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This Article is From Sep 24, 2020

हरिवंश निशाने पर क्यों...?

Akhilesh Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 01, 2020 10:24 am IST
    • Published On सितंबर 24, 2020 12:59 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 01, 2020 10:24 am IST

राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जी की राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को लिखी चिट्ठी की कुछ पंक्तियां मस्तिष्क से मिट ही नहीं रही हैं. रह-रहकर सामने आ जाती हैं. वैसे हरिवंश जी से अधिक परिचय नहीं है. ख्यातिप्राप्त संपादक और पत्रकार रहे हैं, इस नाते नाम तो पहले से ही सुन रखा था. संसद भवन के सेंट्रल हॉल में उनसे स्वयं ही जाकर भेंट की थी और अपना परिचय दिया था. उनके बारे में बातें बाद में, लेकिन पहले इस पत्र की ये पंक्तियां पढ़ लेते हैं. वह राष्ट्रपति को लिखते हैं -

"सर, मुझसे गलतियां हो सकती हैं, पर मुझमें इतना नैतिक साहस है कि सार्वजनिक जीवन में खुले रूप से स्वीकार करूं... जीवन में किसी के प्रति कटु शब्द शायद ही इस्तेमाल किया हो, क्योंकि मुझे महाभारत के यक्ष प्रश्न का एक अंश हमेशा याद रहता है... यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा, जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है...? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, हम रोज़ शवों को कंधे पर लेकर श्मशान जाते हैं, पर हम कभी नहीं सोचते हैं कि जीवन की अंतत: यही नियति है... मेरे जैसे मामूली गांव और सामान्य पृष्ठभूमि से आए लोग आएंगे और जाएंगे... समय और काल के संदर्भ में न तो उनकी कोई स्मृति होगी और न गणना... पर लोकतंत्र का यह मंदिर 'सदन' हमेशा समाज और देश के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा... अंधेरे में रोशनी दिखाने वाला लाइटहाउस बनकर संस्थाएं ही देश और समाज की नियति तय करती हैं... इसलिए राज्यसभा और राज्यसभा के उपसभापति का पद ज्यादा महत्वपूर्ण और गरिमामय है, मैं नहीं... इस तरह मैं मानता हूं कि मेरा निजी कोई महत्व नहीं है, पर इस पद का है... मैंने जीवन में गांधी के साधन और साध्य से हमेशा प्रेरणा पाई है..."

ये पंक्तियां दिल को छू गईं. रविवार 20 सितंबर को राज्यसभा में जो भी हुआ, उसे लेकर हरिवंश को हमेशा कठघरे में खड़ा किया जाता रहेगा. ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि आप जब पत्रकारिता से राजनीति में आते हैं, तो इस क्षेत्र के गुण-दोष, यश-अपयश, मान-अपमान, आलोचना-समालोचना, प्रशंसा-निंदा जैसे तमाम जोखिम उठाने की तैयारी करके ही आते हैं. परंतु इन पंक्तियों को पढ़कर लगा, जैसे हरिवंश राजनीति की उन तमाम कंटीली और रपटीली राहों पर चलते हुए भी अपने विनम्र स्वभाव, मर्यादा और स्वाभिमान से ज़रा भी नहीं भटके. कोई और मोटी चमड़ी का राजनेता होता, तो न ऐसा पत्र लिखता, न धरने पर बैठे आठ सांसदों के लिए चाय ले जाता और न इन घटनाओं से क्षुब्ध होकर चौबीस घंटे का अनशन करता. लेकिन हरिवंश के लोहिया, जेपी, कर्पूरी ठाकुर जैसे दिग्गजों के सान्निध्य से मिले खांटी संस्कार, गांव-देहात, जन-मन की आवाज़ उठाने वाली पत्रकारिता से मिला आत्मबल, यह सब उनके आचरण में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है.

यह लिखने के लिए कितनी बड़ी हिम्मत चाहिए कि "मेरे जैसे मामूली गांव और सामान्य पृष्ठभूमि से आए लोग आएंगे और जाएंगे... समय और काल के संदर्भ में न तो उनकी कोई स्मृति होगी और न ही गणना..." वर्ना तो यह वह बेदिल दिल्ली है, जहां नाम और काम के लिए लोग एक-दूसरे की छाती पर पैर रखकर और उन्हें गिराकर आगे बढ़ते हैं. यह वही संसद है, जहां ख्यातिप्राप्त पत्रकारों को किसी बड़े नेता का फोन आ जाने पर सच पर पर्दा डालते देखा है. यह वही राज्यसभा है, जहां परंपरा और नियमों को ताक पर रखकर लोकपाल बिल पर 12 घंटे की बहस के बाद आधी रात को बिल पर मतदान कराए बिना सदन अनिश्चित काल के लिए स्थगित होते देखा है. यह वही सदन है, जहां महिला आरक्षण बिल पर विरोध कर रहे सांसदों को मार्शलों से उठवाकर बाहर फिंकवा दिया गया. इसी संसद और सदन ने रविवार को वह शर्मसार करने वाला नज़ारा भी देखा, जब सांसद टेबल पर खड़े होकर नाच रहे थे. नियम पुस्तिका लहरा रहे थे. बिल फाड़ रहे थे और आसंदी पर लगा माइक तोड़कर फेंक रहे थे.

