों में भर कर लाए गए और आए भी। गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 कोच में आग लगाने से 59 लोग मारे गए थे उसके बाद गुजरात के बड़े हिस्से में दंगे भड़के थे। यह आप तय करें कि मांगीलाल जैन और अतुल वैद्य को क्या मिला और उनकी इस हिंसा का लाभ उठा कर किसे क्या मिला। इंसाफ़ हुआ या नहीं ये सवाल किसके लिए महत्वपूर्ण है। जो बच गया उसके लिए या जो मार दिए गए लोगों के लिए लड़ने के लिए बचा रहा।
गुलबर्ग सोसायटी की रहने वाली पारसी महिला रूपा मोदी का घर भी जला दिया गया था। रूपा मोदी का बेटा उस दिन से ग़ायब है। कई साल वे इंतज़ार करती रहीं मगर सात साल बाद सरकारी कागज़ों में उसे मृत घोषित कर दिया गया। रूपा मोदी की कहानी पर ही फिल्म 'परजानिया' बनी थी। रूपा को भी इस फैसले का इंतज़ार था। गुलबर्ग सोसायटी के 29 बंगलों और छह-सात फ्लैट में एक घर उनका भी था।
यह मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। 2002 से आठ लोग हिरासत में थे जिनमें से ज़्यादातर दोषी पाए गए हैं। फैसले की कॉपी पढ़ने के बाद ही बाकी बातें विस्तार से पता चलेंगी। साबरमती एक्सप्रेस से लेकर गुजरात में हुए कई दंगों में सज़ा तो हुई है। यह भी सही है कि कई लोग छूट गए मगर सजा पाने वालों और उस वक्त की मीडिया में आए नाम में काफी समानता भी मिलती है। अगस्त 2012 में नरोदा पाटिया मामले में भी फैसला आया था। इसमें 31 लोगों को दोषी पाया गया था जिसमें 30 लोगों को उम्र कैद की सज़ा हुई थी। इनमें माया कोडनानी भी थीं जो उस वक्त गुजरात में मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री थीं। माया को इस्तीफा देना पड़ा था। माया कोडनानी इस वक्त ज़मानत पर हैं। बाबू बजरंगी जेल में है। जुलाई 2015 में इस मामले की गुजरात हाईकोर्ट में सुनवाई शुरू हो चुकी है।
गुजरात दंगों से जुड़े कई मामलों में फैसले आए हैं और आते जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में भी कई मामले चले तो कुछ फास्ट ट्रैक कोर्ट और स्पेशल ट्रायल कोर्ट में। कई मामलों में बरी होने की संख्या बहुत है मगर संतोष किया जा सकता है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय से लोग सज़ा पाने वालों की सूची में है। पता नहीं जिस भीड़ का हिस्सा बनकर वो गए थे, अब जेल जाने के बाद वो भीड़ उनके परिवार का हाल पूछने जाती भी होगी या नहीं। इसलिए ऐसी भीड़ का हिस्सा बनने से पहले सोच लीजिएगा। कुछ बच जायेंगे मगर कुछ नहीं भी बच पायेंगे।
सुप्रीम कोर्ट की एसआईटी ने साबरमती एक्सप्रेस हत्याकांड में 94 लोगों को आरोपी बनाया था। 2011 में 31 लोगों को सज़ा दी गई और बाकी बरी कर दिए गए। सज़ा पाए लोगों में 11 को उम्र क़ैद और बाकी को फांसी की सज़ा मिली है।
इसका मुख्य आरोपी फारूख़ मोहम्मद पिछले महीने पकड़ा गया है। 2011 में मेहसाणा के सरदारपुरा दंगे मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 31 लोगों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई, 42 को बरी कर दिया। 2012 में मेहसाणा के दीपड़ा दरवाज़ा केस में 21 लोगों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई। सज़ा पाने वाले सभी पटेल समुदाय के थे। 2012 में ओड कस्बे में बोहरा परिवार के एक घर पर हुए हमले के मामले में 23 लोगों को सज़ा हुई, 23 बरी हो गए। 2016 में खेड़ा ज़िले में 118 लोगों को बरी कर दिया। बरी होने वालों में हिन्दू मुसलमान दोनों थे।
किसी केस में कोई बड़ा नेता नहीं फंसा है। माया कोडनानी और बाबू बजरंगी को छोड़कर। हर केस में राजनीतिक दल के लोग छूटते चले गए हैं। डेढ़ सौ के करीब लोगों को सज़ा हुई है। दिसंबर 2015 में गृह राज्य मंत्री हरिभाई चौधरी ने राज्य सभा में बताया था कि दिल्ली की अलग अलग अदालतों में 1984 के सिख विरोधी दंगे में 442 लोगों को सज़ा हो चुकी है। ये मौजूदा केंद्र सरकार का राज्य सभा में दिया बयान है। हमारी सहयोगी नीता शर्मा ने पता लगाकर बताया है कि दिल्ली में सिख विरोधी दंगों में 650 केस दर्ज हैं। इस वक्त भी अलग-अलग जेलों में 70 से 80 लोग अलग-अलग प्रकार की सज़ा काट रहे हैं। इन मामलों में भी हज़ारों लोग बरी हुए हैं। मगर किसी बड़े नेता को सज़ा नहीं हुई। तो क्या इन दंगों का सबक यही है कि बड़े लोग बच जाते हैं या बचा लिए जाते हैं, जो कार्यकर्ता टाइप के पार्टी भक्त होते हैं, उनमें से कुछ लोगों को उम्र कैद की सज़ा से लेकर फांसी के फंदे तक गुज़रना पड़ता है। 24 लोग मिल कर क्या 69 लोगों को मार सकते हैं....कुछ तो होंगे जो बचे होंगे आज की रात टीवी देख रहे होंगे....उनका भी स्वागत है प्राइम टाइम में...
This Article is From Jun 02, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : दंगों का सबक यही कि बड़े लोग बच जाते हैं या बचा लिए जाते हैं?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जून 02, 2016 21:41 pm IST
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Published On जून 02, 2016 21:41 pm IST
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Last Updated On जून 02, 2016 21:41 pm IST
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