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This Article is From Feb 04, 2018

अंकित की हत्या मुसलमान ने नहीं, बल्कि हम सभी ने की है...

Shankar Pandit
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    February 04, 2018 18:38 IST
    • Published On February 04, 2018 18:38 IST
    • Last Updated On February 04, 2018 18:38 IST
प्यार के बसंत में इस बार न दिल जुड़े हैं और न टूटे हैं, बल्कि उसकी धड़कन को हमेशा के लिए शांत कर दिया गया है. दिल्ली में एक बार फिर से मुहब्बत का जनाजा उठा है, मगर इस जनाजे की भीड़ और शोर ने लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया है, क्योंकि यह देश की राजधानी में हुआ है. मगर हकीकत तो यह है कि मुहब्बत में पड़े युवक और युवतियों के सैकड़ों-हजारों जनाजे हर रोज सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर देश के अलग-अलग कोनों में उठते हैं. दिल्ली में अंकित सक्सेना नामक शख्स की मौत ने एक बार फिर से न सिर्फ दिलों को झकझोर कर रख दिया है, बल्कि ये सोचने पर भी मजबूर कर दिया है कि आखिर हम किस असंवदेनशील और मरनासन्न समाज में रह रहे हैं, जहां इंसान की जिंदगी की कीमत कुछ है ही नहीं. 22 साल के अंकित की सरेआम गला रेतकर हत्या महज इस बात के लिए कर दी जाती है, क्योंकि उसने किसी और कौम की लड़की से प्यार करने की जुर्रत की थी. सोचने वाली बात है कि यह जुर्रत सिर्फ लड़के की तरफ से होती तो इसमें किंतु-परंतु की गुंजाइश होती, मगर इस प्रेम को तो लड़की की तरफ से भी हरी झंडी मिली थी. यानी कि प्यार दोतरफा था. बावजूद लड़की के परिवार वालों को ये बात इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने अपनी बेटी की मोहब्बत को चाकू की धार से तार-तार कर दिया.

अब तक आप ये समझ गये होंगे कि बात दिल्ली के उसी अंकित की हो रही है, जिसने प्यार किया और उसकी कीमत अपनी जान देकर चुकाई, मगर हासिल कुछ भी न हुआ. बल्कि वो अपने पीछे एक वीराना और उजड़ी हुई दुनिया छोड़कर चला गया. हो सकता है कुछ लोगों को इस बात से परेशानी हो कि अभी तक मैंने ऐसा नहीं लिखा है कि 'प्रेम-प्रसंग में मुस्लिम लड़की के घर वालों ने हिंदू लड़के की गला रेतकर हत्या कर दी'. कुछ लोग इस तर्क को जायज ठहराने की नाजायज कोशिश करेंगे कि जब मुस्लिम परिवार ने हिंदू लड़के की हत्या की है, तो ऐसा लिखने और बोलने से गुरेज क्यों? मगर मेरा मानना है कि अंकित की हत्या किसी मुसलमान ने नहीं की है, बल्कि हमारे समाज ने की है. जी हां, अंकित की हत्या हमारे समाज की उस संकीर्ण सोच ने की है, जो 21वीं सदी में भी यह मानता है कि अन्य जाति, धर्म या संप्रदाय में शादी करना गुनाह है. ऐसा करने से सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है.

सोशल मीडिया पर अंकित की मौत को मजहबी रंग देने की कोशिश की जा रही है. मेरा भी मानना है कि अगर मुस्लिम ने हिंदू की हत्या की है तो जरूर इसे उसी रूप में पेश किया जाना चाहिए, मगर जरा एक बार अपनी अंतरआत्मा से पूछिये कि इस मौत को मजहबी रंग देकर हम अंकित के प्यार को कलंकित तो नहीं कर रहे हैं? अगर हिंदू-मुस्लिम चश्मे से ही प्यार को देखने की जरूरत होती, तो शायद अंकित सपने में भी मुस्लिम लड़की से मुहब्बत करने की हिमाकत नहीं करता. यहां जिस सवाल पर मंथन करने की जरूरत है, लोग उस पर नहीं सोच-विचार रहे हैं, बल्कि सतही चीजों से ही इस पूरे विमर्श को भटकाने की कोशिश कर रहे हैं. अंकित का जो असल कातिल है, उस पर कोई बोलना नहीं चाह रहा है, कोई हमारे समाज की उस सोच पर चोट नहीं करना चाह रहा है, जिसकी वजह से सैकड़ों जिंदगियां असमय काल के गाल में समा जाती हैं.

