दो दिन से चैनलों पर खबर चल रही है कि AAP विधायकों ने वेतन भत्ता बढ़ाने की मांग की है। इस खबर पर चर्चा भी खूब चल रही है, लेकिन बस राजनीतिक एंगल पर चर्चा सिमटी हुई है और टेप बस यहीं पर अटका हुआ है कि इस मुद्दे पर इसका क्या कहना है या इस मुद्दे पर उसका क्या कहना है।
कोई इस मुद्दे को गहराई से समझकर ज़मीनी हक़ीक़त के हिसाब से टटोलना नहीं चाहता। एक टीवी चैनल के एंकर ने सवाल किया, 'क्या आपका घर 83,000 रुपये में नहीं चलता? जी हां कम से कम एक जनप्रतिनिधि का तो नहीं चलता'।
यहां किसी के विरोध या समर्थन की बात नहीं, लेकिन वह पत्रकार ही क्या हुआ, जिसे सालों से ज़मीनी स्तर पर दिल्ली को कवर करने के बाद इस मुद्दे की समझ ना हो और उस समझ को वह समझा ना पाए?
आम आदमी पार्टी के विधायक सौरभ भारद्वाज ने कहा कि एक विधायक को वेतन और भत्ते के तौर पर करीब 54,000 रुपये मिलते है और किसी भी विधायक का खर्चा उससे ज्यादा ही है, जितना वेतन और भत्ता मिल रहा है।
सौरभ ने समझाने की कोशिश की कि दिल्ली में कैसे खर्चा ज्यादा है और वेतन भत्ता कम। सौरभ के मुताबिक यहां एक ऑफिस भी खोलें तो 10 से 15 हज़ार उसका किराया होता है। अगर हर वार्ड में ऑफिस हो तो उसके खर्च का आप हिसाब लगा लें।
अब इस पर बीजेपी नेता विजेंद्र गुप्ता ने ऐलान कर दिया कि वह एक रुपये महीने पर काम करने को तैयार हैं। लेकिन जब मैंने उनसे पूछा कि आप जो ये दावा कर रहे हैं, वह व्यावहारिक नहीं है। क्या आप बस शिगूफा तो नहीं छोड़ रहे? इस पर उनके पास कोई तर्क ऐसा नहीं था, जिससे लगे कि हां यह व्यावहारिक है। मुझे लगता है इस बारे में आपकी भी वही राय होगी जो मेरी थी और है।
असल में हम नागरिकों को चर्चा करके यह तय करना चाहिए कि विधायकों की मांग सही है या नहीं। कम से कम अपना मत तो बताना ही चाहिए, क्योंकि पैसा तो हम लोगों का ही है ना...
यह बात सच है कि विधायकों के पास जाने पर आपकी समस्या का समाधान हो या ना हो, जहां तक मैंने देखा है चाय तो हर विधायक के दफ्तर में जाने पर आपको मिल ही जाती है। सोचिए एक चाय में दूध, चाय की पत्ती, चीनी और गैस का खर्चा शामिल है और अगर बाहर से भी मंगाए तो एक चाय 7-8 रुपये की तो पड़ ही जाएगी। अगर 30-35 चाय रोज़ाना पिलाने का विधायक दफ्तर का औसत माने, तो भी महीने में 1000 चाय का खर्चा सात से आठ हज़ार हो जाता है।
विधायक के दफ्तर में बैठकर हम पीते वक़्त नहीं सोचते कि ये भी खर्च ही है। क्या हम तय करें कि आज के बाद किसी विधायक के दफ्तर में हम चाय की उम्मीद नहीं करेंगे और अगर उसने खुद भी चाय पिलाने की पेशकश तो हम इनकार देंगे?
