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This Article is From Oct 27, 2018

नीतीश कुमार को मिली मन मुताबिक सीटों के पीछे क्या 'मोदी लहर' का कमजोर होना है?

तो आख़िर ये समझौता हुआ कैसे? इसके पीछे कई कारण हैं. पहली वजह तो यह रही कि भाजपा तमाम माथापच्ची कर इस नतीजे पर पहुंची कि फ़िलहाल नीतीश को किनारे कर चुनाव नहीं लड़ा जा सकता.

नीतीश कुमार को मिली मन मुताबिक सीटों के पीछे क्या 'मोदी लहर' का कमजोर होना है?
अमित शाह के साथ नीतीश कुमार
पटना: बिहार में अगले साल लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और भाजपा बराबर-बराबर सीटों पर लड़ेंगी. देश में गठबंधन की राजनीति और बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम में यह इस वर्ष की सबसे बड़ी घोषणा है.  हालांकि इस घोषणा के पीछे एक वजह यह भी मानी जा रही है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को भी लगने लगा है कि 'मोदी लहर' कमजोर पड़ी है. निश्चित रूप इस घोषणा से नीतीश कुमार को एक नई राजनीतिक संजीवनी मिली है. इस घोषणा के दो पहलू हैं. एक, भाजपा नीतीश कुमार का महत्व समझती है और लोकसभा चुनाव में उनके बिना जाने का कोई जुआ नहीं खेलना चाहती. वहीं बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ना केवल एनडीए के विधायकों के चुने नेता हैं बल्कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने भी अब मान लिया है कि उनके चेहरा और काम पर ही बिहार में एनडीए वोट मांगेगी और आपको पसंद है तो रहिए या नहीं. लेकिन सब ये जानना चाहते हैं कि ये बराबरी-बराबरी के समझौता का क्या अर्थ है, ये कैसे हुआ और कब हुआ.

इस घोषणा का एक ही अर्थ है कि फ़िलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और बिहार भाजपा के नेताओं को नीतीश कुमार का कोई विकल्प नहीं दिखता. उन्हें लगता है कि नीतीश कुमार को साथ रखकर अगर लोकसभा चुनाव में जाएंगे तो पिछले लोकसभा चुनाव में जीती सीटों की संख्या को एक बार फिर दुहराया जा सकता है. अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर दिखाया है कि सहयोगियों को महत्व देना वो भी जानते हैं और जैसे शिवसेना के साथ संबंध को सामान्य करने का भार शाह ने कुछ महीने पूर्व अपने कंधे पर लिया था वैसे ही बिहार के गठबंधन को भी उन्होंने नीतीश कुमार के मनमुताबिक सीटें देकर गठबंधन धर्म का निर्वाहन किया. दूसरी ओर नीतीश कुमार को भी भाजपा के साथ सरकार बनाने के बाद पहली बार लगा है कि उनके सम्मान में कोई कसर नहीं रखी जा रही. नीतीश ख़ुश हैं कि जैसे उनकी राजनीतिक आलोचना हो रही थी वो, सीटों के इस बंटवारे के बाद अब वो  निराधार और कुछ लोगों की कोरी कल्पना साबित हुई. नीतीश इस प्रकरण से एक बार फिर मज़बूत नेता साबित हुए जो अभी भी अपनी बात मनवाने की शक्ति रखता है.

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तो आख़िर ये समझौता हुआ कैसे? इसके पीछे कई कारण हैं. पहली वजह तो यह रही कि भाजपा तमाम माथापच्ची कर इस नतीजे पर पहुंची कि फ़िलहाल नीतीश को किनारे कर चुनाव नहीं लड़ा जा सकता. इसमें बिहार भाजपा के नेताओं ख़ासकर सुशील मोदी, नंद किशोर यादव और प्रेम कुमार जैसे मंत्री बने बैठे नेताओं की भूमिका अहम रही जो इस बात पर क़ायम रहे कि केवल पासवान और कुशवाहा के सहारे चुनाव में जाना आत्मघाती साबित हो सकता है. दूसरा, भाजपा ने एक से अधिक सर्वेक्षण कराये जिसमें नीतीश के साथ जाने पर परिणाम उनके मनमाफ़िक आ रहे थे, वहीं नीतीश के बिना वाले सर्वे के परिणाम बहुत अनुकूल नहीं थे.

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सबसे पहले जुलाई महीने में अमित शाह से नीतीश कुमार भोजन पर पटना में मिले तो उन्होंने एक महीने में सीटों का बंटवारा पूरा करने का वादा लिया. लेकिन असल बातचीत अगस्‍त महीने में भाजपा के नेता भूपेन्द्र यादव, जनता दल यूनाइटेड के सांसद और नीतीश के क़रीबी आरसीपी सिंह और मंत्री ललन सिंह के साथ शुरू हुई जहां मीडिया रिपोर्ट के विपरीत भाजपा 15 सीटें देने के लिए तैयार दिखी. इससे पहले भाजपा की तरफ़ से मात्र 12 सीटें देने की ख़बर आयी थी जिसे जनता दल ने तुरंत ख़ारिज कर दिया था.

