बस चंद दिनों में हम दोनों त्रीउन्ड के लिए रवाना हो गए. धर्मशाला तक हवाई यात्रा. फिर वहां से 45 मिनट टैक्सी से मैकलोडगंज. त्रीउन्ड तक का ट्रेक बिगिनर्स ट्रेक यानी सबसे आसान ट्रेक की श्रेणी में आता है. हमारा ट्रैवल एजेंट भागसूनाग से था जो कि मैकलोडगंज से कुछ दूरी पर है. लोग टैक्सी लेते हैं लेकिन हम दोनों थोड़ा शहर धूमने के बाद भागसूनाग 15-20 मिनट पैदल चलकर अपने होटल पहुंच गए. सुबह ट्रेक के लिए रवाना होना था.
मैकलोडगंज मेरी कल्पना से अलग निकला. वहां भीड़ में घुसती गई टैक्सी....पतली सी गली में चौक तक ही पंहुच पाई थी. दोनों उतरे और शहर को रमाते चले गए... सैलानियों से पटा पड़ा था शहर. चौक से पांच सड़कें निकलती हैं. सब लोगों से पटी पड़ी थीं. बीच-बीच में चलते फिरते लामा दिख जाते. कुछ दुकानों के बाहर बैठे भी. विदेशी भी यहां अच्छी संख्या में दिखे. सफाई थी लेकिन भीड़ में आवाजों का शोर, गाड़ी के हार्न और गानों की आवाज शांति को पास फटकने नहीं दे रहा था. मौनैस्ट्री पहुंचे तो पर्यटक वहां भी शांति बनाए रखने की बजाय अपनों को पुकारते या जोर-जोर से बात करने से नहीं हिचकते थे. बहरहाल सुकून बाहर तरह-तरह के खाने की दुकानों में मिला.
अगली सुबह हम भागसूनाग से ट्रेक के लिए रवाना हो गए. नौ किलोमीटर का रास्ता था, करीब 6 घंटे लगने थे लेकिन पहले 20 मिनट में ही मेरी बहन की सांसें भारी हो गईं. दीदी, ट्रेक तो पूरी करेंगे but it seems tough....मुस्कराते हुए मैंने भी हामी भरी. धीरज हमारे गाईड थे. उन्होंने दूर एक पहाड़ की ओर इशारा करते हुए कहा वहां पहुंचना है. हम दोनों मुस्करा दिए..जोश में तो थे ही..
गुल्लू देवी तक हम 30 मिनट में पंहुच गए. पुलिस ने हमारा रिजिस्ट्रेशन किया और हम बढ़ते चले गए. पहले एक घंटे तक तो धीरज से पूछते जाते कि अब कहां पहुंचे, लेकिन उसके बाद रास्ते में ढलते चलते चले. कभी पत्तियों से पटा रास्ता मिलता तो कभी पत्थरों भरा. तरह-तरह के पत्थर ...छोटे गोल तो कभी चपटे-चपटे.....कभी रास्ता ठीक चौड़ा लगता तो कभी इतना संकरा कि दो पैर से ज्यादा न रख पाते. ट्रेकिंग करते समय सिर्फ ये देखा जा रहा था कि पैर कैसे पड़े, कौन से पत्थर पर पड़े ...मुड़े न....और शायद यही वजह है कि सारी परेशानियां पहले कदम पर ही छूट गई थीं. सोच यही थी कि रास्ते पर कैसे बढें, कितना चल चुके...
फिर वह पत्थर भी आए जो बहुत बड़े थे. लगा कि पत्थरों की नदी पर चल रहे हैं. बीच-बीच में मैगी,अंडा-ब्रेड और चाय के ठिकानों पर राहत मिल जाती. 70 रुपये की मैगी का अपना ही मजा था. मेरे बेटे ने मुझसे कहा था कि अदरक नीबू शहद की चाय पीते रहना. उसका यह सुझाव बहुत काम आया. इस ट्रेक पर एक और बात ने जो सूकून दिया वह थी युवाओं को देखना. देश के अनेक राज्यों के युवा यहां की रौनक थे. जो वे संगीत सुन रहे थे उससे उनके बारे में कुछ अंदाजा लगाया जा सकता था. अच्छा लगा कि भावी पीढ़ी प्रकृति के साथ समय बिताना चाहती है.
त्रीउन्ड शायद कुछ ही दूर रहा गया था. खुशी भी थी और पहुंचने का रोमांच भी. हिम्मत बांधते चल ही रहे थे कि अचानक बादलों ने घेर लिया. हल्की बारिश होने लगी और ओले पड़ने लगे. हाथों में कुछ ओलों को मैंने पकड़ा भी. बचपन याद आ गया. धीरज के कहने पर रेनकोट पहन लिया लेकिन फिर फिसलन का अहसास होने लगा. पत्थर और बड़े मिल रहे थे. रास्ता और संकरा मिल रहा था. खुद को सम्भालते पहाड़ के ऊपर पहुंचे तो नजारा देखते ही रह गए. सामने बर्फ की चादर ओढ़े तीन भव्य पहाड़ दिख रहे थे और इन तीनों के बीच में यह जगह थी त्रीउन्ड ....यहां के गद्दी भाषा बोलने वालों ने यह नाम दिया था. हरी घांस और कुछ-कुछ दूरी पर स्लेटी पत्थर. बहुत सुंदर नजारा था. हैरी पॉटर की फिल्मों जैसा... बारिश, ठंडी हवा के बीच ठिठुरते हुए आंखों से प्रकृति की सुंदरता में रमा होने के सुख था. धीरज ने बताया कि हमारा पड़ाव कुछ और दूरी पर है. एक जगह चाय पी तो कुछ आराम मिला.
हम समुद्र की सतह से 2900 मीटर की ऊंचाई पर थे. वहां इतनी तेज हवाएं थीं कि टेन्ट में तो नहीं रुक सकते थे. कमरा दिया गया जहां रात गुजारी. शून्य से 10 डिग्री कम का तापमान हो चला था. रजाई कम्बल मिल गए थे. यहां बिजली नहीं थी तो मोमबत्तियों की रोशनी में खाना खाया. इस सबका अपना ही रोमांच था. रात में जब बारिश रुकी तो धुंधले से तारे भी नजर आए. अपने आप में वादी ही बहुत सुंदर थी. दूसरे दिन वापसी हुई. मेरी बहन ने रात में सही कहा कि जिन्दगी भी तो ट्रेक की तरह है कब कहां कैसा रास्ता हो पता नहीं चलता... बस चलते रहना चाहिए ...चलते रहना चाहिए...
(निधि कुलपति एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)
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