विधायक को एक ऑफिस खोलने में ऑफिस का किराया, ऑफिस स्टाफ जो आपको हमेशा ऑफिस में मिले, बिजली-पानी का खर्चा ये सब वहां करना होता है। अगर हम कम से कम भी मानकर चलें तो एक लड़का ऑफिस में हमेशा तैनात रखने में कम से कम से 10,000 तो देने होंगे ही और ऑफिस का किराया, बिजली पानी का बिल भी कम से कम 10,000 हर हाल में होगा ही। तो केवल एक ऑफिस का खर्चा कम से कम 20 हज़ार रुपये महीना हुआ। अगर हर वार्ड में एक ऑफिस खोलना पड़ जाए तो चार वार्ड के हिसाब से 80,000 रुपये तो ये हो गए।
क्या हम अपने विधायक को कहें कि भाई हमारे विधानसभा क्षेत्र में एक ही ऑफिस काफी है, हमको दूसरा ऑफिस नहीं चाहिए। हमको ज़रूरत होगी तो भले ही थोड़ा दूर पड़े हम आपके ऑफिस आएंगे, आप चार दफ्तर ना खोलें? और फ़ालतू का खर्चा ना करें, क्योंकि इनका खर्चा हमने ही देना है।
सौरभ भारद्वाज की यह बात भी हक़ीक़त है कि एक सीजन में रोज़ाना 4-5 शादी भी अटेंड की तो 200 शादी पूरे सीजन में हमने अटेंड कर ली और कम से कम 500 रुपये भी हमने कन्यादान में एक शादी में दिए तो एक लाख रुपये तो यही हो गए।
किसी भी विधायक को लोग अपने यहां शादी में बुलाना चाहते हैं और विधायक भी हर शादी में ज़रूर जाता है, क्योंकि वह उसके वोटर की शादी है उसके पड़ोसी की शादी है। अब खाली हाथ तो कोई भी आदमी शादी में नहीं जाता और नेताओं ने शादी में क्या दिया और कितना दिया इस पर बहुत से लोगों की नज़र रहती है। तो कम से कम 500 रुपये आप हर शादी में औसत कन्यादान भी देंगे तो लाख रुपये खर्चा यही होगा।
क्या हम तय करें कि हम अपने विधायक को बुलाएंगे तो ज़रूर, लेकिन उसका दिया कुछ नहीं लेंगे या कार्ड देते वक़्त ही कह देंगे कि आपसे उम्मीद है कि आप हमारे यहां अपने परिवार और आशीर्वाद के साथ आएं और अच्छे-अच्छे संबंधों का उपहार हमसे ले जाएं। इसके अलावा न आप कुछ दीजिएगा और ना हम लेंगे। क्या हम ऐसा कर सकते हैं?
असल में आज ये सोचने का वक्त है कि हम अपने विधायक से क्या चाहते हैं और किस तरह चाहते हैं। यहां यह भी बताना जरूरी हो जाता है कि हर विधायक की आर्थिक हालत एक सी नहीं होती। कुछ विधायक तो ऐसे हैं जिनके पास पहले से अपना व्यापार होता है और ऐसे विधायक वेतन बढ़ाने की मांग में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेते।
हालांकि दिल्ली के कुछ विधायक ऐसे भी हैं, जिनके पास आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं है और विधायक के तौर पर मिलने वाले वेतन भत्ते से ही काम चला रहे हैं। यह लोग ही मांग कर रहे हैं कि इतने वेतन भत्ते में काम नहीं चल रहा और इसको बढ़ाया जाए।
थोड़ा और इस बात को खुलकर कहूं तो कि मेरे हिसाब से उत्तम नगर से AAP के विधायक नरेश बालियान आर्थिक रूप से संपन्न हैं, इसलिए मुझे नहीं लगता कि इनका वेतन भत्ता बढ़ना चाहिए। लेकिन रोहताश नगर की विधायक सरिता सिंह आर्थिक रूप से संपन्न नहीं हैं, क्योंकि वह अण्णा आंदोलन से सीधा राजनीति में आ गईं। सरिता जैसे विधायकों का ही इस वेतन भत्ते में काम चलना मुश्किल हो रहा है।
अब क्योंकि विधायकों की आर्थिक स्थिति या संपन्नता एक जैसी नहीं है और इसलिए संसाधन भी सबके पास एक से नहीं हैं, तो क्यों ना एक ऐसे फॉर्मूले पर विचार किया जाए, जिससे आर्थिक रूप से कमज़ोर विधायक की मदद हो सके और जनता के पैसे का भी सही इस्तेमाल हो।
हालांकि वेतन भत्ता बढ़ा देना कोई एकमात्र विकल्प नहीं है और ना हो सकता है, क्योंकि एक सच यह भी है कि वेतन भत्ता तो किसी विधायक का हो या आपका और मेरा वह हमेशा ही कम लगता है और उतने में काम नहीं चलता है। इसलिए कुछ नया सोचा जाए, ताकि सिस्टम में कुछ तो बदले।
विधायकों का वेतन भत्ता साल 2007 और 2011 में भी बढ़ा था और अब 2015 में भी मांग हो रही है, लेकिन कुछ सिस्टम तो दिखे जिससे लगे हां इतना वेतन भत्ता देना ठीक है या तर्कसंगत है और वाजिब है। क्योंकि ये ना भूलें कि ये जनता का पैसा है और जनता सब देख रही है।
हालांकि मेरे हिसाब से आम आदमी पार्टी की सरकार अभी नई आई है और लोगों को इससे बहुत उम्मीदें हैं, इसलिए अगर कुछ समय बाद इस तरह की मांग उठती, थोड़ा और काम विधायक और सरकार जनता को दिखाते और फिर ऐसी मांग करते तो अच्छा होता, लेकिन फिर भी अगर मांग है तो चर्चा तो ज़रूर होनी चाहिए और फिर जो सही लगे वह करना चाहिए।
This Article is From Jul 04, 2015
शरद शर्मा की खरी खरी : क्या बढ़ना चाहिए दिल्ली के विधायकों का वेतन?
Sharad Sharma
- Blogs,
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Updated:जुलाई 04, 2015 22:59 pm IST
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Published On जुलाई 04, 2015 22:32 pm IST
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Last Updated On जुलाई 04, 2015 22:59 pm IST
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