
- मंजू देवी पिछले 25 वर्षों से पोस्टमार्टम सहायक के रूप में तीस हजार से अधिक शवों का पोस्टमार्टम कर चुकी हैं
- पति के निधन के बाद 5 बच्चों की जिम्मेदारी संभालने के लिए मंजू देवी ने पोस्टमार्टम सहायक का कठिन पेशा चुना था
- उनका पहला पोस्टमार्टम एक सड़क दुर्घटना में मरे युवक का था, जो उनके लिए भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण था
मंजू देवी की कहानी दृढ़ता, त्याग और असाधारण साहस की एक प्रेरणादायक दास्तान है. 50 वर्षीय मंजू देवी पिछले 25 वर्षों से पोस्टमार्टम सहायक के रूप में काम कर रही हैं और इस दौरान 30 से 35 हजार से अधिक शवों का पोस्टमार्टम कर चुकी हैं. यह वह पेशा है जिसे अक्सर कठोर हृदय पुरुषों का काम माना जाता है, लेकिन मंजू देवी ने अपनी हिम्मत और मेहनत से इसमें महारत हासिल की है.
पति के निधन के बाद चुना यह कठिन रास्ता
आज से 25 साल पहले, पति के गुजर जाने के बाद पांच बच्चों की परवरिश की पूरी जिम्मेदारी मंजू देवी के कंधों पर आ गई. बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए, उन्होंने वही रास्ता चुना जो उनके ससुर और पति का था: पोस्टमार्टम सहायक का. यह फैसला उनकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया बन गया. मंजू देवी ने इस बेहद कठिन काम में शवों की चीर-फाड़ करने और उन्हें सिलने का काम सीखा, जिसके लिए वाकई मजबूत कलेजे की ज़रूरत होती है.

पहला पोस्टमार्टम और आंसू
मंजू देवी बताती हैं कि उनका पहला पोस्टमार्टम एक 22 वर्षीय युवक का था, जिसकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई थी. वह कहती हैं, "यह मेरे लिए बिल्कुल भी आसान नहीं था. मैं डर से कांप रही थीं और रो भी रही थीं, लेकिन बच्चों का भविष्य आंखों के सामने था."
डॉक्टर के निर्देश पर, उन्होंने हिम्मत जुटाई, छेनी-हथौड़ी उठाई और शव का सिर, छाती और पेट खोला. उस दिन तो वह घर आकर न खा पाईं न सो पाईं, पर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी की. 25 साल बाद, वही डरी हुई महिला आज एक पेशेवर पोस्टमार्टम सहायक बन चुकी हैं. उन्हें तनावपूर्ण माहौल (जैसे एक बार एक स्थानीय बाहुबली नेता के शव का पोस्टमार्टम) का भी सामना करना पड़ा है. उन्होंने जलने से मरे अपने एक युवा रिश्तेदार के शव का भी पोस्टमार्टम किया है.
त्याग का फल: बच्चों की सफलता
मंजू देवी की जीवन-यात्रा का सबसे बड़ा सार उनके बच्चों की सफलता में निहित है. अपने कठिन संघर्ष के दिनों में उन्होंने बच्चों के लिए यह चुनौतीपूर्ण काम किया. दो बेटों ने संगीत में स्नातकोत्तर की डिग्री ली है और वे अपना संगीत शिक्षण केंद्र चलाते हैं. दोनों बेटियां स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर सिविल सेवाओं की तैयारी कर रही हैं. बच्चों को अपनी मां पर गर्व है, जिन्होंने उन्हें अच्छी शिक्षा देने के लिए इतनी तकलीफें सहीं. मंजू देवी ने साबित कर दिया है कि लगन और दृढ़ संकल्प हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता.

मंजू देवी का दर्द: सुविधाओं की कमी और ₹380 की दिहाड़ी
इतने बड़े त्याग के बावजूद, मंजू देवी आज भी कई मूलभूत सुविधाओं की कमी से जूझ रही हैं. उन्होंने बताया कि पोस्टमार्टम रूम में एसी, पानी और पर्याप्त रोशनी जैसी बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं, जिससे काम करने में दिक्कत होती है.
सबसे बड़ी समस्या भुगतान को लेकर है. उन्हें प्रतिदिन 380 रुपये मिलते हैं, लेकिन यह भुगतान केवल उस दिन होता है जब पोस्टमार्टम किया जाता है. जिस दिन कोई शव नहीं आता, उस दिन उन्हें कोई भुगतान नहीं मिलता. यहां तक कि एक दिन में एक से अधिक पोस्टमार्टम करने पर भी सिर्फ 380 रुपये ही मिलते हैं.
मंजू देवी लंबे समय से अपनी नौकरी को स्थायी करने की मांग कर रही हैं, लेकिन अभी तक उन्हें परमानेंट नहीं किया गया है. उनका कहना है कि सरकार को पोस्टमार्टम असिस्टेंटों को बेहतर सुविधा और स्थायी सेवा का अधिकार देना चाहिए. मंजू देवी की कहानी एक महिला के असाधारण साहस और त्याग को दर्शाती है, जिसने सामाजिक धारणाओं को तोड़ते हुए अपने बच्चों का भविष्य संवारा.
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