अंकित की मौत को भले ही आप मजहबी रंग दे दें, मगर उन सैकड़ों-हजारों मौतों को कौन सा रंग देंगे, जो एक ही धर्म में होने के बाद भी वर्ण-व्यवस्था की वजह से हर रोज हो रही हैं? हम इस बात को क्यों नहीं स्वीकार कर रहे हैं कि अंकित की जिंदगी धार्मिक द्वेष और दुर्भावना की बलि-बेदी नहीं चढ़ी है, बल्कि इसके पीछे हमारे समाज की वही सोच है, जो हिंदू में भी उतनी ही व्याप्त है, जितनी मुस्लिमों में. अंकित के केस में तो बात हिंदू-मुस्लिम की है, मगर उन हजारों हत्याओं को किस तरह से जस्टिफाई कर पाएंगे जो समान जाति और धर्म के बावजूद प्रतिष्ठा के नाम पर धड़ल्ले से हमारे समाज में हो रही हैं. मैं सवाल पूछना चाहता हूं कि क्या प्यार में पहली बार किसी की मौत हुई है, क्या पहली बार किसी को मुहब्बत करने की वजह से मारा गया है? क्या अंकित से पहले और कोई भी नहीं है, जिसने प्यार करने की कीमत अपनी जान देकर चुकाई है? दरअसल, आप अपने आस-पास झांक कर देखेंगे तो आपको ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे जहां, धर्म तो छोड़िये सजातीय प्यार में भी परिवारों ने कईयों की जिंदगियां खत्म कर दी हैं.

हैरानी की बात है कि इस मामले पर सबसे ज्यादा युवा ही उतावले नजर आ रहे हैं. ये वही युवा हैं, जो खुद किसी हिंदू या मुस्लिम लड़की से प्यार करना मुनासिब समझेंगे, मगर जब बात अपने घर की बहन-बेटियों पर आती है, तो इनका सिद्धांत और आदर्श अचानक अवतरित हो जाता है. दरअसल, इसमें गलती उन युवाओं की भी नहीं है. क्योंकि हमारी सोशलिंग, पैरेंटिंग और स्कूलिंग इस तरह से हुई है कि हम पहले ही अपने अंदर ऐसे कुंठित विचारों का घर बना लेते हैं और उसी आशियाने को अपनी सोच का घर मान लेते हैं. मगर सवाल है कि चलो मान लिया कि अंकित की मौत को मजहबी रंग देने में हम कामयाब हो जाएंगे, तो क्या फिर उन मौतों की जिम्मेवारी भी हम लेने के लिए तैयार हैं, जिसमें हिंदू ने मुस्लिम की हत्या की है? या फिर हिंदू धर्मी की वजह से किसी ने अपनी जान गंवाई है? दरअसल, विमर्श का मुद्दा यह नहीं है. असल मुद्दा तो यह है कि हमें फिर से उस सोच पर विचार करने की जरूरत है, जिसकी वजह से हमारे समाज में आए दिन ऐसी ही घटनाएं हो रही हैं.

इसके बाद भी अगर आप अंकित की मौत को धर्म के चश्मे से ही देखना चाहते हैं तो याद कीजिए कि क्या आप भी किसी की मौत के जिम्मेवार हैं?

"What are you able to do? I am not afraid if you post this as status. Get lost...I lv muslims.My life is my choice. Why are you bothered? Why are you dying in the name of religion as we are all Indians? I don't care whatever you tell. My father and mother always support me." ('तुमलोग क्या कर सकते हो, अगर तुम इसे अपने स्टेटस की तरह पोस्ट करते हो, तो मैं इससे नहीं डरती. चले जाओ... मैं मुस्लिमों को पसंद करती हूं. मेरी जिंदगी मेरी पसंद है. तुमलोग क्यों परेशान हो? जबकि हम भी भारतीय हैं तो तुम लोग धर्म के नाम पर क्यों मर रहे हो? मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि तुम लोग क्या कहते हो. मेरी मां और पिता हमेशा मुझे सपोर्ट करते हैं.')

ये पंक्तियां सुसाइड करने से ठीक दो दिन पहले 20 साल की धन्याश्री लिखती है. चिकमंगलूर की ध्यानश्री को हमारे समाज के ही धर्म के ठेकेदारों की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ती है. दरअसल, बीकॉम की छात्रा धन्याश्री का इतना ही कसूर होता है कि वो अपने किसी दोस्त के साथ चैट में बस अपने विचार व्यक्त कर देती है कि 'आइ लव मुस्लिम्स'. मगर धन्याश्री की बात हिंदू संगठन के लोगों को इतनी बुरी लगी कि उन्होंने लड़की के घर जाकर धमकियां दी और उसके पैरेंट्स से शिकायत कर दी. इतना ही नहीं, सोशल मीडिया पर उस लड़की के स्क्रीनशॉट को खूब वायरल किया गया और अंत में इस झंझट से निजात पाने के लिए धन्या ने खुदकुशी करना ही मुनासिब समझा.

तो इसलिए प्यार के बसंत वाले महीने में उस विचार को खारिज करने की कोशिश करिये जो सदियों से हमारे अंदर है और जिसकी वजह से हर दिन सैकड़ों जिंदगियां असमय मौत का शिकार हो रही हैं. वरना ये जाति, धर्म के नाम पर रोज ऐसी ही मौतें होंगी और हम सोशल मीडिया पर रोना ही रोते रह जाएंगे.

(शंकर पंडित https://khabar.ndtv.com/ में सब एडिटर हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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