श्रीमान बुद्धिबल्लभ जी देश के अत्यंत सम्मानित बुद्धुजीवी हैं.
सम्मानित इसलिए कि वे हर विषय पर बोल सकते हैं — चाहे वह किसी और भाषा में क्यों न हो.
एक दिन, जब बंगाल में दंगे हुए, तो श्रीमान बुद्धिबल्लभ जी ने अपने अध्ययन कक्ष से धुआंधार ट्वीट करना शुरू कर दिया.
उन्होंने पहला ट्वीट लिखा —
"दंगाइयों का कोई धर्म नहीं होता"
जब किसी ने विनम्रता से पूछा कि पकड़े गए लोग बिहार से आए थे और भाषा भी नहीं आती थी, ऐसा कहा जा रहा है - तो श्रीमान बोले —
"भाषा कोई बाधा नहीं है, भावना महत्वपूर्ण है."
यह कहकर वे अपनी किताब "दंगों में संवेदना का महत्व" का हवाला देने लगे, जिसे किसी ने पढ़ा नहीं था, परंतु सबने सराहा था.
सभा में किसी समझदार ने मुझे बताया दरअसल - जब बंगाल में दंगा हुआ तो बिहार से आयातित दंगाइयों ने ‘की होलो रे ' की जगह ‘का हाल बा?' बोल दिया. पकड़े गये तो बांग्ला में ‘मारो...' भी नहीं बोल पाए.
किसी पत्रकार ने गोधरा का संदर्भ दे दिया —
तो श्रीमान बुद्धिबल्लभ जी की आंखें चमक उठीं।
वे बोले —
"गोधरा एक सृजनात्मक त्रासदी थी। उसमें पीड़ित और अपराधी के बीच की रेखा धुंधली कर दी गई थी. यही तो हमारी संस्कृति का सौंदर्य है!" अरे वहां तो डिब्बे में बैठे लोग आग-आग खेल रहे थे ... जैसे आदमी खुद अपनी मच्छरदानी में आग लगा दे और फिर खांसी करे.
मैं भी तारीफ कर उठा - अरे बुद्धिबल्लभ जी ... आपकी संवेदना तो माशाअल्लाह ऐसी है जैसे किसी ने मोमबत्ती भी जलाई नहीं और आप पहले ही आंसू पोंछने लगें.
पर हे भावुकजीवीगण, जरा यह भी तो सोचिए, अगर दंगाई हिन्दू हो सकते हैं तो मुस्लिम भी हो सकते हैं — इसे सुनते ही आपकी सेकुलर छाती में गैस क्यों भर जाती है?
सभा में हल्की खुसुर-पुसुर हुई.
कोई बुदबुदाया — "अगर हिन्दू दंगाई हो सकते हैं तो मुस्लिम भी हो सकते हैं ना?"
बुद्धिबल्लभ जी तनिक भी विचलित नहीं हुए।
मुस्कुराते हुए बोले —
"आप जैसे लोग ही इस देश में घृणा फैलाते हैं। सभी धर्म शांतिप्रिय हैं. कुछ लोग उकसाए जाते हैं."
(यह स्पष्ट नहीं था कि उकसाने वाला कौन है। शायद मौसम विभाग!)
श्रीमान जी ने तुरंत एक नया सिद्धांत दिया —
"दंगा एक दार्शनिक क्रिया है, जिसमें पथभ्रष्ट आत्माएँ सामूहिक रूप से अपनी सामाजिक पीड़ा व्यक्त करती हैं."
सभा में एक क्षण को सन्नाटा छा गया.
फिर सबने एक-दूसरे की ओर देखा और सिर हिलाने लगे, जैसे कक्षा में कोई भारी-भरकम थियोरी सुन ली हो.
उनकी बातों के बीच किसी ग्रामीण ने साहस कर पूछा —
"सर, बस इतना बताइए कि आखिर मारा कौन गया?"
बुद्धिबल्लभ जी ने चश्मा ठीक किया और बोले —
"देखिए, मारे जाने का मामला व्यक्तिगत है। हम यहाँ विचारधारा की हत्या पर चर्चा कर रहे हैं."
और फिर उन्होंने एक लंबा भाषण दे डाला —
"दंगे को दंगा मत कहो। उसे सामाजिक संवाद का विस्फोट कहो."
सभा विस्फोटित हो गई.
