एक बच्ची का बाप हूं... बच्चों से बेपनाह प्यार भी है. रायपुर से भोपाल लौटते वक्त रास्ते भर यही दुआ करता रहा कि बच्चे लौट आएं...वो लौटे 12 दिन बाद... नींद में थे. ...गहरी नींद. जागती आंखों से नींद गायब थी, वो संयुक्त राष्ट्र महासभा के 'कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ चाइल्ड' समेत बच्चों के मौलिक अधिकारों की रूपरेखा जैसी कितनी बकवास बातें याद कर रही थी. विकास, संरक्षण, भागीदारी और जीवन रक्षा सच में जीवन रक्षा, सियासत उन्मादी है, पुलिस लापरवाह... लेकिन मीडियाकर्मी? मध्यप्रदेश को सबसे गजब ऐसे ही थोड़े कहते हैं. ज़रा सोचिये दो आईजी, दर्जन भर आईपीएस, 500 से ज्यादा अधिकारी, यूपी एसटीएफ, सायबर सेल, जाने क्या-क्या... इन सबके बीच 6 नौसिखिये आरोपी बच्चों को दो दिन चित्रकूट में ही लेकर बैठे रहे लेकिन पुलिस को भनक तक नहीं? सघन चेकिंग, नाकेबंदी के तमाम दावों के बीच आरोपी फिर बच्चों को बोलेरो में लेकर मध्यप्रदेश से उत्तर प्रदेश निकल गये. पुलिस को भनक तक नहीं.
ऐसे मामलों में सबसे पहले सवाल जवाब करीबियों से होता है लेकिन पुलिस तो डकैतों के नाम तक ढूंढ लाई, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने वाले रामकेश यादव तक उसके सवालों की लिस्ट पहुंच भी नहीं पाई. परिजनों को फिरौती के लिये कॉल आई. पुलिस को पता था तो फिर उसके बाद पुलिस ने क्या किया, इंतज़ार...? गजब सर... आपको पता था मीडिया को क्या चाहिये? 12 दिन आपको आरोपियों का सुराग नही मिला, लेकिन 4 घंटे में बीजेपी, बजरंग दल के झंडे-बैनर-पोस्टर सब ढूंढ लिये. और अब आप साथी... किस अधिकार से लगभग सारे अख़बारों में, चैनलों में बच्चों की तस्वीर, सीसीटीवी सबको दिखा दिया गया? क्या एक बार हमने सोचा कि इससे बच्चों की सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती है.
जे जे एक्ट, प्रेस काउंसिल के नियमों से लेकर आईपीसी 228-ए सबमें प्रावधान है- रिश्तेदारों की लिखित अनुमति के साथ थोड़ी बहुत ढील है, क्या अपने गिरेबां को टटोलकर हम बता पाएंगे कि कितने लोगों ने जाकर परिजनों से तस्वीर दिखाने के लिए लिखित आश्ववासन लिया? अगले दिन सुर्खियों में वही, पुलिस की नाकामी छोड़कर बाकी सारे सवाल. किस रंग का गमछा था, किसका झंडा, किसका पोस्टर? ये नहीं पूछेंगे नाकामी किसकी थी? क्या यही है रामराज्य? आबादी तो 39 फीसद है लेकिन वोट नहीं देते, सो हर राजराज में गुम रहती है तो बस इनकी आवाज़.
(अनुराग द्वारी एनडीटीवी में एसोसिएट एडिटर हैं)
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