हरिवंश की आलोचना इसलिए हो रही है कि उन्होंने मत विभाजन क्यों नहीं कराया और सदन का कामकाज आगे बढ़ाने के लिए आम राय क्यों नहीं बनाई. वह चाहते, तो सदन कुछ देर के लिए स्थगित कर मत विभाजन का प्रयास कर सकते थे. एक बार सदन स्थगित हुआ भी. लेकिन दोबारा शुरू होने पर ज़्यादा हंगामा हुआ. अगर नियम यह कहता है कि कोई भी सदस्य अपने स्थान से मत विभाजन मांगे, तो मत विभाजन ज़रूरी है, तो नियम यह भी कहता है कि मत विभाजन के लिए आवश्यक है कि सभी सदस्य अपने स्थान पर हों. सदस्यों के वेल में खड़े होकर हंगामा होने पर मत विभाजन नहीं हो सकता. ध्वनिमत से एक बार नहीं, कई बार विधेयक पारित हुए हैं. विधानसभाओं में तो अविश्वास प्रस्ताव तक पर ध्वनिमत से मतदान करा लिया जाता है. अगर विपक्ष मतविभाजन के लिए इतना उत्सुक था, तो फिर उसने हंगामा क्यों किया.

यह सही है कि जब से यह सरकार बनी है, उसके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है. लेकिन सरकार ने इधर-उधर से समर्थन जुटाकर अपना बहुमत बना लिया है. इसका प्रमाण तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने जैसे विवादास्पद मुद्दों पर लाए गए बिलों का पारित होना है. कृषि बिलों पर भी संख्याबल पूरी तरह सरकार के पक्ष में था. अगर मतविभाजन होता, तो सरकार के पास 110 और विपक्ष के पास 72 सांसद थे. विपक्षी सांसद संशोधनों पर भी मतविभाजन की मांग कर सकते थे. सदन का काम एक बजे के बाद भी बढ़ाना, ऐसा मुद्दा नहीं था, जिस पर इतना जबर्दस्त हंगामा किया जाता. संख्या गणित को देखें, तो साफ पता चलता है कि चूंकि विपक्ष के पास संख्याबल नहीं था, इसीलिए उसने इस बात को मुद्दा बनाकर हंगामा करना शुरू किया. एक दूसरी वजह विपक्ष के खेमे में सेंध लगना भी थी. महाराष्ट्र में गठबंधन में शामिल शिवसेना और एनसीपी - दोनों की ओर से यह संकेत मिला था कि वे कृषि बिलों के समर्थन में है. तो क्या यह भी एक वजह थी, जिसके कारण हंगामा कराया गया, ताकि विपक्ष की फूट सामने न आ सके.

इस सारे प्रकरण में हरिवंश को निशाना बनाना अन्यायपूर्ण है. उन्होंने वही किया, जो उस कुर्सी पर बैठा कोई भी व्यक्ति करता. उन्होंने मतविभाजन की मांग उठने पर हंगामा कर रहे सांसदों से तेरह बार कहा कि वे अपने स्थान पर लौट जाएं. मतविभाजन के लिए यह अनिवार्य शर्त है. हंगामे में वोटिंग नहीं हो सकती. लेकिन विपक्षी सांसदों ने एक न सुनी. उल्टे उन्होंने अपने हिंसक आचरण से संसद की मर्यादा को तार-तार कर दिया. इन आठ सांसदों का निलंबन नहीं होता, तो यह संदेश जाता कि संसद में हिंसक व्यवहार स्वीकार्य है. कृषि बिलों को तो पारित होना ही था, क्योंकि इतने व्यापक सुधार आखिर कब तक इंतज़ार करते. अगर कांग्रेस कल सत्ता में आती, तो वह भी इन बिलों को लेकर आती, जैसा वह पहले कर चुकी है. हां! हरिवंश को सूली पर चढ़ाने की कोशिशों ने उल्टा बीजेपी को ही बिहार चुनावों के लिए एक मुद्दा और ज़रूर थमा दिया है.

अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं...

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