लेकिन असल बराबर-बराबर का फॉर्मूला ख़ुद नीतीश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत कर प्रस्ताव दिया जो मोदी-शाह ने 16 सितंबर के पहले मान भी लिया. इसलिए पहली बार अपनी पार्टी राज्य कार्यकारिणी के सामने 16 सितंबर को नीतीश ने कहा कि सीटों का समझौता सम्मानजनक और पार्टी के हित में हुआ है लेकिन इसकी घोषणा उचित समय पर BJP के नेताओं के द्वारा की जाएगी. नीतीश आश्वस्त थे कि सीटों के समझौते की घोषणा जब भी होगी बराबर-बराबर के फ़ॉर्मूले पर ही आधारित होगी. लेकिन इस बीच भूपेंद्र यादव जिनके जिम्‍मे लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान और रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा से बातचीत करने का ज़िम्मा था, वो पार्टी के कुछ अन्य कामों में व्यस्त हो गये.

लेकिन नीतीश और बिहार BJP के नेता इस बात पर एकमत थे कि अगर उपेंद्र कुशवाहा जाना चाहें तो उनके मान मनौव्वल में समय की बरबादी नहीं की जाए क्योंकि जिस गठबंधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार होंगे उसे ग़ैर यादव वोटर ख़ासकर कुशवाहा वोटर कभी दूसरी ओर जाएंगे. विशेष रूप से महागठबंधन की ओर जिसका नेतृत्व तेजस्वी यादव के हाथ में होगा, तो बिल्‍कुल ही नहीं जाएंगे. लेकिन पासवान के प्रति सभी लोग एक मत थे कि अभी भी उनके पास पासवान वोटरों को ट्रांसफर कराने की क्षमता क़ायम है इसलिए अगर लोकसभा में उनकी सीटें कम हो रही हों तो उन्हें राज्यसभा किसी भी राज्य से भेज कर उसकी भरपाई तुरंत की जाए. लेकिन नीतीश के सामने भाजपा झुकी तो उसके पीछे ये भी एक फ़ैक्टर रहा कि जहां दलित और अगड़ी जातियों में दलित एक्ट को लेकर नाराज़गी बढ़ रही थी, लेकिन नीतीश ने कम से कम दलितों को ख़ुश करने के लिए कमोबेश उनकी अधिकांश मांगों को मानकर उनके गुस्से को ठंडा करने की कोशिश की. उसके बाद BJP को लगा कि अब भी अगर नीतीश को छोड़ा जाए तो दलित वोटों से उन्हें हाथ धोना पड़ सकता है.

गौरतलब हैकि नीतीश कुमार भाजपा के साथ सरकार बनाने के बाद नाराज चल रहे थे और वो कई मौकों पर दिखा भी. फिर चाहे प्रधानमंत्री मोदी के सामने सार्वजनिक रूप से उनकी पटना विश्व विद्यालय को केंद्रीय विश्व विद्यालय घोषित करने की मांग हो या पिछले साल बाढ़ राहत के लिए मांगी गयी राशि का पंद्रह प्रतिशत मिलने के बाद की नाराजगी. एनडीए में कोई तरजीह नहीं दिए जाने से भी वो निराश थे. उनको बराबर-बराबर सीट देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल जुलाई में सरकार बनने के पूर्व अपने एक वादे को पूरा किया कि राजनीतिक हिस्सेदारी में भाजपा उनका मान सम्मान रखेगी.

VIDEO: बिहार NDA में सीटों को लेकर समझौता

नीतीश ने भी उन्हें भरोसा दिलाया था कि उन्हें पिछले चुनाव के 31 सीटों से ज़्यादा बिहार से मिलेंगी. आने वाले कुछ महीनों में नीतीश को, जिनके अपने सर्वे में तेजस्वी यादव के मुक़ाबले लोकप्रियता 50 प्रतिशत से अधिक है, उसे वोटों में तब्दील करके दिखाना होगा. क्योंकि बिहार में एनडीए के आधार वोट के दो मज़बूत स्तंभ अगड़ी जातियां भाजपा और नीतीश से और दलित भाजपा से नाराज़ और निराश चल रहे हैं. ये सच नीतीश जितना जानते हैं उतना सुशील मोदी भी. इसलिए एनडीए को बिहार में आज महागठबंधन से ज़्यादा चुनौती प्रतिबद्ध पुराने वोटरों की उदासी से मिल रही है. फ़िलहाल सीटों के बराबर-बराबर समझौते से एक बार फिर इस बात पर मुहर लगी है कि बिहार में नीतीश कुमार दूल्हा की भूमिका में ही रहेंगे, भले बारात में कोई दल पीछे खड़ा हो.

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