कुछ ने सर पकड़ा, कुछ ने मोबाइल निकाला.
किसी ने तो दंगों पर कविता भी सुनानी शुरू कर दी.
श्रीमान बुद्धिबल्लभ जी ने अंत में निष्कर्ष दिया —
"दंगे के समय सच्चा नागरिक वही है जो बयान दे। जो सवाल करे, वह देशद्रोही है."
सभा समाप्त हुई.
बुद्धिबल्लभ जी ने घर लौटकर अगला ट्वीट लिखा —
"आज फिर हमने लोकतंत्र को बचा लिया!
और उधर, दंगा भी चुपचाप, अपने अंदाज़ में, अगले मौके का इंतज़ार कर रहा था.
मैं सोच रहा था - श्रीलाल शुक्ल होते तो शायद लिखते ...
"यह समाज अब उस पंचायती बकरी की तरह हो गया है, जिसे दोनों तरफ से घसीटा जा रहा है — और बीच में खड़ी बुद्धिजीवी जमात थाली बजा रही है कि देखो, हम कितने निष्पक्ष हैं."
मैं तय नहीं कर पाया कि पाया कि दंगाई पहले आदमी होता है या धर्म वाला.
पर यह ज़रूर तय है कि बयान देने वाला पहले बुद्धुजीवी होता है, फिर कभी-कभी आदमी भी.
बयान देने वाले वही हैं,
जो घर में अगर पानी गिर जाए तो सरकार को दोष दें,
और पड़ोस में आग लग जाए तो मोमबत्ती जला कर टीवी चैनल को फोन करें.
हम उस समय में हैं जहाँ
जो जितना कम जानता है,
वह उतना ही निश्चित होता है —
और जो सबसे ज़्यादा निश्चित है, वही चैनलों का विशेषज्ञ है.
संवेदना भी अब ब्रांड हो गई है.
कोई 'मुस्लिम विरोधी' बेच रहा है, कोई 'हिन्दू विरोधी',
बीच में जो सच है — वो सेल पर नहीं है.
हमने स्कूलों में पढ़ा था — "दंगाइयों का कोई धर्म नहीं होता."
मगर बाद में पता चला, किताबें भी सत्ता के मौसम के हिसाब से अपना पाठ्यक्रम बदलती हैं.
अब दंगाई का धर्म भी है, जाति भी है, और उसका चुनाव क्षेत्र भी तय है.
दरअसल, दंगा अब घटनाक्रम नहीं रहा —
यह एक जॉनर है, जैसे साहित्य में 'रोमांस' या 'थ्रिलर' होता है.
हर दंगे के बाद, कोई ना कोई बुद्धिजीवी उसे "विचारधारा" में तब्दील कर देता है.
बयानबाज़ी भी एक कला है.
जैसे संगीत में राग होते हैं, वैसे ही बयान में भी राग होते हैं — राग मुस्लिम पीड़ित, राग हिन्दू उत्पीड़क, राग सरकार दोषी, राग जनता मूर्ख.
बस समय के अनुसार राग बदलते हैं, गायक वही रहते हैं.
दंगे में जान जाती है.
बयान में ज्ञान जाता है.
और अंततः दोनों का हिसाब जनता को चुकाना पड़ता है.
बंगाल का दंगा खत्म हुआ.
टेलीविज़न पर बहसें हुईं.
लोगों ने फेसबुक पर स्टेटस डाले.
किसी ने बांग्ला में गलती से हिंदी का गुस्सा निकाला, किसी ने हिंदी में अंग्रेजी का सहिष्णुता पाठ पढ़ाया.
आखिर में, सब सामान्य हो गया.
पकड़े गए दंगाई जमानत पर छूटे.
बयानवीर अगले दंगे तक चुप हो गए.
और जनता — जनता फिर वही कर रही है — सब्जी के भाव देख रही है, पेट्रोल की कीमत गिन रही है और सोच रही है कि अगली बार दंगे में किसका बयान सही निकलेगा.
क्योंकि इस देश में अब दंगा उतना बड़ा मुद्दा नहीं है,
जितना बड़ा मुद्दा है —
"दंगे पर किसका बयान सही है?"
लेखक परिचयः अनुराग द्वारी NDTV इंडिया में स्थानीय संपादक (न्यूज़) हैं...
(अस्वीकरण: ये लेखक के निजी विचार है. इससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.)