मां की उम्र 60 साल है. पापा को गुजरे पूरा एक साल हो गया. मां पापा के जाने के बाद से कुछ कहती नहीं, न ही उन्हें याद करतीं और न ही रोती हैं... कभी-कभी ये अजीब लगता है. मन का क्या है ये ख्याल तक आ जाते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मां पापा को पसंद ही नहीं करती थीं... लेकिन नहीं, उनकी दिन पर दिन गिरती सेहत और अक्सर दफ्तर से लौटने पर मेरी बेटी का ये कहना कि आज दादी रोई थीं, मुझे मेरी सोच पर शर्मिंदा कर देता है...
घर में अब हम 4 लोग हैं. मां, मेरे पति, मैं और मेरी 3 साल की बेटी शरण्या. मां बेहद धार्मिक हैं. पापा भी ठीक ऐसे ही थे. उनकी हर बात का ख्याल रखने वाले, उनकी गलतियों को नजरअंदाज करने वाले, उनके लिए नई-नई चीजें लाने वाले और सबसे अहम बात, जब पूरी दुनिया अपने आप में व्यस्त होती थी तब मां में खोए रहने वाले...
पापा के जाने के बाद मां ने अपने जीवन का जो सबसे बड़ा समझौता किया वो था उनके बिना रहने का. लेकिन समाज का क्या... वह उन्हें हर त्योहार, हर उत्सव, हर अच्छे या बुरे मौके पर यह बात याद दिलाता है कि उनका जीवन साथी अब नहीं है, वह अकेली और शायद 'मनहूस' भी है, जिसका तीज-त्योहारों पर आगे आना तक ठीक नहीं...
लाल मां का पसंदीदा रंग है, पर वह अब रंगीन कपड़े पहनने से ड़रती है... कभी खूब स्टाइलिश दिखने वाली मां अब लिपस्टिक लगाते हुए भी झिझकती है. मेरे लाख कहने पर कि क्या फर्क पड़ता है मम्मा पहन लो, लाल रंग आप पर अच्छा लगता है... वो अपने कदम पीछे कर लेती है और धीमी आवाज में कहती हैं- ''न पुत्तर, लोक्की की कैण गे...छड्ड, मैं चिट्टा (सफेद) सूट पा लेन्नी आं...''
मुझे नहीं पता कि मेरे ऑफिस आ जाने के बाद वह कितना अकेलापन महसूस करती होगी, लेकिन जब घर जाकर मैं अपने छोटे से परिवार संग सोने के लिए बिस्तर पर लेटती हूं, तो मां के अकेले होने का ख्याल रोज आता है... कई बार खुद उनके पास जाकर सो जाती हूं, लेकिन क्या यह काफी है...
खैर, भावनाओं का क्या है. ये तो अथाह सागर सी हैं, डूबो कहां तक डूब सकते हो...? भावनाओं की इस चुनौती को छोड़ कर मैं अपने सवाल पर आती हूं. सवाल ये है कि मेरी मां अकेली क्यों रहे. क्या इस उम्र में वह कोई साथी नहीं तलाश सकती. क्या पापा के बाद इस दुनिया में ऐसे लोग खत्म हो गए, जो उसे समझ सकें या उसके मन की बातों को सुन सकें, उसकी पसंद का ख्याल रख कर उसके लिए शॉपिंग कर सकें, पूरी दुनिया छोड़ कर उसमें व्यस्त हो सकें. शायद नहीं...
मैं सोचती हूं कि क्यों न मां कोई साथी तलाशे, जिससे अपने मन की बातें कर सके, जिसके मन की बातें सुन सके, जो उसके लिए गा सके, जो उसे पहले की तरह हंसा सके और हां, अंधेरे में निकलने वाले उसके दबे और छिपे आंसुओं को सुखा सके... क्या इस उम्र में वह किसी को अपना नहीं सकती...
लेकिन यह बात मां के मन में कभी नहीं आएगी, कोई उसे कहेगा तो वह उसे घृणा करेगी. मां समाज में नहीं जीती, वह समाज के लिए जीती है, समाज के हिसाब से जीती है और उसी के हिसाब से सोचती भी है... पता नहीं क्यों हमने बिना मन के, बिना सर्वसम्मति और बिना मतदान के कई ऐसे नियम बना लिए हैं, जिनका हम चाहें न चाहें पर अनुसरण करते हैं...
मां जिस समाज में पली हैं और जिस सोच को उन्होंने अपनाया है, वह उन्हें कभी भी खुद के बारे में सोचने ही नहीं देती. उनकी खुशियों की नहीं वह हमेशा समाज की परवाह करती है... मेरा मकसद मां पर अपनी सोच को अपनाने का दबाव बनाना नहीं है.. मैं चाहती हूं तो बस इतना कि वह खुश रहे. यह खुशी उसे जैसे भी मिले वह बेहिचक उसे भोग सके, जी सके, आत्मसात कर सके...
सरल और साफ शब्दों में कहूं, तो मैं सोचती हूं कि मां को शादी कर लेनी चाहिए, चलो शादी न सही लिव इन में ही रहे, पर किसी के जाने की सजा खुद को न दे. जो गया उसे वापस नहीं लाया जा सकता, पर मां को तो अभी और जीना है. तो जितना जीना है वह खुल कर खुशी से जिए, बिना लोगों की परवाह करे मनमर्जी से जिए...
अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में चीफ सब एडिटर हैं।
x
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं। इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी।