अखिलेश शर्मा की कलम से : अंबेडकर और बीजेपी की दलित सियासत

नई दिल्‍ली:

संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की 124वीं जयंती मनाने में बीजेपी और संघ परिवार इस बार सबसे आगे दिखाई दिया। इसी दिन बीजेपी ने बिहार में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत कर ये इशारा भी कर दिया कि वो इसी दिन इतनी सक्रिय क्यों हुई है। साफ है बाकी राजनीतिक दलों की तरह उसने भी अंबेडकर की विरासत के बहाने दलित वोटों की सियासत साधने की कोशिश की है।

हकीकत ये है कि दलित राजनीति का लगातार दक्षिणपंथी झुकाव हुआ है जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला है। लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सभी 17 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली। इतना ही नहीं, वर्तमान में पूरे देश में बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जिसके पास सबसे अधिक दलित सांसद और विधायक हैं।

ये वही पार्टी है जिस पर दलित वोटों की सियासत करने वाली बहुजन समाज पार्टी मनुवादी पार्टी होने का आरोप लगाती थी। लेकिन अब हालात ये हो गए हैं कि जहां बीएसपी दलितों में खोए अपने जनाधार को दोबारा पाने के लिए हाथ-पैर मार रही है, वहीं बीजेपी सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में दलितों के वोट अपने साथ लेने के बाद अब उन्हें मजबूत कर स्थाई तौर पर साथ रखने के लिए रणनीति पर काम कर रही है। इस रणनीति की पहली कामयाबी हरियाणा में दिखाई दी। जहां बड़े पैमाने पर दलित वोट लेकर बीजेपी ने अपने बूते पर बहुमत हासिल करने में सफलता प्राप्त की।

बीजेपी के लिए अंबेडकर राष्ट्रवादी हैं। पार्टी ये नहीं याद रखना चाहती है कि जहां एक तरफ महाराष्ट्र में उसकी सरकार गौ वंश हत्या पर पाबंदी लगा रही है वहीं अंबेडकर खुल कर कहते थे कि वैदिक काल में गौ हत्या होती थी। अंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया था क्योंकि हिंदू धर्म छुआछूत की कुरीति और बेहद अन्यायपूर्ण व्यवस्था को छोड़ने के लिए तैयार नहीं दिख रहा था।

इतना ही नहीं, अंबेडकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा जैसे संगठनों को प्रतिक्रियावादी मानते थे और उन्हें ज्यादा महत्व देने को तैयार नहीं थे। लेकिन बीजेपी और आरएसएस की दूसरी दलीलें हैं। बीजेपी अंबडेकर के साथ ही महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय और राममनोहर लोहिया को याद करती है। पार्टी कहती है कि ये चारों महापुरूष समाज के अंतिम पायदान पर बैठे व्यक्ति का उत्थान चाहते थे और बीजेपी की यही विचारधारा है।

वहीं संघ याद दिलाता है कि कैसे 1939 में अंबेडकर पुणे में संघ शिविर में आए थे और वहां सवर्णों और दलितों को एक साथ देख कर बेहद प्रभावित हुए थे। बीजेपी पूछती है क्या वजह है कि अंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार नहीं किया। फिर जवाब देती है- इसलिए क्योंकि वो भारतीय संस्कृति और दर्शन को नहीं छोड़ना चाहते थे।

वास्तविकता ये है कि बीजेपी और व्यापक संघ परिवार के लिए अंबेडकर विचारधारा के टकराव से अलग एक राष्ट्रीय प्रतीक के तौर पर अधिक सुहाते हैं। वैसे भी इस बार अपने बूते सत्ता में आई बीजेपी अपने लिए लगातार नए राष्ट्रीय प्रतीक गढ़ रही है। उसे दूसरी पार्टियों के प्रतीकों को अगवा करने में हिचक नहीं है। उसकी दलील है कि जहां कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के आगे नहीं देख पाई वहीं लोहिया-अंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वाले दल परिवार या व्यक्ति विशेष की पार्टियां बन कर रह गए।

दलितों के लिए बीजेपी एक स्वाभाविक राजनीतिक विकल्प बनना चाहती है खासतौर से तब जबकि बीएसपी लगातार ढलान पर है। अंबेडकर की विचारधारा के ज़रिए इस समाज के उत्थान और गरीबी उन्मूलन को अपना लक्ष्य बना कर आगे बढ़ना चाह रही है। वहीं आरएसएस की चिंता व्यापक हिंदू समाज की एकता है। धर्मांतरण के खिलाफ राष्ट्रव्यापी मुहिम के साथ उसका प्रयास दलितों को मुख्य धारा में बनाए रखना भी है। चित्रकूट से लेकर नागपुर तक, संघ की हर राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में हिंदू धर्म से छुआछूत मिटाने का संकल्प किया जाता है और इसके लिए किए जा रहे कामों की समीक्षा की जाती है।

हाल ही में नागपुर में संपन्न बैठक में संघ ने इसके लिए नारा दिया है- एक गांव में एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान। यानी पूजा-पाठ, पानी और अंतिम संस्कार के लिए कोई छुआछूत नहीं होगी और पूरा हिंदू समाज एक साथ इनका प्रयोग करेगा। अंबेडकर जयंती पर संघ के मुखपत्र पांचजन्य का विशेष संस्करण इसी रणनीति का एक हिस्सा है। इसी रणनीति का बड़ा सियासी इम्तिहान इस साल के अंत में बिहार में होना है। नीतीश कुमार के महादलित वोट बैंक में बीजेपी जीतनराम मांझी के सहारे सेंध लगाने की कोशिश में है। पार्टी के साथ राम विलास पासवान मजबूती से खड़े हैं।

दरअसल, बीजेपी को एहसास है कि सिर्फ अगड़ों और गैर यादव पिछड़ों के सहारे राज्य में जीत हासिल नहीं हो सकती है। उसे हर हाल में दलितों को नीतीश के साथ जाने से रोकना है। इसीलिए ये कोई संयोग नहीं है कि अंबेडकर जयंती पर ही बीजेपी ने बिहार में अभियान की शुरुआत की है।


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