
- बिहार में अल्पसंख्यक वोट बैंक सदैव निर्णायक भूमिका निभाता रहा है और सभी दल इसे साधने की कोशिश करते हैं.
- चिराग ने सीमांचल व कोसी इलाके के अल्पसंख्यकों को जोड़ने के लिए विकास और सामाजिक न्याय के मुद्दे उठाए हैं.
- ओवैसी सीमांचल क्षेत्र में स्थानीय मुद्दों और अल्पसंख्यक अस्मिता को लेकर अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटे हैं.
बिहार की राजनीति में अल्पसंख्यक वोट बैंक हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाता रहा है. चुनावी साल आते ही इस वर्ग को साधने की कोशिश हर दल करता है. इस बार भी तस्वीर अलग नहीं है. महागठबंधन, एनडीए, लोजपा (रामविलास) और एआईएमआईएम सभी इस वोट बैंक पर अपनी पकड़ मजबूत करने में जुट गए हैं.
महागठबंधन की परंपरागत मजबूती पर चुनौती
लंबे समय से अल्पसंख्यक मतदाता महागठबंधन, विशेषकर कांग्रेस और राजद के लिए एक मजबूत आधार माना जाता रहा है. आरजेडी का एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण दशकों तक चुनावी जीत का आधार बना रहा. लेकिन अब समीकरण बदलते नजर आ रहे हैं. नए राजनीतिक चेहरे और क्षेत्रीय ताकतें इस वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही हैं.
पूर्णिया में हाल ही में हुई चिराग पासवान की बड़ी रैली ने इस समीकरण को और पेचीदा बना दिया है. लोजपा रामविलास के नेता चिराग ने विकास और सामाजिक न्याय के मुद्दों को उठाते हुए अल्पसंख्यकों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति बनाई. उनके इस कदम ने महागठबंधन की चिंता बढ़ा दी है, क्योंकि सीमांचल और कोसी इलाके में मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में मौजूद हैं.
ओवैसी की सीमांचल पर नजर
एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी भी सीमांचल के दौरे की तैयारी में जुटे हैं. सीमांचल क्षेत्र मुस्लिम बहुल इलाका है, जहां 2020 विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी को अप्रत्याशित सफलता मिली थी. उस वक्त एआईएमआईएम ने पांच सीटें जीतकर राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी थी. हालांकि, बाद में चार विधायक अलग हो गए. लेकिन इस सफलता ने यह साबित कर दिया कि ओवैसी यहां प्रभाव बना सकते हैं.
अब दोबारा सीमांचल में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए ओवैसी सक्रिय हो रहे हैं. उनकी रणनीति साफ है स्थानीय मुद्दों और अल्पसंख्यक अस्मिता को लेकर माहौल बनाना. लेकिन उनके सामने चुनौती भी कम नहीं है, क्योंकि महागठबंधन और एनडीए दोनों ही इस इलाके में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहे हैं.
भाजपा और जदयू का पलटवार
बीजेपी और जदयू भी इस पूरे समीकरण पर नजर रखे हुए हैं. भाजपा प्रवक्ता प्रभाकर मिश्रा ने दावा किया कि राजद का एम-वाई समीकरण अब टूट की कगार पर है. उन्होंने कहा कि मुसलमान समझने लगे हैं कि राजद सिर्फ उनके वोट का सौदा करती है. उन्होंने यह भी जोड़ा कि चिराग पासवान "मोदी के हनुमान" हैं और मुसलमानों के बीच उनकी पैठ बढ़ सकती है.
जदयू प्रवक्ता अभिषेक झा ने महागठबंधन पर हमला करते हुए कहा कि कोई भी दल यह सोचकर नहीं चल सकता कि किसी खास वोट बैंक पर उसका स्थायी कब्जा है. उन्होंने नीतीश कुमार की राजनीति को सभी जाति-धर्म का समर्थन मिलने वाला करार दिया और कहा कि महागठबंधन सिर्फ डर का माहौल बनाकर वोट हासिल करने की कोशिश करता है.
कांग्रेस और राजद की सफाई
कांग्रेस प्रवक्ता स्नेहाशीष वर्धन ने वोट बैंक की राजनीति पर सवाल उठाते हुए कहा कि सभी दलों को बिहार के विकास की बात करनी चाहिए. उन्होंने चिराग पासवान और ओवैसी दोनों पर तंज कसते हुए कहा कि जनता अब केवल विकास के मुद्दे पर ही नेताओं को परखेगी.
राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने दावा किया कि अल्पसंख्यक मतदाता पूरी तरह से उनके साथ हैं. उन्होंने कहा कि इस बार मुसलमान और अन्य पिछड़े वर्ग तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर भरोसा करेंगे और भाजपा की किसी भी रणनीति को कामयाब नहीं होने देंगे.
अल्पसंख्यक वोट बैंक की निर्णायक भूमिका
बिहार की राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है कि अल्पसंख्यक वोट बैंक निर्णायक भूमिका निभाता है. सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल जैसे इलाकों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अधिक है. कई विधानसभा सीटों पर उनकी भागीदारी नतीजों को पलटने की क्षमता रखती है. यही वजह है कि हर चुनाव में यह वोट बैंक चर्चा का केंद्र बन जाता है.
पिछले चुनावों का रिकॉर्ड देखें तो यह साफ है कि जिस दल ने अल्पसंख्यकों का भरोसा जीता, उसे सत्ता तक पहुंचने में बड़ी मदद मिली. 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को इस वर्ग का पूरा समर्थन मिला था, जबकि 2020 में सीमांचल में एआईएमआईएम की एंट्री ने समीकरण बदल दिए.
आने वाले दिनों की तस्वीर
इस बार तस्वीर और दिलचस्प है. एक ओर चिराग पासवान नए समीकरण गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं ओवैसी अपने पुराने प्रयोग को दोहराना चाहते हैं. महागठबंधन और एनडीए दोनों को यह डर सता रहा है कि वोटों का बिखराव उनकी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर अल्पसंख्यक वोट किसी एक दिशा में जाता है तो वह पूरे चुनावी नतीजे पलट सकता है. लेकिन अगर यह वोट बैंक बिखर गया तो कई सीटों पर त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है.
बिहार की राजनीति का इतिहास गवाह है कि चुनावी रणनीति में अल्पसंख्यक वोट बैंक हमेशा केंद्र में रहा है. इस बार भी हालात अलग नहीं हैं. चिराग पासवान की रैली, ओवैसी का सीमांचल दौरा, कांग्रेस-राजद की परंपरागत पकड़ और भाजपा-जदयू का पलटवार ये सब मिलकर बिहार की राजनीति को और रोमांचक बना रहे हैं.
आने वाले समय में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि क्या महागठबंधन अपनी पकड़ बरकरार रख पाता है या फिर चिराग और ओवैसी जैसे नेता इस वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब होते हैं. जो भी हो, इतना तय है कि अल्पसंख्यक वोट बैंक पर सियासी घमासान आने वाले चुनावों में सबसे बड़ा फैक्टर साबित होगा.
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