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वोटर लिस्ट रिवीजन : सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बिहार की राजनीति पर कितना असर? कौन खुश, कौन दुखी

Bihar Voter List News : अगर विपक्षी दल इस मुहिम को जारी रखते हैं और ढंग से जारी रखते हैं तो 2025 के चुनावों में इसका सीधा असर पड़ेगा. लेकिन उसके लिए उन्हें जमीनी स्तर पर न केवल अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना होगा, बल्कि एक मजबूत रणनीति भी बनानी होगी.

वोटर लिस्ट रिवीजन : सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बिहार की राजनीति पर कितना असर? कौन खुश, कौन दुखी
पटना:

बिहार चुनाव से ठीक पहले वोटर लिस्ट के गहन पुनरीक्षण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आज एक फैसला सुनाया. कोर्ट ने इस मामले में चुनाव आयोग को कोई भी निर्देश जारी करने से मना कर दिया. कोर्ट का मानना  है कि यह एक संवैधानिक प्रक्रिया है और इसमें कोर्ट का हस्तक्षेप ठीक नहीं होगा. वहीं, कोर्ट ने चुनाव आयोग को यह भी सुझाव दिए कि कई और सरकारी दस्तावेज जैसे आधार कार्ड,  वोटर आईडी कार्ड एवं राशन कार्ड जैसे दस्तावेजों को 11 दस्तावेजों की सूची में शामिल किया जाए, जो मतदाताओं को जमा करना है. 

अब सवाल है आखिर बिहार की राजनीति में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा और जो पिछले कुछ दिनों से विपक्षी पार्टियां इसे एक राजनीतिक मुद्दा बना रही थी. उसका क्या होगा? ये फैसला विपक्षी पार्टियों को खुश होने का एक मौका देती है या फिर उनके लिए एक बड़ा झटका है. कहीं ऐसा तो नहीं की विपक्षी पार्टियों को यह समझ ही नहीं आ रहा कि इस मामले में खुश हुआ जाए या फिर दुखी? सबसे अहम बात,  इस सुप्रीम कोर्ट के सुनवाई और फैसले के बाद क्या विपक्ष के हाथ से एक अहम मुद्दा छूट गया ? क्या यह फैसला बिहार के विपक्षी दलों विशेषकर आरजेडी कांग्रेस और वामपंथी दलों के लिए एक बड़ी चुनौती है या फिर कोई अवसर?

विपक्षी दलों का आरोप

विपक्षी दलों का कहना है कि यह प्रक्रिया उन इलाकों में चलाई गई, जहां गरीब, दलित, पिछड़े, मुसलमान और ग्रामीण समुदायों की बहुता है. इन वर्गों के मतदाताओं के नाम काटने या हटाने का प्रयास किया गया, जिससे वे अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं. बिहार में वर्ष 2025 के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं. चुनाव आयोग ने जून 2025 में अचानक एक "गहन मतदाता सूची पुनरीक्षण अभियान" शुरू किया. इसमें बड़ी संख्या में नाम हटाए गए, नए नाम जोड़े गए और कई पुराने नामों को संशोधित किया गया. यह प्रक्रिया तेजी से और सीमित सूचना के साथ की गई, जिससे कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), वाम दलों और अन्य विपक्षी पार्टियों ने आपत्ति जताई. विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया कि यह कार्य भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और सत्ताधारी एनडीए गठबंधन को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया.

लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी लंबे समय से यह दावा करती रही है कि सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके उसके वोट बैंक को कमजोर किया जा रहा है और वो सीधा आरोप लगाती रही है चुनाव आयोग पर कि वो भाजपा की बी टीम बन के काम कर रही है.

बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण अहम
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण अहम भूमिका निभाते हैं. यदि यह स्थापित हो जाए कि विशेष समुदायों के नाम जानबूझकर हटाए जा रहे थे, तो यह मामला जातीय ध्रुवीकरण की ओर बढ़ सकता है, जिसका फायदा विपक्ष को मिल सकता है. यह चुनाव से पहले ‘वोट कटाने की साजिश' जैसे आरोपों को बल देगा और सत्ताधारी दलों को जवाबदेह बनाएगा.

अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला दे दिया है तो आरजेडी के पास केवल एक ही रास्ता बचा है कि वह जमीन पर अपने समर्थकों को इस मुहिम में शामिल करें और अपने समर्थक वोटरों को वोटर लिस्ट में दर्ज कराने के लिए अभियान चलाएं. अगर वो ऐसा करने में विफल होते हैं तो उनके पारंपरिक वोट बैंक यानी यादव एवं मुस्लिम में कमी देखी जा सकती है.

वहीं, कांग्रेस जो कि बिहार में आरजेडी के साथ गठबंधन में है, उसको भी अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना होगा. लेकिन कांग्रेस जैसी पार्टी के पास बिहार में जितनी लचर संगठनात्मक ढांचा है. उससे उसे इस कार्य को करने में बहुत ही मुश्किल होने वाली है. अगर आप बात करे वामपंथी दलों की तो सीपीआई और सीपीएम जैसे दलों के पास मजदूरों और गरीबों को वोटरों में वोटर लिस्ट में शामिल कराने के लिए जन आंदोलन चलाने में कोई खास दिक्कत नहीं आनी चाहिए.

क्या सत्तापक्ष को रणनीति बदलनी होगी?
अब बात करें सत्तारूढ़ दलों की..  यानी भाजपा और जदयू की. उनके लिए यह फैसला खुशी मनाने का बिलकुल नहीं लगता, क्योंकि विपक्ष सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को अपने तरीके से लोगों के बीच पेश करेगा और भाजपा जदयू पर वोट बैंक में हेराफेरी करने का सीधा आरोप लगाएगा, जहां एक ओर विपक्ष इस फैसले से ताकतवर हो सकता है वहीं, एनडीए के लिए यह राजनीतिक असहजता का कारण बनेगा. चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर कोर्ट की टिप्पणी से यह संदेश जा सकता है कि सरकार की भूमिका भी संदिग्ध थी. भले ही प्रत्यक्ष प्रमाण न हो. भाजपा और जेडीयू को अब इस मुद्दे पर सफाई देनी पड़ सकती है और अपनी छवि को साफ रखने के लिए रणनीति बदलनी होगी.

अगर विपक्षी दल इस मुहिम को जारी रखते हैं और ढंग से जारी रखते हैं तो 2025 के चुनावों में इसका सीधा असर पड़ेगा. लेकिन उसके लिए उन्हें जमीनी स्तर पर न केवल अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना होगा, बल्कि एक मजबूत रणनीति भी बनानी होगी.

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने विपक्षी दलों को एक ऐसा मुद्दा दे दिया है, जिससे वे जनता के बीच अपनी प्रासंगिकता और लड़ाकू छवि दोनों को पुनः स्थापित कर सकते हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्ष इसे किस हद तक भुना पाता है और सत्ता पक्ष इस दबाव का सामना कैसे करता है. बहरहाल, यह स्पष्ट है कि यह निर्णय आगामी विधानसभा चुनावों में बहस और रणनीति का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनने वाला है.
 

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