
- पवन सिंह ने 2024 के लोकसभा चुनाव में काराकाट सीट से निर्दलीय लड़कर बीजेपी को नुकसान पहुंचाया था.
- अब अमित शाह से मुलाकात और उपेंद्र कुशवाहा से माफी से सवाल है कि वह BJP को कितना लाभ पहुंचा सकते हैं.
- हालांकि पवन सिंह का स्टारडम कई स्थानीय नेताओं के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है. कई नेता उन्हें लेकर असहज हैं.
बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों, स्थानीय मुद्दों और व्यक्तित्व आधारित प्रभाव के इर्द-गिर्द घूमती रही है. ऐसे में भोजपुरी सुपरस्टार पवन सिंह की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. 2024 के लोकसभा चुनाव में काराकाट सीट से उनका उतरना और बीजेपी को हुए नुकसान ने यह साफ कर दिया था कि उनकी लोकप्रियता महज सिनेमाई पर्दे तक सीमित नहीं है. अब, जब वह दिल्ली में बीजेपी नेताओं से मिल रहे हैं और उपेंद्र कुशवाहा से माफ़ी मांग रहे हैं तो सवाल यह उठता है कि इस बार उनकी मौजूदगी बीजेपी को कितना लाभ पहुंचा सकती है.
2024 में पवन सिंह ने दिया था झटका
पवन सिंह ने मंगलवार को ना केवल गृह मंत्री अमित शाह से मुलाक़ात की, बल्कि उसके पहले विनोद तावड़े और ऋतुराज सिन्हा के साथ जा पहुंचे उपेंद्र कुशवाहा के घर, उनसे माफ़ी मांगने. पवन सिंह ने जब 2024 में काराकाट सीट से चुनाव लड़ा था तो उन्होंने जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों में ऐसा विभाजन कर दिया था, जिससे बीजेपी को भारी नुकसान उठाना पड़ा था. इसी क्रम में उपेंद्र कुशवाहा ना केवल हारे बल्कि तीसरे स्थान पर चले गए थे. काराकाट सीट पर पहले से ही राजपूत बनाम यादव समीकरण था. पवन सिंह ने राजपूत और भोजपुरी दर्शकों के बीच अपनी पकड़ का इस्तेमाल किया, जिससे वोटों का बंटवारा हुआ. नतीजतन महागठबंधन ने वहां बाज़ी मार ली. बीजेपी की हार का ठीकरा सीधे-सीधे पवन सिंह पर फूटा.

बीजेपी नेता व केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी पवन सिंह ने मुलाकात की.
इन इलाकों में अच्छा प्रभाव
ऐसा माना जाता है कि भोजपुर, बक्सर, आरा, सासाराम, कैमूर, रोहतास, सीवान और गाजीपुर तक फैले भोजपुरी भाषी इलाकों में पवन सिंह का व्यापक प्रभाव है. उनकी फ़िल्मों और गीतों की लोकप्रियता गांव-गांव तक है. बीजेपी अगर इन्हें अपने साथ जोड़ लेती है, तो वह इस पूरे क्षेत्र में सांस्कृतिक और भावनात्मक जुड़ाव को राजनीतिक समर्थन में बदल सकती है.
युवाओं के चहेते, 'अपनेपन' के प्रतीक
इसके अलावा पवन सिंह का सबसे बड़ा प्रशंसक वर्ग युवा है. ख़ासकर 18 से 35 साल के बीच के मतदाता उनकी फिल्मों और गानों के दीवाने हैं. यही वर्ग सोशल मीडिया पर सबसे सक्रिय है. इसके अलावा मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में रहने वाले बिहारी प्रवासी भी पवन सिंह को ‘अपनेपन' का चेहरा मानते हैं. बीजेपी इस जुड़ाव को चुनावी रणनीति में इस्तेमाल कर सकती है.
अमित शाह से मिलने पहुंचे पवन सिंह, विनोद तावड़े और ऋतुराज सिन्हा भी साथ में मौजूद#pawansingh | #amitshah pic.twitter.com/TlmD9BQSXk
— NDTV India (@ndtvindia) September 30, 2025
बीजेपी को ऐसे पहुंचा सकते हैं फायदा
- पवन सिंह अगर बीजेपी के प्रचार में उतरते हैं तो काराकाट, रोहतास, कैमूर और भोजपुर ज़िले की सीटों पर सीधा असर पड़ेगा. यहां यादव, राजपूत और ब्राह्मण वोटों का संतुलन बड़ा फैक्टर है.
- भोजपुरी सुपरस्टार राजपूत और युवा वोटरों को जोड़ने का काम कर सकते हैं. बीजेपी पहले से ही नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि पर चुनाव लड़ती आई है.
- पवन सिंह जैसे स्थानीय सेलिब्रिटी स्टार के जुड़ने से चुनाव प्रचार में एक नया रंग मिलेगा. रैलियों और रोड शो में उनकी मौजूदगी भीड़ खींचेगी.
- पवन सिंह का बीजेपी में शामिल होना महज एक सीट या क्षेत्र तक सीमित नहीं है. इसका असर पूरे बिहार में मनोवैज्ञानिक रूप से पड़ेगा.
- पवन सिंह की लोकप्रियता से बीजेपी यह दिखा पाएगी कि उसके पास सिर्फ राजनीतिक चेहरे ही नहीं, बल्कि जनसांस्कृतिक प्रतिनिधि भी हैं.
अगर राजनीतिक नजरिए से देखें तो उपेन्द्र कुशवाहा से माफी मांगना महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह बीजेपी को यह संदेश देने का प्रयास है कि पवन सिंह अब पार्टी लाइन में चलना चाहते हैं. यह माफी भविष्य में किसी तरह के बगावती तेवर को कम करने और पार्टी के भीतर स्वीकार्यता बढ़ाने में मदद करेगी.

पवन सिंह ने उपेंद्र कुशवाहा से मुलाकात की और पैर छूकर आशीर्वाद लिया.
बीजेपी में चमके ये भोजपुरी सितारे
भोजपुरी सितारों ने पहले भी राजनीति में अपनी भूमिका निभाई है. मनोज तिवारी, रवि किशन, निरहुआ इसके उदाहरण हैं. पवन सिंह की एंट्री इस परंपरा को आगे बढ़ाती है. मनोरंजन की लोकप्रियता को बीजेपी सीधे चुनावी वोटों में बदल सकती है. मनोज तिवारी, रवि किशन, निरहुआ तीनों राजनीति की बदौलत संसद में गए, वहीं पवन सिंह इस बार बिहार के आरा सीट से विधानसभा का रुख कर सकते हैं.
पवन सिंह के साथ आएंगी ये चुनौतियां
पवन सिंह की मौजूदगी बीजेपी के लिए हालांकि फायदे का सौदा लगती है, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं. काराकाट की हार अभी भी बीजेपी कार्यकर्ताओं के बीच ताज़ा है. पार्टी के भीतर एक धड़ा उन्हें दोबारा मौका देने को लेकर असहज महसूस कर सकता है. पवन सिंह का स्टारडम कई बार स्थानीय नेताओं के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है. इससे अंदरूनी खींचतान की संभावना बनी रहती है. सबसे महवपूर्ण यह सवाल कि क्या भोजपुरी फिल्मों की चमक-दमक वाली छवि से परे पवन सिंह गंभीर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर संवाद कर पाएंगे? यह उनकी स्वीकार्यता का बड़ा इम्तिहान होगा.
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