आज बात चली किताबों की, अक्सर चलती है. मेरी ज़िन्दगी में किताबों पर कभी भी बात की जा सकती है. लेखन पर, लेखन की विधाओं पर भी. इतना पढ़ने के बाद भी अगर मैं आपसे कहूं कि मुझे लेखकों के और उनके किरदारों के नाम याद नहीं रहते, तो यकीनन आप हैरान होंगे... बहरहाल, अपनी इस अक्षम्य भूल या कमी के बावजूद मैं बदस्तूर पढ़ती रहती हूं...मेरी एक आदत है कि जिस किताब को पढ़ती हूं, उसी को अपने पास रखती हूं. वह अगर किसी से मांग कर पढ़ी गई हो, तो उन्हें नई खरीद देती हूं, पर मेरी पढ़ी किताब मेरे ही पास होती है. इस बात पर अक्सर मेरा मजाक उड़ता है,कहा जाता है - पुराना लेकर नया देने वाली बेवकूफ औरत...
लेकिन जाने क्यों, जब-जब पढ़ती हूं, लगता है, किताब में बस गई हूं. मुझे लगता है, पन्नों का आसमान और शब्दों के घरों में लाखों लोग रहते हैं. हर कोई मुझसे बात करना चाहता है, प्यार करना चाहता है. और मैं उस प्यार में डूबकर,उतरकर कहीं पार जाना चाहती हूं. ऐसे ही कभी-कभी पन्ने समन्दर हो आते हैं और शब्दों की शक्ल में लहरें मुझे खुद में घोल लेना चाहती हैं, नमक-सी मिठास लिए.
'नमक-सी मिठास'... जी, हम में से बहुत से लोग जानते हैं कि नमक में मिठास होती है, है न...? कभी खाया है बेनमक खाना, मन को कड़वा कर देने वाला... तो हुई न नमक में मिठास.
मैं कई बार पागलों के जैसे किताब के हर्फों पर अपनी अंगुलियां फेरती हूं, लगता है, मानों उनमें कभी कहीं मेरी आत्मा का ही कोई अंश टूटकर छूटा हो... उन शब्दों को सहलाना, ओह! कोई भी सुख इससे बड़ा नहीं होता होगा... किताबों को यूं ही मुंह पर लपेट कर उसके शब्दों की कल्पनाओं में खो जाना किसी ध्यान से कम कहां है भला...
मुझे याद रहता है कि किताब में कब और किस लाइन को मैंने दो बार, तीन बार या चार बार पढ़ा था... कब किसी आसान-सी बात को समझने के लिए उसे (किताब को) बार-बार टोक-टोककर परेशान किया था, कब मैंने दांतों तले अंगुली दबाई, कब मैं उसके साथ रोई और कब मुस्कुराई थी... और हां, कब मैंने उसे गुस्से में खुद से दूर झटका था और कब सीने से लगाकर रात का सबसे चमकीला तारा उसमें बुकमार्क बनाकर रखा था...
कैसे दे दूं मैं अपनी किताबें किसी और को... भला कैसे! उनके किरदार मेरे साथ रहते हैं. मेरे ही गर्म पोरवों का स्पर्श उनमें जीवन का संचार करता है, तभी तो वे दौड़ते-भागते हैं मेरे चारों ओर... हां सच! सजीव, एकदम आपके और मेरे जैसे सांसें भरते, मेरी बात न सुनते हुए सिर्फ अपनी बात कहते... और वे तब तक मेरे साथ हर पल रहते हैं, उसके बाद भी मेरे साथ बने रहते हैं, जब तक मैं उस किताब को खत्म कर दराजों में न रख दूं.
इन पन्नों के आसमान और शब्दों के घरों में रहने वाले ये सभी सिर्फ मेरे ही पोरवों के स्पर्श से जीवित हो सकते हैं... उन्हें किसी और का स्पर्श मंज़ूर कहां...? और शायद मैं भी उन्हें उनके इस कम्फर्ट ज़ोन से निकालना नहीं चाहती... तभी तो वे रहते हैं मेरी ही दराजों में, सुप्त अवस्था में, अपनी-अपनी बात कहकर वे आराम कर रहे हैं... वे इंतज़ार में रहते हैं मेरे स्पर्श के, जो उनमें जान भर दे. भला मैं उन्हें किसी ओर को कैसे सौंप सकती हूं...
और हां, इन किताबों में मैं भी रहती हूं... थोड़ी सी नर्म, थोड़ी सी खुरदरी. हर अगले शब्द का शृंगार करते और हर पूर्ण विराम को स्वीकार करते हुए... तो जब कभी मुझसे मिलना हो, मेरी किताबों को पढ़ लेना. मैं वहीं मिलूंगी, 'मेरी'किताबों के बीच. अपनी पसंद से उन्हें चुनना, उन्हें खोलकर मुझसे मिलना. और हां, वापसी में उन्हें वहीं, वैसे ही, सहेजकर रखना मत भूलना...
अनिता शर्मा NDTVKhabar.com में असिस्टेंट एडिटर हैं...
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