कोई कहता है आपकी रागदारी धीमी है, ज़रूरत से ज्यादा...शायद इसी के बीच संगीत और सुरों से आप जातिवाद के बीच किसी को अफ़सुर्दा जान पड़ते हों। बिहाग में सारामाइना मातालेंदु जब आप गाते हैं तो सुरों की लरज़िश में भाषाई आलिम ना होने का फर्म मुझे लगता ही नहीं, उस ईश्वर के साथ विरह खुद बन जाता है। राग केदार में आपके पंचभूत में शिव को ढूंढ रहा था, हंसध्वनि में तुलसी के राम राजीव लोचनम से तरने का मन नहीं था। आदि ताल में निबद्ध राग को सुनते-सुनते एक कैनवास बन गया, यहां यह बता दूं कि आप किसी साकार ईश्वर को नहीं मानते दिखते हैं, लेकिन आपके संगीत से मुझे ऐसा लगा...फिरदौस सा अहसास !!
दरबारी तराना से तिल्लाना का सफर अलग लगा ही नहीं, इस नृत्य शैली को आप सजीव कर देते हैं बिल्कुल जैसे आपने समाज को किया है। हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत दोनों राग और ताल प्रधान हैं, यहां कोई फर्क नहीं सिवाय इसके कि कर्नाटक शैली में रागदारी थोड़े कम वक्त की होती है। शायद त्यागराज, दीक्षितार और श्यामा शास्त्री की 'त्रिमूर्ति' भी आपको सुनने बैठ जाती होगी। पुरंदर दास आप पर इठलाते होंगे कि जो शैली में पूजा-पाठ, मंदिर, नायक-नायिका प्रधान थी उसे आप समाज के बीच ले गये सामाजिक विषयों को रागदारी में लपेट दिया। देवी- देवताओं के संबोधन में दलितों की बात उठाई, आसान नहीं जिस कोख को आपने चुना नहीं, उसमें पैदा होकर ब्राह्मणवाद को चुनौती देने का साहस..ऐसे ही कोई थोडुर मादाबुसी कृष्णा नहीं बनता!!
टी एम लगातार कर्नाटक संगीत को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं जो उनके ख्याल से संभ्रातों के बीच सिमटा था। चेन्नई की झुग्गियों में सुबह की महफिल सजाने से लेकर मछुआरों की बस्ती में जाकर गाने तक, बावजूद इसके 'एलिट महफिल' आपको नकार नहीं सकती। आरोप आप पर भी कम नहीं हैं जैसे कि संगीत को सियासी बनाने का सबसे पहले आरोप। कहा जाता है अदीब दिखने-बनने की कोशिश में महफिल बीच में छोड़ देते हैं ताकी आप सुर्खियों में बने रहें। यह भी बताया गया कि संगीत कोई सरकारी नौकरी नहीं है जिसमें आरक्षण मिले लेकिन यह कोई नहीं बताएगा कि समान मौका देने के लिये समाज ने क्या किया?
कृष्णमूर्ति फाउंडेशन से पढ़े लिखे, अर्थशास्त्र में ग्रैजुएट कृष्णा ने इन फि़करों की परवाह नहीं की। संगीत की सीमा नहीं होती इसलिये गृहयुद्ध से प्रभावित श्रीलंका में भी सालों काम किया समाज को जोड़ने के लिये। कृष्णा को सुनते जाने पर सीरतें खुलती जाती हैं, उनके ( भावम) आपको नये अहसास से भर देते हैं। कई बार वह महफिल में तान-आलाप-बंदिश को नहीं मानते उस निर्माण को तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मणों के घर में पैदा होकर वह संगीत में ब्राह्णवाद के ख़िलाफ लड़ रहे हैं। वर्णम को बीच में लाकर उन्होंने परंपरावादियों को एक चुनौती सी दे दी थी। एक स्वतंत्र कलाकार, लेखक, वक्ता के तौर पर। संगीत ने कृष्णा की कलात्मकता को आकार-आधार दिया लेकिन उन्होंने इस कला के सामाजिक आधार पर सवाल खड़े किए, उसके जाति वर्चस्व के खिलाफ खड़े हुए। शायद यही बेबाकी कंसर्ट के बीच बेअदबी से पैर हिलाने वाले किसी वीआईपी, घड़ी देखने वाले किसी सज्जन पर भी निकल जाती है। घंटे भर गाने के बाद मन ना होने पर सभा से कहने का साहस रखते हैं बस हो गया।
कहीं पढ़ा था कि उनकी किताब "A Southern Music: The Karnatik Story " पर अर्मत्य सेन की टिप्पणी थी कि अब तक उनकी पढ़ी सर्वोत्तम कृतियों में से एक। एक अर्थशास्त्री बनने की ख्वाहिश लिये शख्स पर एक महान अर्थशास्त्री की टिप्पणी। 6 साल से मां ने कृष्णा को संगीत का ककहरा सीखने के लिये छोड़ दिया। 12 साल में टीएम ने स्टेज पर पहली बार सुर बिखेरे। लेकिन कुछ सालों बाद संगीत और सोच में गहरा रिश्ता बना, मैं क्यों गाता हूं कर्नाटिक संगीत के बीच शास्त्रीय शब्द अभिजात्य क्यों लगता है। दशकों से संगीत की कचहरी तोड़ने के पीछे कृष्णा के अपने तर्क हैं। ऐसे में उन्होंने संगीत के सामाजिक ढांचे को बदलने की ठानी।
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद द हिन्दू में आपकी टीप से आपको वामपंथी भी करार दिया गया। बहरहाल, संगीत सुनने के लिये होता है , हम सुनेंगे कृष्णा दलितों-मछुआरों-संभ्रांतों की बस्ती में जहां भी ढांचे को आप तोड़ें आपके साथ कई हाथ खड़े होंगे...बस हमीर में, कल्याणी में अपने बेनज़री तिल्लाना से तीली जलाते रहना...मशालें जल उठेंगी....
(अनुराग द्वारा एनडीटीवी में एसोसिएट ऐडीटर हैं)
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This Article is From Jul 29, 2016
कर्नाटक संगीत को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश में कृष्णा का क़ाफ़िया...
Anurag Dwary
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 29, 2016 12:08 pm IST
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Published On जुलाई 29, 2016 12:08 pm IST
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Last Updated On जुलाई 29, 2016 12:08 pm IST
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